मेरे पिताजी श्री मा.गो. (बाबूराव) वैद्य – कुटुंबवत्सल, ध्येयनिष्ठ और साधन शुचिता को समर्पित आदर्श व्यक्तित्व
डॉ. मनमोहन वैद्य
श्री मा. गो. (बाबूराव) वैद्य नाम से सुपरिचित श्री माधव गोविंद वैद्य, मेरे पिताजी 97 वर्ष का सक्रिय, कृतार्थ और प्रेरणादायी जीवन पूर्ण कर 19 दिसंबर को पूर्णत्व में विलीन हो गए। उनका जीवन कुटुंबवत्सल, ध्येयनिष्ठ और संघ को समर्पित था। 1931 में अपने गांव से पढ़ाई हेतु नागपुर आए और आठ वर्ष की आयु से ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक बन गए। 1938 में संघ का दायित्व ले कर, 15 वर्ष की आयु से 95 वर्ष की आयु तक वे नियमित दैनंदिन शाखा में जाते थे। आरम्भ में संघ का दायित्व, फिर जनसंघ, पत्रकारिता, महाराष्ट्र विधान परिषद के सदस्य, संघ के अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख, अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख, संघ के प्रवक्ता और बाद में स्वयंसेवक – इस रूप से उनका दैनंदिन शाखा में जाने का आग्रह सतत बना रहा। 95 वर्ष की आयु के बाद कोरोना काल के लॉकडाउन तक वे शाखा में साप्ताहिक जाते थे। उनकी जीवन दृष्टि, समय का नियोजन, आर्थिक नियोजन, आर्थिक शुचिता, साधन शुचिता का आग्रह और मृत्यु का नियोजन भी लक्षणीय था।
जीवन दृष्टि
केवल आर्थिक रूप से सफल होना, प्रतिष्ठापूर्ण पद प्राप्त करना जीवन का ध्येय न हो सकता है, न होना चाहिए। क्योंकि, जीवन यापन करने के लिये अर्थार्जन का साधन प्राप्त करना जीवन का ध्येय नहीं होता! जीवन की सफलता या सार्थकता को विचार की इस कसौटी पर कसने वाले थे पिताजी। इसी कारण उनके स्वयं के जीवन में तथा परिवार में हम भाई-बहनों में पद केंद्रित careerist सोच की बजाय समाज केंद्रित सकारात्मक जीवन का विचार जड़ जमा सका।
जिन घटनाओं के कारण जीवन की ओर देखने की एक दृष्टि विकसित हुई, ऐसी पहली घटना जब मैं दसवीं कक्षा में था, उस समय की है। हमें तेलंग सर अंग्रेजी पढ़ाने आते थे। उन्होंने ‘My Aim in life’ (मेरे जीवन का लक्ष्य), इस विषय पर निबंध लिखकर लाने के लिये कहा। 1969-70 की यह घटना है।मेरी कक्षा के बहुसंख्य विद्यार्थियों नें ‘माय एम इज टू बी ए डॉक्टर’ इस विषय पर निबंध लिखा। किसी ने इंजीनियर बनने, किसी ने आई.ए.एस. अधिकारी बनने, तो किसी ने मिलिटरी ऑफिसर बनने का ध्येय लिखा। मैंने पिताजी से चर्चा करके निबंध लिखा था। तब बाबा ने मेरे निबंध का प्रारंभ ‘द एम ऑफ माय लाइफ इज टू बी ए सोशल रिवॉल्युशनरी’ ऐसा करने के लिये कहा। उसके आगे का वाक्य था ‘टू अर्न माय लाइवलीहुड, आय मे बी एन इंजीनियर, डॉक्टर, आई.ए.एस ऑफिसर ऑर अ मिलिटरी ऑफिसर’। अर्थात् जीवन यापन करने के लिये अर्थार्जन का साधन प्राप्त करना जीवन का ध्येय नहीं होता, जीवन का ध्येय अलग होता है। यह विचार जाने अनजाने मन पर प्रतिबिंबित होता गया।
दसवीं की परीक्षा में मुझे अच्छे अंक प्राप्त हुए थे। रसायनशास्त्र मेरा मनपसंद विषय था। जिनको अच्छे अंक प्राप्त हुए थे, ऐसे बहुसंख्य विद्यार्थी मेडिकल में प्रवेश लेने के लिये इच्छुक रहते थे। मेरी एक बहन भी मेडिकल में पढ़ रही थी। मैंने इस विषय पर पिताजी से चर्चा की, तो उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा, “अपने देश को केवल डॉक्टर्स की ही अवश्यकता नहीं है।” फिर एक वर्ष बाद 1971 में मेरे इंजीनियरिंग में दाखिला लेने की चर्चा हुई, तब भी पिताजी का मानना था कि “अपने देश को केवल इंजीनियर्स की आवश्यकता नहीं है।” ऐसी छोटी-छोटी बातों से अपने देश की क्या आवश्यकता हो सकती है, इस विषय में सोचने की आदत उन्होंने हम सभी भाई बहनों को लगाई। इस बात का अनुभव मुझे अब हो रहा है।
पिताजी नियमित पढ़ते थे। काल्पनिक अंग्रेजी उपन्यासों से ले कर तत्वज्ञानात्मक गंभीर पुस्तकों तक उनका पढ़ने का दायरा रहता था। मैं एमएससी (M.Sc.) कर रहा था, तब मैंने देखा कि साधारणतः मेरे पढ़ने के समय से अधिक समय वे पढ़ रहे होते। उनका पुस्तक संग्रह भी विपुल, वैविध्यपूर्ण और व्यवस्थित रखा हुआ था, जिससे कोई भी पुस्तक तुरंत प्राप्त हो सके।
पढ़ते रहो
पीएचडी का प्रबंध विश्वविद्यालय में जमा करके मैंने 1983 में प्रचारक के रूप में कार्य करना प्रारंभ किया। मुझे गुजरात में कार्य के लिये भेजा गया। गुजरात में कहां काम करना, यह मुझे पता नहीं था। अहमदाबाद में पहुंचने के बाद आगे की व्यवस्था तय होनी थी। रात को 10 बजे नागपुर से निकलने वाली दादर एक्सप्रेस से मुझे प्रवास करना था। सायं शाखा के पश्चात घर में भोजन करते समय पिताजी ने एक बात बताई। हमारे कोई रिश्तेदार या निकट परिचित गुजरात में नहीं थे। अलग प्रांत, नयी अपरिचित भाषा, प्रचारक के रूप में नया अनुभव, ऐसी स्थिति होने के बावजूद ‘अच्छे से रहना, स्वास्थ्य की चिंता करना, पत्र भेजते रहना’, ऐसी सूचनाएं देने के बजाय उन्होंने कहा, “प्रचारक को नित्य नया कुछ पढ़ना चाहिये। जो कार्यक्षेत्र मिलेगा वहां ग्रंथालय होगा, वहां की सदस्यता ले लेना। अच्छी पुस्तकें पढ़ने के लिये उपलब्ध होंगी। मान लो अगर छोटा स्थान, ग्रामीण क्षेत्र मिला, और वहां ग्रंथालय नहीं होगा, तो ऐसे परिवार में परिचय बढ़ाओ जहां अच्छी पुस्तकों का संग्रह होगा।” मतलब पुस्तकें कैसे प्राप्त हो सकती हैं, इसका भी मार्गदर्शन किया और नित्य नया वाचन होना भी प्रचारक के लिये कितना आवश्यक है, इसका भी महत्व समझाया।
कुटुम्बवत्सल
पिताजी ‘कुटुम्बवत्सल’ थे। हमारे शालेय जीवन के समय मनोरंजन के अन्य साधन नहीं थे। तब गर्मी और दीपावली के अवकाश में वे नियमित हमारे साथ ताश खेलते थे। ताश में ब्रिज, हार्ट ऐसे नए खेल भी उन्होंने ही हमें सिखाए। हमारे रिश्तेदारों का जमावड़ा बहुत बड़ा था, आज भी है। इन सभी के साथ रिश्तेदारी निभाने के लिए वे अवश्य समय निकालते थे। उन सभी के पारिवारिक प्रसंगों में वे सहभागी होते थे। वे खेती भी करना जानते थे। अच्छे किसान थे. खेती में अनेक नए प्रयोगों की पहल हमारे गांव में हुई थी। मनुष्यों की परख के साथ उन्हें बैलों की भी अच्छी परख थी। खेती बैल आधारित ही होती थी। अच्छी बैलजोड़ी खरीदने के लिए वे सुदूर तेलंगाना तक भी जाते थे। गांव के साथी किसानों के लिए भी वहां से बैल खरीद कर लाते थे। मैं भी अनेक बार उनके साथ बैल बाजार में गया हूं। गांव में हमारी खेती की जमीन बेचने के बाद भी उनका गांव के साथ जीवंत संपर्क बना रहा था। हमारे गांव की प्रसिद्ध यात्रा और ‘पोला’ नामक किसानों के सबसे महत्त्व के त्यौहार के समय वे अवश्य गांव जाते थे। ‘पोला’ के समय सबसे अच्छी बैलजोड़ी को पुरस्कृत कर वे बैलों की अच्छी देखभाल करने को प्रोत्साहन देते थे।
जीवन के पचास वर्ष पूर्ण होते ही उन्होंने घर पर समय देने हेतु एक क्रम शुरू किया। आषाढ़ एकादशी से कार्तिक एकादशी तक चातुर्मास के समय रात्रि नौ बजे से दस बजे तक परिवार के सभी जन एकत्र होकर एक स्तोत्र, भगवद्गीता के अध्याय का पाठ और गीता सम्बंधित पुस्तक का सामूहिक पठन करते। सभी के लिए नियम था कि वे रात्रि नौ बजे के पहले घर आ जाएं। पिताजी स्वयं भी इन चार महीनों में रात नौ बजे के बाद के किसी सार्वजनिक कार्यक्रम को स्वीकार नहीं करते थे। यह क्रम कई वर्षों तक अनवरत चलता रहा।
आत्मानुशासन
साठ वर्ष होते ही संपादक पद से निवृत्त होने का उनका आग्रह था। ‘तरुण भारत’ के संचालकों का आग्रह था कि वे आगे भी कुछ वर्ष तक संपादक रहें। पर पिताजी ने अपनी योजना के अनुसार ही संपादक पद से निवृत्ति का निर्णय लिया। बाद में ‘तरुण भारत’ का संचालन करने वाले नरकेसरी प्रकाशन के प्रबंध संचालक और बाद में उस के अध्यक्ष के नाते उनकी सेवाएं ली गयीं। यह कार्य भी उन्होंने 70 वर्ष की आयु तक ही करने का निर्णय लिया था। स्वास्थ्य अच्छा होते हुए भी संघ के अखिल भारतीय दायित्व में 75 वर्ष की आयु के बाद नहीं रहने का अपना निर्णय उन्होंने आग्रहपूर्वक लिया। यह बात 1998 की है। उसके बाद सामान्य स्वयंसेवक के नाते वे सक्रिय रहे। सन् 2000 में संघ में पहली बार प्रवक्ता की योजना बनी। विशेष आग्रह पर ‘केवल तीन वर्ष तक ही यह दायित्व निभाऊंगा’ कह कर उन्होंने स्वीकृति दी और ठीक तीन वर्ष के बाद सामाजिक जीवन में एक स्वयंसेवक के नाते वे सतत सक्रिय रहे।
समय का नियोजन
उनका समय का नियोजन भी निश्चित रहता था। शाखा, परिवार का समय, पढ़ने का समय- पहले रेडियो पर समाचार सुनने और बाद में टेलीविजन आने के बाद समाचार देखने का समय निश्चित होता था। समय पालन का आग्रह भी विलक्षण था। मेरे प्रचार प्रमुख के दायित्व के दौरान कई पत्रकार ऐसे मिले जिन्होंने कहा कि पांच मिनट देरी से पहुंचने पर आपके पिताजी ने हमें वापस भेज दिया था। ऐसे एक पत्रकार जो पांच मिनट देरी से पहुंचने पर वापस लौटा दिए गए थे, अगली बार शाम चार बजे का समय मिलने पर, देरी ना हो इसलिए साढ़े तीन बजे ही पहुंच गए। पिताजी पुस्तक पढ़ रहे थे। पिताजी को अकेले बैठे देख कर उस पत्रकार ने बातचीत शुरू करनी चाही तो पिताजी ने टोका कि अभी चार नहीं बजे हैं और वे पुस्तक पढ़ने में लगे रहे। ठीक चार बजे पुस्तक पढ़ना रोक कर उन्होंने बातचीत शुरू की।
आर्थिक अनुशासन
संघ के अधिकारियों के कहने पर 17 वर्ष की जमी-जमाई प्राध्यापक की नौकरी छोड़ कर पत्रकारिता के एकदम नए क्षेत्र में कदम रखने का निर्णय वैसे अव्यावहारिक ही कहा जाना चाहिए। वह भी बढ़ता हुआ विस्तृत परिवार होते हुए भी पहले की तुलना में कम वेतन पर ! पर जगत के व्यवहार में अव्यावहारिक माना जाने वाला यह निर्णय ध्येयनिष्ठ जीवन के लिए सहज था। पिताजी ने मां की सहमति और सहायता से यह निर्णय लिया। जब पूछा गया कि इतने कम वेतन में परिवार का गुज़ारा कैसे होगा, तब पिताजी ने कहा कि इतने कम वेतन में अपना गुज़ारा चलाने वाले अनेक परिवार उन्हें पता है और आर्थिक आवश्यकताओं में कटौती कर, स्वाभिमानपूर्वक, किसी की सहायता लिए बिना, स्वयं अधिक कष्ट करते हुए माँ की सहायता से उन्होंने परिवार की आवश्यकताओं का आर्थिक नियोजन किया।
आर्थिक स्रोत को ध्यान में रख कर उनका आर्थिक नियोजन भी पूर्ण रहता था। मेरा छोटा भाई राम, जो आजकल विश्व विभाग में प्रचारक है, स्नातक के अंतिम वर्ष में था। तब महाराष्ट्र में आर्थिक दृष्टि से अक्षम छात्रों के लिए शुल्क (फीस) माफी की योजना थी। पिताजी सेवानिवृत्त हो चुके हैं, यह जानकर कॉलेज के कार्यालयीन कर्मचारी के सुझाने पर राम ने शुल्क माफी का पर्याय चुना। वह मंजूर भी हुआ। चार महीने तक राम द्वारा शुल्क के लिए पैसे नहीं मांगने पर जब पिताजी ने उसे पूछा, तब उसने शुल्क माफी की बात कही। पिताजी ने कहा कि ‘तुम्हारी पढ़ाई के लिए आवश्यक आर्थिक व्यवस्था मैंने कर रखी है’ और महाविद्यालय को पत्र लिखा कि गलती से शुल्क माफी हो गयी है, इसलिए वे उन चार महीनों का शुल्क और देरी के लिए दंड (फाइन) देंगे और वैसा उन्होंने किया।
जिन दिनों पिताजी ‘तरुण भारत’ के संपादक थे, उन दिनों मेरे बड़े भाई धनंजय ने बैंक में नौकरी के साथ एक छोटा सा व्यवसाय भी प्रारंभ किया था। उस व्यवसाय के लिये उसे नागपूर के बाहर भी फोन करने पड़ते थे। फोन ‘तरुण भारत’ का था। हर महीने टेलिफोन बिल आने के बाद पिताजी धनंजय ने किये हुए एसटीडी कॉल के पैसे तरुण भारत में जमा करते थे।
नरकेसरी प्रकाशन के अध्यक्ष के नाते उन्हें कार तथा चालक की सुविधा थी। जिस दिन उन्होंने अध्यक्ष पद से निवृत्ति ली उस दिन तरुण भारत कार्यालय से कार से आने के स्थान पर वे रिक्शा से आए। कार चालक उन्हें घर छोड़ने के लिए तैयार खड़ा था। प्रबंध संचालक के बार-बार कहने पर भी उन्होंने कार का उपयोग करने से मना कर दिया। प्रबंध संचालक ने मेरे बड़े भाई धनंजय को टेलिफोन कर कहा कि डेप्रिसिएशन (मूल्य ह्रास) के कारण वही कार 11 हजार रुपये में वे खरीद लें ताकि पिताजी के काम आ सके। पर पिताजी ने उसे भी अस्वीकार कर दिया। बाद में जब वही कार 55,000/- रुपये में बिकी तब पिताजी ने यह ध्यान दिलाया कि उनका निर्णय कितना सही था। ऐसा था उनका आर्थिक अनुशासन और साधन शुचिता का आग्रह।
सम्मान, पद की चाह नहीं
तत्कालीन जनता पार्टी से गठबंधन कर सरकार बनाकर शरद पवार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने। उस समय राज्यपाल द्वारा विधान परिषद में पिताजी की नियुक्ति करने का विचार चल रहा होगा। राजनैतिक पद प्राप्त करने के लिए लोग कैसे-कैसे प्रयास करते हैं, यह सार्वजनिक जीवन के कार्यकर्ता बखूबी जानते हैं। जब तरुण भारत, पुणे के एक सार्वजनिक कार्यक्रम में शरद पवार जी की पिताजी से मुलाकात हुई तब शरद जी ने पिताजी से कहा कि विधान परिषद में राज्यपाल द्वारा मनोनीत करने हेतु आप के नाम की चर्चा है। पर केवल आपके लोगों द्वारा ही आपके नाम की प्रस्तुति हो रही है। अन्य लोगों द्वारा भी प्रस्तुति आए वह ऐसा प्रयत्न करेंगे तो आसान होगा। तब पिताजी ने कहा था कि मेरे नाम के लिए मैं प्रयत्न करूंगा, यह बात आप छोड़ ही दीजिए, मेरा नाम भी छोड़ दीजिए। मैं आपको विदर्भ से दो तीन योग्य व्यक्तियों के नाम कुछ समय बाद भेजूंगा।
इस सबके बावजूद पिताजी का नाम विधान परिषद के मनोनीत सदस्य के लिए चुना गया। पिताजी को यह निर्णय बताने के लिये तत्कालीन जनता पार्टी की वरिष्ठ नेता सुमतिताईजी सुकलीकर घर आयीं थीं। शाम का समय था. मैं सायं शाखा से जब घर पंहुचा तब ताईजी निकल रहीं थीं। पिताजी उनको छोड़ने के लिये बाहर तक आए थे। तब ताई जी के शब्द सुनाई दिये, ‘बाबूराव जी, आप मना नहीं करना!’ तब पिताजी ने कहा, ‘ताईजी, जिन्होंने मुझे तरुण भारत की जिम्मेदारी सौंपी है, उन्हें पूछे बिना, बताए बिना, मैं हां कैसे कह दूं?’ असल में ऐसी नियुक्ति होने के लिये लोग/कार्यकर्ता क्या-क्या प्रयत्न करते हैं, यह सर्वविदित है। उस दौरान सरसंघचालक प.पू. बालासाहेब देवरस प्रवास में थे। तीन दिन बाद उनके नागपुर आने के बाद उनसे भेंट कर और उनकी अनुमति के बाद ही पिताजी ने ‘हां’ कहा था। इन तीन दिनों में पिताजी को अभिनंदन के लिये निरंतर फोन आए। परंतु हमारे घर में नियुक्ति की खुशी में तीन दिन बाद ही मिठाई लाई गई।
इसी संदर्भ में एक और घटना याद आ रही है। रोज अपनी शाखा में आने वाला एक स्वयंसेवक विधान परिषद का सदस्य बना, महाराष्ट्र का विधायक बना – इस बात की खुशी स्वाभाविक रूप से शाखा में सभी को हुई थी। इस प्रसंग के कुछ दिन बाद ही गोरक्षण शाखा का शरद पूर्णिमा का कार्यक्रम था। उसमें पिताजी का बौद्धिक होने वाला था। शाखा स्वयंसेवकों ने इसी कार्यक्रम में विधायक होने पर पिताजी का सम्मान कार्यक्रम भी तय किया था। उस कार्यक्रम में मैं भी उपस्थित था। पिताजी का परिचय और सम्मान होने के बाद वे बोलने के लिये खड़े हुए और प्रारंभ में ही सब स्वयंसेवकों को खरी खरी सुनाई। उन्होंने कहा, ‘एक राजनैतिक पद मिलने के बाद मुझमें क्या बदलाव आया? मैं तो वही हूं, स्वयंसेवक! राजनैतिक उपलब्धि का उत्सव मनाने का प्रचलन संघ स्वयंसेवकों में कबसे प्रारंभ हुआ? अन्य कोई इसे उपलब्धि माने तो अलग बात है। परंतु संघ स्वयंसेवक ऐसा मानें तो यह गलत ही है। एक स्वयंसेवक प्रचारक के रूप में अपना जीवन प्रारंभ कर रहा हो तो उसका अभिनंदन अवश्य करना चाहिए।
मृत्यु आने पर उसका स्वागत
मृत्यु का भी उन्होंने पूर्व आयोजन किया था। ‘विना दैन्येन जीवनम् अनायासेन मरणम्’ ऐसा सूत्र वे अनेक बार कहते थे। सौ वर्ष तक जीने का संकल्प था उनका। अभी 11 मार्च 2021 को, केवल तीन महीने बाद ही, वे 98 वर्ष पूर्ण कर 99वें वर्ष में प्रवेश करने वाले थे। परंतु मृत्यु आने पर उसका स्वागत करने की बात भी वे साथ-साथ करते थे। 2017 में ही उन्होंने यह लिख कर रखा था कि जिस स्थान (गांव) पर मेरी मृत्यु होगी, वहीं अंत्यसंस्कार करना चाहिए। मृत शरीर को घर पर लाने के बाद 12 घंटों से अधिक नहीं रखना चाहिए। विद्युत दाहिनी या डीजल दाहिनी में दाह करना चाहिए और आगे यह भी लिख रखा था कि श्मशान में श्रद्धांजलि के भाषण नहीं करने चाहिए। अलग-अलग संस्थाएं चाहें तो अपने कार्यक्रम रखें।
वचन की प्रतिबद्धता
वचन की प्रतिबद्धता का भी विलक्षण आग्रह उनका रहता था। 1947 में उनके विवाह की बातें चल रही थीं। तब नागपुर शहर के कार्यवाह श्री बालासाहब देवरस जी ने उन्हें पूछा कि 9 मई से शुरू होने वाले मद्रास के वर्ग में मुख्य शिक्षक के नाते जा सकते हो क्या? उनका उत्तर सकारात्मक था। उसके लिए 7 मई को नागपुर से निकलना आवश्यक था।
तीस दिन का वर्ग होने के कारण 9 जून के बाद नागपुर वापस आना था। विवाह सम्बंधित सारी बातें होकर विवाह की तिथि 15 मई की तय हो रही थी। तब पिताजी ने कहा कि वे 7 मई से 11 जून तक उपलब्ध नहीं हैं, कारण – उन्हें वर्ग में जाना है। वधु पक्ष के लोगों ने श्री बालासाहब देवरस जी को मिलकर सारी बात बताई, तब श्री बालासाहब जी ने कहा कि ‘उसे मुझे मिलने के लिए कहिये, उसे बाद में शुरू होने वाले दूसरे प्रान्त के वर्ग में भेजेंगे।’ यह बात जब पिताजी को बताई गई तब उन्होंने कहा कि एक बार बालासाहब को हां कहा है तो मैं दोबारा मिलने नहीं जाऊंगा और विवाह के लिए वर्ग से आने के बाद की तिथि तय कर सकते हैं। यह बात सुनकर वधु पक्ष को स्वाभाविक गुस्सा आया और उन्होंने कहा कि ‘फिर हम पर अवलम्बित न रहें’। बस! यह सुनते ही हमारे दादाजी भी गुस्से में कह गए कि ‘ठीक है! दोबारा आओगे तो फिर से लड़की देखने से शुरुआत करेंगे!’
दीपावली बाद फिर से वे दोबारा आए तो दादाजी ने फिर लड़की देखने की बात की। वे मान भी गए। पर जब दादाजी ने पिताजी से लड़की देखने चलने के लिए कहा तो पिताजी ने कहा, ‘एक बार देख कर हां कहा है तो दोबारा नहीं आऊंगा। मेरी हां ही है। यदि इन दस महीने के कालखंड में लड़की को लकवा हुआ हो, वह अपाहिज हुई हो या और कोई बीमारी हुई हो – तो भी मेरी हां ही है।’ इस तरह मई 1947 में होने वाली शादी मार्च 1948 में हुई। इस प्रकार से अपने वचन के पक्के थे पिताजी।
राज्यपाल द्वारा पिताजी के महाराष्ट्र विधान परिषद का सदस्य मनोनीत होने की बात पहले की जा चुकी है। उसका शपथ ग्रहण समारोह तुरंत तीन दिन के अंदर रखा गया। कारण विधानपरिषद के सभापति श्री रा.सू. गवई दो महीने के लिए विदेश जाने वाले थे। परन्तु पिताजी ने शपथ ग्रहण के लिए निर्धारित दिन ही नागपुर के विनायकराव देशमुख विद्यालय को किसी कार्यक्रम के लिए समय दे रखा था। जब पिताजी से शपथ ग्रहण समारोह में आने का आग्रह किया गया और यह भी बताया गया कि बाद में दो माह तक सभापति भारत में नहीं रहेंगे… तब पिताजी ने कहा कि वे दो माह बाद शपथ लेंगे और उन्होंने विद्यालय को दिया वचन पूर्ण किया।
संघ के प्रति अद्भुत समर्पण
‘संघशरणता’ का महत्वपूर्ण गुण नियमित शाखा जाने से ही व्यक्तित्व में आता है। अनेक वर्षों से संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक हर तीसरे वर्ष नागपुर में होती है। ऐसी ही एक बैठक मार्च 2018 में नागपुर में हो रही थी। पिताजी अनेक वर्षों से इस बैठक में उपस्थित रहते थे। परंतु अब अधिक आयु होने के कारण वे इस बैठक में नहीं आते थे। देशभर के प्रमुख कार्यकर्ताओं की और पिताजी की भेंट होनी चाहिये, इस उद्देश्य से माननीय सरकार्यवाह श्री भय्याजी जोशी ने पिताजी को कुछ समय के लिये बैठक स्थान पर आमंत्रित किया। 11 मार्च, 2018 को दोपहर के बाद पिताजी बैठक स्थान पर पहुंचे। 11 मार्च पिताजी का अंग्रेजी दिनांक के अनुसार जन्मदिन होता है। यह सरकार्यवाह जी को पता चला, इसलिये उनकी आयु के 95 वर्ष पूर्ण होने पर पूजनीय सरसंघचालक मोहनराव भागवत जी द्वारा पिताजी का सम्मान किया गया। पिताजी व्हीलचेयर पर बैठे थे, इसलिये सरसंघचालक जी ने मंच से उतर कर पिताजी को शाल एवं श्रीफल देकर सम्मानित किया। पिताजी (आयु 95 वर्ष) ने सरसंघचालक जी (आयु 68 वर्ष) को झुककर नमस्कार करना चाहा, तब सरसंघचालक जी ने हाथ पकड़ कर उनको रोका। यह सबने देखा। अत्यंत हृदयस्पर्शी प्रसंग था। उसके बाद पिताजी को पांच मिनट बोलना था। तब पिताजी ने भाषण के प्रारंभ में ही कहा कि, ‘पूजनीय सरसंघचालक जी ने मुझे प्रणाम नहीं करने दिया, इसलिये मैं मन से ही उनके चरणस्पर्श करता हूं।’ यह सुनकर सब भावविभेर हो गए। अगले तीन मिनट पिताजी ने जो भाषण दिया वह बहुत सारभूत और मार्मिक था। उन्होंने कहा, ‘संघ को समझना आसान नहीं है। संघ को समझने के लिये ‘ईशावास्योपनिषद’ समझना आवश्यक है। इस उपनिषद के एक श्लोक में ‘आत्मतत्व’ का वर्णन करते समय परस्पर विरोधी बातें एकसाथ कही गई हैं।’ वह श्लोक इस प्रकार है :
‘तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके. तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यत:..’
अर्थात ‘वह (आत्म तत्व) हलचल करता है, और वह हलचल नहीं करता। वह दूर है और वह पास है। वह सब के अंदर है और वह सब के बाहर है.’ यही सब वर्णन संघ के लिये भी लागू होता है! ‘संघ राजनैतिक है भी और नहीं भी। संघ धार्मिक संगठन है भी और नहीं भी। संघ एक सामाजिक संस्था है, और संघ एक सामाजिक संस्था नहीं भी है क्योंकि संघ पूरे समाज का संगठन करता है। संघ समाज से एकात्म है। संघ पूर्ण समाज है।’
इतनी मूलभूत बात केवल कुछ मिनटों में अपने वक्तव्य में उन्होंने सहजता से बताई। प्रतिनिधि सभा होने के बाद मैं घर गया। पिताजी से बात करते समय, ‘सबको आपका भाषण बहुत अच्छा लगा’ यह बताने पर उन्होंने कहा, ‘मैं प्रकृति अस्वस्थ होने के कारण मंच पर नहीं जा पाया, इसलिये पूजनीय सरसंघचालक जी को मेरे लिये मंच से उतर कर नीचे आना पड़ा. इसका मुझे दु:ख है और संकोच लग रहा है.’ यह प्रसंग मेरे मन में बस गया है।
ऐसे छोटे छोटे प्रसंगों ने, बातों ने, जाने-अनजाने हम सबका जीवन गढ़ा है, आकार दिया है।
अब पिताजी का शरीर तो नहीं रहा। पर ऐसा लगता है कि इन सभी दिशादर्शक विचार तथा आदर्शों के रूप में वे हमारे साथ ही हैं। उनके द्वारा प्रशस्त किये मार्ग पर चलने का सामर्थ्य प्राप्त हो यही उनसे और सर्वशक्तिमान परमेश्वर से प्रार्थना है।
(सह सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ)