मानव अधिकारों को कुचलने वाला वामपंथी चीन
प्रशांत पोळ
आज दस दिसंबर को विश्व मानव अधिकार दिवस है। द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने के पश्चात, संयुक्त राष्ट्रसंघ का गठन हुआ और इसकी अपनी प्रारंभिक बैठकों में ही विश्व में मानवाधिकारों का मुद्दा उठा। दिनांक 10 दिसंबर 1948 की, संयुक्त राष्ट्र संघ की विशेष बैठक में, मानव अधिकारों पर विस्तृत चर्चा हुई और मानव अधिकारों के हनन के विरोध में प्रस्ताव पारित किया गया। इसलिए सन 1950 से प्रतिवर्ष 10 दिसंबर को, संयुक्त राष्ट्र संघ विश्व मानव अधिकार दिवस मनाता है।
अपने देश में विदेशी आक्रांताओं के कारण मानव अधिकारों का जबरदस्त हनन और दमन हुआ था। मुस्लिम आक्रांता, पुर्तगाली, डच, फ्रेंच और अंग्रेजों ने स्थानीय भारतियों पर बर्बर और पाशविक अत्याचार किए। लाखों लोगों को मारा। उनकी धार्मिक स्वतंत्रता छीनी। बलात धर्मांतरण किया।
यह सिलसिला स्वतंत्रता मिलने तक, अर्थात 15 अगस्त 1947 तक चलता रहा। उसके बाद, इन 73 वर्षों में एक ही तगड़ा अपवाद रहा – आपातकाल का। काँग्रेस सरकार ने, इन्दिरा गांधी के नेतृत्व में, 26 जून 1975 को इस देश में आपातकाल लगाया। सामान्य नागरिकों के सारे अधिकार छीन लिए गए। डेढ़ लाख से ज्यादा लोगों को, बिना मुकदमा चलाए जेलों में ठूंस दिया गया। पुलिस अत्याचार में अनेक कार्यकर्ता मारे गए। अनेक हमेशा के लिए अपाहिज हो गए। यह देखकर, संत विनोबा भावे के सहयोगी, प्रभाकर शर्मा ने, 14 अक्तूबर 1976 को, पवनार आश्रम में आत्मदाह करके मृत्यु का वरण किया।
किन्तु यह एक अपवाद ही था। इसके बाद काँग्रेस की हिम्मत नहीं हुई, मानवाधिकारों का दमन करने की..!
इस संदर्भ में विश्व का परिदृश्य देखें, तो संयुक्त राष्ट्र संघ बनने के बाद, मानव अधिकारों का सबसे ज्यादा दमन कम्युनिस्ट और इस्लामी राष्ट्रों में हुआ है। सोवियत रशिया ने अपने आधिपत्य वाले देशों में, करोड़ों लोगों को मौत के घाट उतारा। चीन ने भी यही किया।
आज विश्व में मानवाधिकारों का सर्वाधिक हनन यदि कहीं हो रहा हैं, तो निर्विवाद रूप से वह देश चीन है। विश्व की सबसे ज्यादा लोकसंख्या का देश, लोकतांत्रिक नहीं है। वहां पर एक ही पार्टी का राज चलता है – CCP अर्थात चीन की कम्युनिस्ट पार्टी। विरोध का कोई भी स्वर वहां सख्ती से दबाया जाता है। विश्व की व्यवस्था और अर्थव्यवस्था को चौपट करने वाला कोविड, चीन के वुहान से ही प्रारंभ हुआ। किंतु चीन ने कठोरता से सभी आंकड़े दबाए, मृत्यु की सही संख्या दुनिया के सामने नहीं आने दिया।
किंतु चीन ने जो बर्बरता दिखाई, वह मुख्यतः दो क्षेत्रों में, एक तिब्बत में और दूसरी शिनजियांग क्षेत्र में। ये दोनों ही क्षेत्र, चीन के स्वामित्व वाले नहीं थे। इन दोनों क्षेत्रों पर चीन ने बलात कब्जा जमाया है।
दिनांक 7 अक्तूबर 1950 को चीन की सेनाओं ने तिब्बत पर हमला किया और 19 अक्तूबर को ‘चामड़ों’ नामक शहर पर कब्जा किया। तिब्बत की स्वतंत्र सरकार ने भारत से सैन्य सहायता मांगी। वह न मिलने पर, तिब्बती धर्मगुरु, दलाई लामा ने 11 नवंबर, 1950 को संयुक्त राष्ट्र संघ से मदद मांगी। यहां भी कुछ नहीं हुआ, तो तिब्बत की शांतिप्रिय बौद्ध जनता ने, चीनी सेनाओं का विरोध जारी रखा। आखिरकार चीन के दमन से संत्रस्त और अपने मृत्यु की आशंका के चलते दलाई लामा 31 मार्च 1959 को भारत पहुंचे और भारत ने उन्हें राजनैतिक आश्रय दिया।
इसके बाद चीन ने तिब्बत पर अपना दमन चक्र और भी तेज किया। तब से अब तक, चीन ने 12 लाख तिब्बती नागरिकों की हत्या की है। हजारों निर्दोष तिब्बती आज भी जेल में सड़ रहे हैं। 6000 से भी ज्यादा तिब्बती मठों को चीनी सरकार ने ध्वस्त किया है। आज भी तिब्बत, एक बहुत बड़ा जेल है। जिस पर चीनी अधिकारियों की चौकन्नी नजर है। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने पिछले वर्ष जब अपना एक दल, तिब्बत क्षेत्र (TAR – Tibet Autonomous Region) में भेजना चाहा, तो चीनी अधिकारियों ने उसे ठुकरा दिया।
तिब्बतियों के धर्मगुरु दलाई लामा का नाम लेना भी चीन में गंभीर अपराध है। जो इस नाम की चर्चा करता है, उसे तुरंत जेल में डाल दिया जाता है। ऐसे अनेक प्रतिष्ठित और विद्वान तिब्बती नागरिक आज भी चीन की विभिन्न जेलों में कैद हैं।
चीन के भूभाग का पांचवा हिस्सा है– शिनजियांग प्रांत भारत के लिए यह महत्वपूर्ण हैं, क्यूंकी चीन ने भारत का जो हिस्सा बलात रूप से हथियाया हैं, वह ‘अक्साई चीन’, इसी शिनजियांग प्रांत का एक अंग हैं. यह क्षेत्र शिनजियांग उईघर ऑटोनोमस रीज़न (XUAR – Xinjiang Uyghur Autonomous Region) के नाम से जाना जाता है। कुल ढाई करोड़ की आबादी वाले इस क्षेत्र में उईगर मुस्लिमों की संख्या लगभग आधी है और पांच प्रतिशत हुई मुस्लिम हैं। ये उईगर मुस्लिम, तुर्की मुसलमानों की संताने हैं। इसलिए यह प्रांत पहले पूर्वी तुर्कस्तान (East Turkestan) कहलाता था। पचास के दशक में, दो बार यह प्रांत, स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में प्रस्थापित हुआ। किंतु अंततः चीन ने इस पर 1959 में कब्जा किया।
तब से आज तक, चीन ने इस क्षेत्र के मुसलमानों पर पाशविकता की सारी हदें तोड़ते हुए, भयानक अत्याचार किए हैं। इस क्षेत्र में सवा करोड़ से ज्यादा मुस्लिम रहते हैं।इनमे से बारह लाख मुस्लिमों को चीन ने पिछले 3 वर्षों से जेल में बंद रखा है। जो बाहर हैं, उनमे से अधिकांश मुस्लिमों की नसबंदी की गई हैं।
इस XUAR क्षेत्र मे, उईगर मुसलमानों के लिए एक हजार से ज्यादा जेल बनाए गए हैं। मात्र वर्ष 2017 में, चीन ने, ऐसे जेल बनाने में २० बिलियन युआन, अर्थात 2.96 बिलियन अमरीकी डॉलर्स खर्च किए हैं। इन कैदखानों को चीन ने ‘सुधार पाठशाला’ नाम दिया हैं। इन जेलों में कैदियों को ज़बरदस्ती मेंडरिन भाषा सिखाई जाती है। यहां पर चीनी साम्यवाद के पाठ का घुट्टा पिलाया जाता है। इन जेलों में अनेक मुस्लिम महिलाएं भी बंद हैं, जिनके साथ अनेकों बार बलात्कार हुए हैं।
यह क्षेत्र चीन के लिए महत्वपूर्ण है। पुराने सिल्क रूट का हिस्सा रहा यह शिनजियांग प्रांत, चीन के वर्तमान ‘बेल्ट एंड रोड’ परियोजना का प्रमुख अंग है। इसलिए चीन इसे पूर्णतः अपने कब्जे में रखना चाहता है।
चाहे शिनजियांग हो, या तिब्बत हो या हाँगकाँग… चीन ने क्रूरता की सारी सीमाएं लांघी हैं। अत्यंत बर्बरता से उईगर मुसलमानों को और तिब्बत के बौद्ध भिक्षुओं को कुचला है, मारा है।
किंतु दुर्भाग्य इस देश का, उसी चीन को अपना आदर्श मानने वाली दसियों वामपंथी संस्थाएं आज भी चीन की क्रूरतम तानाशाही के विरोध में एक शब्द भी नहीं निकालतीं। वे अरुंधति रॉय, बस्तर के माओवादी नक्सलियों से मिलने जाती हैं, और चीन को मानवता का सर्टिफिकेट दे कर भारतीय सेना और पुलिस को कोसती हैं।
भारत का मुसलमान, पेरिस में या डेन्मार्क में कुछ हो गया तो बड़े बड़े मोर्चे निकालता है। लेकिन चीन द्वारा, मुस्लिमों पर दशकों से हो रहे अनन्वित अत्याचार के खिलाफ चुप रहता है। बिलकुल मौन…!
आज विश्व मानव अधिकार दिवस है। आज इन सभी वामपंथी दोगलों का असली चेहरा लोगों के सामने लाने की आवश्यकता है..!