मानवाधिकार
जब 5 साल का एक बेटा अपने वीरगति प्राप्त सैनिक पिता को मुखाग्नि देता है तब न जाने क्यों इन मानवाधिकार के हिमायतियों की मानवता मर जाती है।
शुभम वैष्णव
हमारे यहां कुछ लोगों में मानवाधिकारों को लेकर बहुत बड़ा डर बैठा है। उन्हें अपने से ज्यादा कुछ विशेष लोगों के मानवाधिकारों की चिंता रहती है। उन्हें अनेक बार मानवाधिकारों की वकालत करते देखा जा सकता है, कभी आतंकवादियों के लिए तो कभी नक्सलवादियों के लिए। ये लोग पत्थरबाजों को भी मासूम भटके हुए नौजवान कह कर संबोधित करते हैं। परंतु जब 5 साल का एक बेटा अपने वीरगति प्राप्त सैनिक पिता को मुखाग्नि देता है तब न जाने क्यों इन मानवाधिकार के हिमायतियों की मानवता मर जाती है। इन सब मानव अधिकार की वकालत करने वालों के मुंह पर न जाने क्यों मौन की पट्टी बंध जाती है? ऐसा लगता है इनकी दृष्टि में एक हुतात्मा जवान की जान की कोई कीमत नहीं है। जबकि सीमा पर 24 घंटे तैनात इन जवानों के कारण ही हम लोग और हम सबका परिवार चैन से सो पाते हैं।
जरा पूछ कर तो देखिए उन बलिदानियों के परिवारों से जिन्होंने अपना सब कुछ खो दिया है। फिर भी उस हुतात्मा का परिवार पूछने पर कहता है हमें गर्व है कि हमने अपना एक सपूत मां भारती के चरणों में अर्पित कर दिया है। जरा अपने इन बंद नेत्रों को खोल कर तो देखो जिन पर गुलामी और दलाली की पट्टी बंधी हुई है। याद रखें एक सैनिक देश के लिए लड़ता है और आतंकवादी उसी देश को मिटाने के लिए लड़ता है।