मीडिया संस्थान की आड़ में अवैध धंधों की फुलवारी

मीडिया संस्थान की आड़ में अवैध धंधों की फुलवारी: तेजाब डाला तो बिलबिलाये
मीडिया संस्थान पर आयकर छापा

विवेक भटनागर

मीडिया संस्थान की आड़ में अवैध धंधों की फुलवारी: तेजाब डाला तो बिलबिलाये

गैर-सरकारी संगठनों (NGO) के माध्यम से अपने धन को ऊंचा-नीचा करने वाले मीडिया संस्थान अपनी व्यवस्था को बेहतर करें और इमानदारी अपनाएं। सच सबको पता है।  इस मुद्दे पर हो रही राजनैतिक बयानबाजी पर जनता अब हंसने लगी है।
समाचार पत्र कहें या सूचना तंत्र का स्वरूप ले चुका मीडिया़ अपने विरुद्ध हर संवैधानिक नियम को बौना मानता है। उसके खिलाफ कोई भी कार्रवाई या कार्यवाही हो उसे वह लोकतंत्र पर हमले के रूप में पेश करने का प्रयास करता है। पत्रकार लोकतंत्र का वाहक है या संस्थान, इस पर जोरदार बहस होनी चाहिए। पत्रकार तो सूचना और सूचना अनुसंधान कर राजनीति, अपराध और समाज में किसी भी समस्या या विषयान्तर को प्रगट करने का साधन (टूल) होता है। समाचार पत्र और मीडिया चैनल उसके माध्यम होते हैं। लेकिन जो संस्थान इन्हें संचालित करता है, वह तो एक कम्पनी है। इसलिए संवैधानिक रूप से वह कम्पनी जो भी है, उस पर कार्यवाही और कार्रवाई दोनों का अधिकार सरकार को है। इसे समाचार पत्रों या मीडिया का मुंह बंद करना जैसे विषय से नहीं जोड़ा जा सकता है।
कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने इसे पीएम मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की ओर से पत्रकारिता पर प्रहार करार दिया है, जबकि दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल ने दैनिक भास्कर पर आयकर के छापे को मीडिया को डराने की कोशिश बताया है। अब इस पर सवाल है कि क्या भास्कर समूह या डीबी ग्रुप सिर्फ मीडिया का ही धंधा करता है। अगर नहीं तो उसके व्यवसाय क्या-क्या हैं, यह भी स्पष्ट किया जाना चाहिए। इसे भारत सरकार की सच को सहन करने की क्षमता से नहीं जोड़ना चाहिए।
यहां सत्य पर ही चर्चा हो तो बेहतर होगा। जब मीडिया समूह पत्रकारों का शोषण करते हैं, तब उन पर तो संसद ठप नहीं होती। नेता कभी पत्रकारों को नहीं उनके संस्थानों को तवज्जो क्यों देते हैं? भारत में विशिष्ट  किस्म के पत्रकारों को ही अधिक प्रमुखता क्यूँ  प्राप्त है? कुछ भी विषय हो, जाने-अनजाने अपने विचार पेलने की परम्परा भी यहां बन चुकी है। मीडिया के बारे में बिना जाने ही राजनेता मीडिया घरानों के खिलाफ छोटी सी कार्रवाई पर भी लामबंद हो जाते हैं। अपने पिता के नाम किसी प्रदेश की राजधानी में वन क्षेत्र पर कब्जा हो या गैर कानूनी ढंग से भवनों पर कब्जा हो, मीडिया समूह के लिए सामान्य प्रकल्प हैं। इसे संस्कार कहें या कुछ और उन्हें तो अन्याय की वैली में डूबना ही है। चावल हो या गत्ता, गेहूं हो या तेल, सत्ता हो या उसकी चाबी सब मीडिया संस्थानों को ही चाहिए।
नीरा राडिया जैसी संस्थाएं सत्ता के गलियारों से निकल कर व्यवसाय के बाजारों में बिकती हैं। विरोध के लिए विरोध करना अगर धर्म बन जाए तो फिर आप सत्य कैसे प्रगट कर सकते हैं। आपको नुकसान दें तो उस नेता का नाम न बोलेंगे न छापेंगे कि नीति को अपनाने वाले मीडिया हाउस व्यवसायिक हैं, यह जनता की नहीं बाजार की आवाज है। ऐसे में व्यापारी के खिलाफ कर चोरी के मामले को लोकतंत्र से जोड़ने वाले नेताओं के निहित स्वार्थों को हमें समझना चाहिए। इनके व्यावसायिक हितों के सधते ही नेता और मीडिया पुनः एक दूसरे की गोद में जा बैठेंगे, फिर लोकतंत्र का क्या होगा? लोक का चारा बनाकर नेता उसे चरेगा और तंत्र की पुड़ियां बना कर उसे मीडिया काम में लेगा।
संसद में हंगामा और कोरोना के सच को दैनिक भास्कर और भारत समाचार ग्रुप पर रेड को लोकतंत्र पर हमला बताने का प्रयास शायद भस्मासुर बन चुके इन मीडिया हाउस को फिर से वरदान देकर बली बनाने का प्रयास है। विपक्ष विरोध करे ठीक है, लेकिन विषय का चयन तो ठीक हो। भास्कर के भोपाल, जयपुर, अहमदाबाद, नोएडा और कुछ दूसरे ठिकानों पर रेड हुई है। वहीं यूपी के न्यूज चैनल भारत समाचार के प्रमोटर और कर्मचारियों के लखनऊ स्थित ठिकानों पर छापे मारे गए हैं।
इन छापों पर इनकम टैक्स डिपार्टमेंट या सीबीडीटी की ओर से कोई बयान नहीं आया है। सूत्रों के अनुसार आयकर विभाग के अधिकारियों ने भोपाल में दैनिक भास्कर के दफ्तरों और प्रमोटरों के घरों पर भी छापे मारे। अधिकारी सीआरपीएफ और मध्य प्रदेश की पुलिस की सुरक्षा में छापे की कार्रवाई करते देखे गए। दैनिक भास्कर ने बाद में एक मैसेज पोस्ट कर कहा कि इसके दिल्ली, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान स्थित दफ्तरों पर आयकर कीे रेड डाली गई है।  और ट्वीट कर कहा कि सरकार सच्ची पत्रकारिता से डर गई है, उसने अपने ट्वीट में लिखा- “सच्ची पत्रकारिता से डरी सरकार, गंगा में लाशों से लेकर कोरोना से मौतों के सही आंकड़े देश के सामने रखने वाले भास्कर ग्रुप पर सरकार की दबिश।” यह भास्कर का अधिकार है कि वह खुद का बचाव भी करे और इसके लिए सोशल मीडिया मंच का प्रयोग भी करे, लेकिन सभी मीडिया हाउस, समाचार पत्रों और इलैक्ट्राॅनिक चैनलों को सरकारी तोते की तरह प्रचारित करने वाले पत्रकार और नेता अचानक से गोदी मीडिया के पक्ष में उतर आए और उनकी बेइमानी की जांच करने के विरुद्ध बोलने लगे।
अगर इन मीडिया हाउस ने कुछ गलत नहीं किया है तो उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा और गलत किया है तो जनता के सामने होगा। अभी यह शुरूआत है। दूसरे मीडिया हाउस भी अपने हिसाब-किताब ठीक कर लें, नहीं तो मोहल्ले की आग की जद से उनका घर भी दूर नहीं। सरकार के विरोध के मुकाबले खुद को सही करने से सही होगा। राजनीतिक दल अपनी राजनीति को सही करें और मीडिया हाउस खुद की व्यावसायिक प्रतिबद्धता को। बयानबाजी से कुछ रुकेगा, ऐसा तो लगता नहीं है। गैर-सरकारी संगठनों के माध्यम से अपने धन को ऊंचा-नीचा करने वाले मीडिया संस्थान अपनी व्यवस्था को बेहतर करें और इमानदारी अपनाएं। जनता सच जानती है और इस प्रकार की बयानबाजी पर जनता अब हंसने लगी है। सनद रहे कि आप स्वयं को आइने के सामने खड़ा कर जोकर का रोगन कर रहे हैं, आने वाले समय में खुद को खुद पर हंसना पड़ सकता है।
कांग्रेस के सीनियर नेता दिग्विजय सिंह ने ट्वीट किया और मोदी शाह की ओर से इसे पत्रकारिता पर प्रहार करार दिया। उन्हें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि राजीव गांधी और एक मीडिया हाउस के बीच विवाद ने क्या पत्रकारिता पर प्रहार नहीं किया था। पत्रकारिता वो तलवार की धार है जो एक ओर से दूसरे को काटती है और दूसरी ओर से चलाने वाले को। जिस दिन मी टू के माध्यम से प्रसिद्ध पत्रकार एमजे अकबर को मुख्यधारा से बाहर किया गया था तब तो किसी को पत्रकारिता पर प्रहार याद नहीं आया। तहलका डाॅट काॅम के तरुण तेजपाल को भी अपराधी स्वीकार कर ही लिया गया। लेकिन मीडिया संस्थान तो आखिर उनके प्रचार-प्रसार की मां है, उस पर हमला कैसे झेलेंगे ये नेता।
जयराम रमेश ने ट्वीट किया- “दैनिक भास्कर ने अपनी रिपोर्टिंग के जरिए मोदी सरकार की ओर से कोरोना के कुप्रबंधन का खुलासा किया था। अब उसे इसकी कीमत चुकानी पड़ रही है। यह अघोषित आपातकाल है।” जैसा अरुण शौरी कहते हैं कि यह मोडीफाइड इमरजेंसी है। शौरी जी ने जब डिसइनवेस्टमेंट के माध्यम से बड़े व्यवासायिक संस्थानों का निजीकरण सस्ते दामों में किया, तब यह बयान कहीं खो गया लगता था। राजस्थान के मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता अशोक गहलोत ने कहा कि दैनिक भास्कर और भारत समाचार पर इनकम टैक्स रेड मीडिया की आवाज दबाने की खुल्लम-खुल्ला कार्रवाई है। जब सचिन पायलट के मामले में मीडिया उनकी बखिया उधेड़ रहा था, तब वो उसे गरियाने से  नहीं चूके ऐसा क्यूं? पक्ष हमेशा निरपेक्ष हो आवश्यक नहीं। आप राजनीति करते हैं, करें। आपको जनता ने अपने कल्याण की राजनीति के लिए चुना है, वह करें। बाकी रही छापेमारी की बात, तो भास्कर और भारत समाचार ग्रुप खुद का बचाव करने में सक्षम हैं और उन्हें करना भी चाहिए।
आम आदमी जंगल की एक इंच जमीन पर भी कब्जा नहीं कर सकता और भोपाल में दिग्विजय सरकार ने टाइगर रिजर्व फॉरेस्ट में दैनिक भास्कर समूह को सैकडों एकड़ जमीन संस्कार वैली स्कूल के लिए आवंटित की थी। इसी प्रकार एमपी हाउसिंग बोर्ड की जमीन पर डीबी माॅल के लिए जमीन का आवंटन कैसे होता है, इससे कोई नावाकिफ हो ऐसा नहीं है। यह किसी एक मीडिया हाउस का मामला नहीं है। देश के अलग-अलग हिस्सों में भी प्रभावी मीडिया घरानों ने यही सब कुछ किया। इनाडू मीडिया को रामोजी फिल्म सिटी के लिए हजारों एकड़ जमीन का आवंटन तत्कालीन आंध्र प्रदेश सरकार ने किस खाते से किया, समझ में नहीं आता? मीडिया हाउस के व्यभिचार सामने आने लगें तो देश का आम-आदमी अपनी सोच पर ही सवाल उठाने लगेगा।
मध्य प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार विपुल विजय रेगे कहते हैं कि ‘इस दिन की प्रतीक्षा तो मध्यप्रदेश के सैकड़ों पत्रकार कर रहे थे। वे पत्रकार, जिनको दैनिक भास्कर ने भ्रूण में ही मार डाला था। दैनिक भास्कर के पत्रकार और संपादक देख सकते हैं कि श्राप का प्रभाव कैसा होता है। मैंने इस दिन का संकेत दो वर्ष पूर्व ही दे दिया था। नोटबंदी से चकनाचूर होने के बाद धूर्त ने आयकर चोरी शुरू कर दी थी। इस प्रकार के आक्षेप जो पूर्णतया निष्पक्ष हैं पर भी ध्यान देना चाहिए।’
कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने ट्वीट कर कहा है कि भास्कर के साथ-साथ अब भारत समाचार चैनल के मुख्य एडिटर व वरिष्ठ पत्रकार, ब्रजेश मिश्रा के घर पर भी इनकम टैक्स रेड हो रही है। जब सरकार कलम और कैमरा से इतनी डर जाए तो ऐसी सरकार का पतन निश्चित है। आखिर कलम और कैमरा कांग्रेस के लिए लोकतंत्र के मानक कब से हो गए? पत्रकारों को विदेश ले जाकर उन्हें घुमाकर और कुछ दैवीय सुरा का रस दिलाकर, उन्हें संतुष्ट रखने की कला में माहिर कांग्रेस ने सत्ता के गलियारों में पत्रकारों की धाक ऐसी जमाई कि इनके एक नेता तो बुढ़ापे में जवान महिला पत्रकार से ही विवाह कर बैठे। एक समय में मंत्रालय से मंत्रियों की रसोई तक पहुंच रखने वाले पत्रकारों की पकड़ आज जब सत्ता की पहुंच से बाहर हो रही है तो उन्हें तकलीफ हो रही है।
टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी ट्वीट कर कहती हैं कि पत्रकारों और मीडिया घरानों पर हमला लोकतंत्र को कुचलने का एक और क्रूर प्रयास है। दैनिक भास्कर ने बहादुरी से बताया कि किस तरह से नरेंद्र मोदी जी ने पूरे कोविड संकट को गलत तरीके से संभाला और एक भयंकर महामारी के बीच देश को उसके सबसे भयावह दिनों में ले गए। मैं इस प्रतिशोधी कृत्य की कड़ी निंदा करती हूं, जिसका उद्देश्य सत्य को सामने लाने वाली आवाजों को दबाना है। आखिर बंगाल में कोविड की स्थिति और हिन्दुओं की चुनावी हिंसा के बहाने मुसलमानों द्वारा की गई हत्याओं को वह विश्लेषित क्यों नहीं करने देतीं? बंगाल में मीडिया को गूंगी गुड़िया क्यों बना कर रखा गया है? सन्मार्ग के मालिक को तृणमूल विधानसभा का टिकट देती है, इसमें कौन सा राजनीतिक स्वार्थ है?
शायद हम भूल चुके हैं कि अपराध कैसा भी हो और किसी के भी द्वारा किया गया हो, वह राजनीतिक नहीं हो सकता। राजनीति उसका परोक्ष उत्पाद हो सकती है, प्रत्यक्ष तो कभी-कभी नजर आती है। आज भी भास्कर या भारत चैनल दोनों ही प्रत्यक्ष स्वार्थ में फंस कर खुद को निर्मल बताने का प्रयास कर रहे हैं और इसमें विपक्ष की सहायता ले रहे हैं। राजनीति करनी है तो मीडिया के आंचल में छुप कर नहीं सीधे करें। सरकार को कोसना है तो अपने मीडिया का उपयोग करें। जो सरकार के विरोध में होंगे, आपका साथ देंगे और जो सरकार के पक्ष में होंगे आप पर आक्षेप लगाएंगे। सत्य इन दोनों के बीच झूल कर हवा हो जाएगा। जनता मूर्ख बनी रहेगी और सत्ता की चाबी किसको मिलेगी, इन परिस्थितियों में जनता किससे प्रभावित होगी यह देखने योग्य होगा।
2022 के चुनाव की तैयारियों में केन्द्र सरकार का प्रत्येक कदम इसी प्रकार विपक्ष की झूठी-सच्ची कसौटी पर कसा जाएगा। विपक्ष तय करेगा की सरकार की नकेल कस कर  उत्तर प्रदेश में कैसे पुन: अपने पैर जमाएं। वहीं सरकार तय करेगी कि वह जो भी कर रही है, विपक्ष उसे बैक फायर नहीं कर पाए। कुल मिलाकर ढाक के तीन पात। चुनाव, चुनाव और चुनाव। आज यहीं तक। आगे फिर कभी, क्योंकि मीडिया घराने आगे भी सरकार की नजर में रहेंगे। उनको अब सम्भल कर चलना होगा अन्यथा हर बार विपक्ष भी इनके साथ खड़ा नहीं होगा और जनता को आन्दोलित करने की ताकत अब मीडिया में नहीं बची, क्योंकि इसे अब क्रांति का माध्यम नहीं माना जाता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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