मिर्ज़ापुर : सीजन 2 (वेब सीरीज समीक्षा)
सनातन जीवन पद्दति के मूल्यों को जितना धूसरित किया जा सकता है, उतना ही अधिक वेबसीरीज मिर्ज़ापुर करती है। इसका दूसरा सीजन आया है। यहाँ सभी निर्दयी, क्रूर और लम्पट त्रिपाठी, शुक्ला, पंडित, त्यागी और यादव हैं। लाला, मिर्ज़ा, बाबर और मकबूल निष्ठावान हैं। शक्ति, धन और स्त्री लालसा को केंद्र में रखा गया है। हिन्दू चरित्र पूजापाठ करते हैं और साथ में हिंसा व व्यभिचारिता भी, जो आजकल फिल्मों में विमर्श का एक रवैया बन चुका है। हिन्दू परिवारों में रिश्तों की कोई गरिमा नहीं बची है, ऐसा दिखाया गया है। जबकि मकबूल अपनी माता के प्रति अत्यंत समर्पणशील है।
अधिकांश दृश्य हिंसा और हवस से परिपूर्ण हैं। यहाँ कोई कर्म का सिद्धांत नहीं है। घोर लिप्सा और शक्ति लालसा हेतु हिंसा की जाती है। अखण्डानंद, गुड्डू, शरद या मुन्ना कोई धर्मयुद्ध नहीं लड़ रहे। शक्ति और अनाधिकार हेतु शाह-मात का खेल चलता है। हिन्दू समाज को सामंतवादी ढांचे में प्रस्तुत किया गया है। आजकल फ़िल्म निर्देशकों का उद्देश्य सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म, उचित-अनुचित के भेद को समाप्त करना भी है। यह पाश्चात्य उत्तर-आधुनिक शैली पारंपरिक भारतीय मूल्यों के विरुद्ध रही है और दशकों से संस्कृति को प्रभावित कर रही है। जुड़वां भाई भरत और शत्रुघ्न त्यागी केवल नाम भर नहीं हैं। यहाँ नौकरानी राधा (रधिया) है, जो घर में ही बाहुबलियों द्वारा शोषित है। यह भी धर्म पर चोट करने का प्रयास है। गालियों की तो जैसे कोई प्रतियोगिता खड़ी कर दी गयी हो, ऐसा प्रतीत होता है।
मुन्ना हिंदी फिल्म के हीरो की तरह अमर है, ऐसा वह दावा करता है। वकील साहब रमाकांत पंडित परंपरावादी हैं। अपने पुत्र के अपराधों को वे पचा नहीं पाते और उसके आत्मसमर्पण की योजना बनाते हैं, पर इस बीच वे स्वयं ही हत्यारे बना दिये जाते हैं।
निस्संदेह, सिनेमा का उद्देश्य यथार्थ प्रस्तुत करना है, परन्तु जुगुप्सापूर्ण हिंसा के दृश्य कौनसे सिनेमा की रचनाधर्मिता है? ग्रीवाछेदन के दृश्य दर्शक पर क्या प्रभाव डालते हैं? जिस तरह अश्लीलता के कुछ मापदंड हैं, क्या हिंसा के दृश्यों का कोई मापदंड नहीं होना चाहिए? उत्तर-आधुनिकता का अर्थ अपनी जड़ों से कट जाना है, तो ऐसी कलात्मक शैली या विधि का क्या अर्थ है?
डॉ. अरुण सिंह
Very appropriate analysis Sir.