विश्व के लिए चुनौती बनता मानसिक अवसाद

विश्व के लिए चुनौती बनता मानसिक अवसाद

सीमा अग्रवाल

विश्व के लिए चुनौती बनता मानसिक अवसादविश्व के लिए चुनौती बनता मानसिक अवसाद
 

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व में चार में से तीन लोग मानसिक अवसाद से पीड़ित हैं। मानसिक विकार केवल अमीर देशों तक सीमित नहीं रहे, यह समस्या तेजी से विकासशील देशों को भी अपनी चपेट में ले रही है। आज जब  भी स्वास्थ्य समस्याओं की चर्चा होती है तो समाज मानसिक स्वास्थ्य पर बात करने से हिचकता है। लोग मानसिक सेहत पर कुछ भी कहना, सुनना नहीं चाहते। यही कारण है कि न सिर्फ भारत बल्कि विश्व के अनेक विकसित देशों में मनोविकार एक महामारी का रूप ले चुका है। इसमें अमेरिका, रुस, चाइना जैसे बड़े देश भी शामिल हैं। आज अच्छी सेहत वाला व्यक्ति वह है, जो सामाजिक, मानसिक और शारीरिक तीनों रूप में खुश है, सामान्य तनावों का सामना करने में सक्षम है और उत्पादक तरीके से काम कर रहा है। व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य का संबंध उस के भावनात्मक पहलू से होता है, जो उसके सोचने, समझने और कार्य करने की शक्ति को प्रभावित करता है।

यूं तो मानसिक विकार कई तरह के होते हैं। जैसे डिमेंशिया, तनाव, चिंता, भूलना, अवसाद आदि। लेकिन इन सभी में अवसाद ऐसा मनोविकार है, जिससे पूरी दुनिया त्रस्त है। हर आयु, वर्ग का व्यक्ति आज मानसिक अवसाद के दौर से गुजर रहा है। इस अवसाद के अनेक कारण सामने आ रहे हैं। डब्लूएचओ के अनुसार पिछले एक दशक में तनाव और अवसाद के मामलों में 18 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। भारत की लगभग 6.5 प्रतिशत से 7.5 प्रतिशत जनसंख्या मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रही है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भी मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे के प्रति न्यायपालिका को संवेदनशील होने पर जोर देते हुए कहा कि किसी व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य को वन साइज फिट फॉर ऑल के दृष्टिकोण से नहीं देखा जाना चाहिए। अच्छी मेंटल हेल्थ हर व्यक्ति का मानवाधिकार है। जिससे उसे वंचित नहीं किया जा सकता।

उल्लेखनीय है कि मानसिक तनाव आनुवांशिक, सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक किसी भी कारण से हो सकता है। इस अवस्था से किसी व्यक्ति को बाहर निकालना आज के समय में सबसे बड़ी चुनौती है।

देखा गया है कि कई बार प्रारंभिक जीवन के बुरे अनुभव, हादसे और घटनाएं मन को इतना प्रभावित करती हैं कि उनका असर व्यक्ति के मन पर हुए बिना नहीं रह पाता, कई बार वह मनोविकारों का शिकार हो जाता है, जो उसके मन और स्वास्थ्य दोनों को खराब करता है।

आज मानसिक अवसाद का बड़ा कारण महत्वाकांक्षाएं, भौतिकता और पूंजीवाद है। हर कोई एक दूसरे की नकल करने में लगा है। इंसान भूल जाता है कि प्रत्येक में अपने नैसर्गिक गुण हैं, हर काम हर किसी के लिए नहीं बना। कोटा में छात्रों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याएं इसका बड़ा उदाहरण हैं। फिर एकल परिवार में पले बढ़े बच्चे, जिन्हें हर चीज सहज उपलब्ध है, जीवन के संघर्ष को भी समझ नहीं पाते, उन्हें सबसे आसान तरीका जीवन को समाप्त कर लेना ही लगता है। 

डब्लूएचओ ने 2013 में मानसिक स्वास्थ्य को शारीरिक स्वास्थ्य के बराबर महत्व देते हुए वर्ल्ड हेल्थ एसेंबली में एक व्यापक मानसिक स्वास्थ्य कार्य योजना को स्वीकृति दी थी, जो 2013-2020 तक के लिए थी। इस कार्य योजना में सभी देशों ने मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने पर सहमति जतायी थी। भारत ने भी इस कार्ययोजना को अपने यहां लागू किया था। लेकिन आज भी भारत में मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति भयावह है।

यहॉं आज भी मानसिक स्वास्थ्य पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता। इस पर किया जाने वाला व्यय भी बहुत कम है। भारत अपने कुल सरकारी स्वास्थ्य व्यय का मात्र 1.3 प्रतिशत ही मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च करता है। 2011 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 1.5 मिलियन से अधिक लोग मनोविकारों से जूझ रहे हैं। यह संख्या पिछले दस वर्षों में लगभग दोगुनी हो गई है। विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत में मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की कमी भी एक महत्वपूर्ण कारण है।

डब्लूएचओ के अनुसार वर्ष 2011 में भारत में मनोविकारों से पीड़ित प्रत्येक एक लाख रोगियों के लिए 0.301 मनोचिकित्सक और 0.07 मनोवैज्ञानिक थे। यह हालत पिछले दस वर्षों में बहुत बेहतर नहीं हुई है। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2017 में भारत की विशाल जनसंख्या के लिए मात्र 5 हजार मनोचिकित्सक और 2 हजार से भी कम मनोवैज्ञानिक थे, जबकि प्रति 10 हजार पर कम से कम 5 मनोचिकित्सक होने चाहिए। देखा गया है कि महिलाएं मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से पुरुषों की अपेक्षा अधिक संवेदनशील होती हैं। लेकिन समाज में इस तथ्य की अनदेखी महिलाओं को मानसिक रोगी बना रही है। यह स्थिति एक दिन में पैदा नहीं होती। समस्याओं से जूझ रहे व्यक्ति की मानसिकता को समझ कर यदि परिवार उसका साथ दे, तो काफी कुछ ठीक हो सकता है।

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