मुंबई का नौसेना आंदोलन, जिसने ब्रिटिश शासन की चूलें हिला दी थीं

मुंबई का नौसेना आंदोलन, जिसने ब्रिटिश राज की चूलें हिला दी थीं

अंग्रेज़ भारत से क्यों भागे -1

प्रशांत पोळ

मुंबई का नौसेना आंदोलन, जिसने ब्रिटिश राज की चूलें हिला दी थीं

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की परिस्थिति सभी के लिए कठिन थी। ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल भारत को स्वतंत्रता देने के पक्ष में नहीं थे। वे युवावस्था में भारत में रह चुके थे। ब्रिटिश आर्मी में सेकेंड लेफ्टिनेंट के नाते वे मुंबई, बेंगलुरु, कलकत्ता, हैदराबाद आदि स्थानों पर तैनात थे। नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रॉविंस में उन्होंने अफगान पठानों के विरोध में युद्ध भी लड़ा था। 1896 और 1897 ये दो वर्ष उन्होंने भारत में गुजारे। भारत की समृद्धि, यहां के राजे – रजवाड़े, यहां के लोगों का स्वभाव… यह सब उन्होंने देखा था। यह देखकर उन्हें लगता था कि अंग्रेज भारत पर राज करने के लिये ही पैदा हुए हैं। इसलिये द्वितीय विश्वयुद्ध के समय विंस्टन चर्चिल की ओर से सर स्टेफोर्ड किप्स को भारतीयों का सहयोग प्राप्त करने के लिए भारत भेजा गया। इस क्रिप्स मिशन ने भारतीय नेताओं को यह आश्वासन दिया गया की युद्ध समाप्त होते ही भारत को सीमित स्वतंत्रता दी जाएगी।

इस आश्वासन को देने के बाद भी चर्चिल, भारत से अंग्रेजी सत्ता को निकालना नहीं चाहते थे। किंतु 26 जुलाई 1945 में, ब्रिटेन में आम चुनाव हुए और इस चुनाव में चर्चिल की पार्टी परास्त हुई। क्लेमेंट एटली के नेतृत्व में लेबर पार्टी चुनाव जीत गई।

लेबर पार्टी ने भी चुनाव जीतने के पश्चात भारत को स्वतंत्रता देने की घोषणा नहीं की। किंतु 26 जुलाई 1945 और 18 जुलाई 1947 (जब स्वतंत्र भारत के बिल को ब्रिटेन की संसद ने और राजघराने ने स्वीकृति दी), इन दो वर्षों में तीन बड़ी घटनाएँ घटीं, जिनके कारण अंग्रेजों को यह निर्णय लेने के लिये बाध्य होना पडा।

इनमें से पहली घटना थी, 1946 के प्रारंभ में ‘शाही वायुसेना’ में ‘विद्रोह’।

जनवरी 1946 में, ‘रॉयल एयर फोर्स’, जो आरएएफ के नाम से जानी जाती थी, के जवानों ने असंतोष के चलते जो आंदोलन छेड़ा, उसमे वायुसेना के 60 अड्डों (एयर स्टेशन्स) में स्थित 50000 लोग शामिल थे।

इस आंदोलन की शुरुआत हुई ब्रह्मरौली, प्रयागराज से। आंदोलन (हड़ताल) के इस समाचार के मिलते ही, कराची के मौरिपुर एयर स्टेशन के 2100 वायुसैनिक और कलकत्ता के डमडम एयर स्टेशन के 1200 जवान इस आंदोलन के साथ जुड़ गए। इसके बाद यह आंदोलन वायुसेना के अन्य अड्डों पर, अर्थात कानपुर, पालम (दिल्ली), विशाखापटनम, पुणे, लाहौर आदि स्थानों पर फैलता गया। कुछ स्थानों पर यह आंदोलन कुछ घंटों में समाप्त हुआ, तो प्रयागराज, कोलकाता आदि स्थानों पर इसे समाप्त होने में चार दिन लगे।

दूसरी घटना थी फरवरी 1946 का ‘नौसेना विद्रोह..!’

घटना के पहले अनेक दिनों से, भारतीय नौसेना में बेचैनी थी। इसके अनेक कारण थे। विश्वयुद्ध समाप्त हुआ था। ब्रिटेन की हालत बहुत खराब हो गई थी। आर्थिक व्यवस्था चरमरा गई थी। इस कारण अपनी नौकरी रहेगी या नहीं यह शंका नौसेनिकों के मन में आना स्वाभाविक था। अधिकारियों तक यह बात पँहुची भी थी। किंतु ब्रिटिश नौसेना से या ब्रिटिश सरकार से, इस बारे में स्पष्ट दिशा निर्देश नहीं दिये गए थे।और न ही कोई टिप्पणी की गई थी। नौसैनिकों के वेतन में असमानता, सुविधाओं का अभाव ये कारण भी थे। लेकिन इससे भी बड़ा कारण था, आजाद हिन्द सेना के अधिकारियों पर दिल्ली के लाल किले में चल रहा कोर्ट मार्शल। इससे पहले भी ब्रिटिश सेना ने कलकत्ता में आजाद हिन्द सेना के अधिकारियों को मृत्युदंड दिया था। भारतीय सैनिकों की सहानुभूति आजाद हिन्द सेना के सेनानियों के साथ थी।

इस सभी बातों का विस्फोट हुआ 18 फरवरी 1946 को, मुंबई की ‘गोदी’ में, जब किनारे पर खड़ी एचएमआईएस (हिज मॅजेस्टिज इंडियन शिप) ‘तलवार’ के नौसैनिकों ने निकृष्ट दर्जे के भोजन और नस्लीय भेदभाव के विरोध में आंदोलन छेड़ दिया। उस समय नौसेना के 22 जहाज मुंबई बंदरगाह पर खड़े थे। उन सभी जहाजों को यह संदेश गया और उन सभी जहाजों पर आंदोलन का शंखनाद हुआ। ब्रिटिश अधिकारियों को उनके बैरकों में बंद कर दिया गया और नेताजी सुभाषचंद्र बोस का बड़ा सा चित्र लेकर, हजारों की संख्या में इन नौसैनिकों ने एक ‘केंद्रीय नौसेना आंदोलन समिति’ बनाई और इस आंदोलन की आग फैलने लगी।

वरिष्ठ पेटी ऑफिसर मदन सिंह और वरिष्ठ सिग्नल मॅन एम एस खान, सर्वानुमती से इस आंदोलन के नेता चुने गए। दूसरे दिन 19 फरवरी को इन नौसैनिकों के समर्थन में मुंबई बंद रही। कराची और मद्रास के नौसैनिकों ने भी आंदोलन में शामिल होने की घोषणा की। ‘केंद्रीय नौसेना आंदोलन समिति’ के द्वारा एक मांगपत्र जारी किया गया, जिसमें प्रमुख मांगें थीं :

  1. इंडियन नॅशनल आर्मी (INA) और अन्य राजनैतिक बंदियों को रिहा किया जाए
  2. इंडोनेशिया से भारतीय सैनिकों को हटाया जाए
  3. अफसरों के पद पर केवल भारतीय अधिकारी ही रहें अंग्रेज नहीं

नौसैनिकों का यह आंदोलन सारे ब्रिटिश आस्थापनाओं में, जहां जहां भारतीय सैनिक तैनात थे, वहां फैलने लगा। एडन और बहारीन के भारतीय नौसैनिकों ने भी आंदोलन की घोषणा की। एचएमआईएस तलवार पर उपलब्ध दूरसंचार उपकरणों की सहायता से आंदोलन का यह संदेश सभी नौसैनिक अड्डों पर और जहाजों पर पँहुचाया जा रहा था।

एचएमआईएस तलवार के कमांडर एफएमकिंग ने, इन आंदोलन करने वाले सैनिकों को ‘सन्स ऑफ कुलीज एंड बिचेस’ कहा, जिसने इन आंदोलन की आग में घी डाला। लगभग बीस हजार नौसैनिक कराची, मद्रास, कलकत्ता, मंडपम, विशाखापट्टनम, अंदमान – निकोबार आदि स्थानों से शामिल हुए।

आंदोलन प्रारंभ होने के दूसरे ही दिन, अर्थात १९ फरवरी को कराची में भी आंदोलन की ज्वालाएं धधक उठीं। कराची बंदरगाह में, मनोरा द्वीप पर ‘एचएमआईएस हिंदुस्तान’ खड़ी थी। आंदोलनकारियों ने उस पर कब्जा कर लिया। बाद में पास में खड़ी ‘एचएमआईएस बहादुर’ इस जलपोत को भी अपने अधिकार में ले लिया। इन जहाजों से अंग्रेज़ अधिकारियों को उतारने के बाद, ये नौसैनिक मनोरा की सड़कों पर अंग्रेजों के विरोध में नारे लगाते हुए घूमने लगे। मनोरा के स्थानिक रहवासी भी बड़ी संख्या में इस जुलूस में शामिल हो गए।

वहाँ के स्थानिक आर्मी कमांडर ने, बलूच सैनिकों की एक प्लाटून, इस तथाकथित ‘विद्रोह’ को कुचलने के लिए मैदान में उतारी। परंतु बलूच सैनिकों ने गोली चलाने से इंकार किया। बाद में अंग्रेजों के विश्वासपात्र, गोरखा सैनिकों को इन आंदोलनकारी सैनिकों के सामने लाया गया। लेकिन गोरखा सैनिकों ने भी गोली चलाने से मना किया।

अंततः संपूर्ण ब्रिटिश सैनिकों की प्लाटून को लाकर, इन आंदोलनकारियों को घेरा गया। ब्रिटिश सैनिकों ने इन आंदोलनकारी सैनिकों पर निर्ममता पूर्वक गोली चलाई। जवाब में नौसैनिकों ने भी गोलीबारी की। लगभग चार घंटे यह युद्ध चलता रहा। छह सैनिकों की मृत्यु हुई और तीस घायल हुए। यह समाचार कराची शहर में हवा की गति से फैला। तुरंत श्रमिक संगठनों ने ‘बंद’ की घोषणा की। कराची शहर ठप्प हो गया। शहर के ईदगाह में 35000 से ज्यादा लोग इकठ्ठा हुए और अंग्रेजों के विरोध में घोषणाएँ देने लगे।

इससे पहले भी, 1945 में कलकत्ता में नौसेना के सैनिकों में असंतोष पनपा था, जिसका कारण था, नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथ जाने वाले सैनिकों पर किया गया कोर्ट मार्शल। मुंबई के आंदोलन से कुछ पहले, कलकत्ता में ही रशीद अली को मृत्युदंड देने के कारण नौसैनिकों में बेचैनी थी, जो मुंबई आंदोलन के माध्यम से बाहर निकली।

इन सैनिकों को ‘रेटिंग्स’ (Ratings) कहा जाता था।आंदोलन के दूसरे और तीसरे दिन ये सैनिक पूरी मुंबई में लॉरियों में भरकर घूम रहे थे। रास्ते में जो भी अंग्रेज दिखा, उसे पकड़ने का भी प्रयास हुआ। 19 और 20 फरवरी को मुंबई, कलकत्ता और कराची पूरी तरह से ठप हुए थे। सब कुछ बंद था। पूरे देश में, अनेक शहरों में छात्रों ने इन नौसैनिकों के समर्थन में कक्षाओं का बहिष्कार किया।

किनारों पर खड़े कुल 78 जहाज, नौसेना के 20 बड़े तल (नौसैनिक अड्डे) और लगभग 20 हजार नौसैनिक इस आंदोलन में शामिल थे।

22 फरवरी को मुंबई में यह आंदोलन चरम सीमा तक पँहुचे।मुंबई का कामगार वर्ग, इन नौसैनिकों के समर्थन में आगे आया। पुन: मुंबई बंद हुई। सारे दैनिक व्यवहार ठप्प हुए। लोकल्स को आग लगाई गई।

जब ब्रिटिश सेना ने, वायुसेना को मुंबई भेजना चाहा, तो अनेक सैनिकों ने मना कर दिया। फिर आर्मी की एक बटालियन को मुंबई में उतारा गया। तीन दिन तक आंदोलन की यह आग फैलती रही। अंग्रेजी शासन ने इन आंदोलनकारी नौसैनिकों से वार्तालाप करने के लिये वल्लभभाई पटेल और जिन्ना से अनुरोध किया। इन दोनों के आश्वासन पर 23 फरवरी 1946 को, आंदोलन करने वाले नौसैनिकों ने आत्मसमर्पण किया और 18 फरवरी से प्रारंभ हुआ यह नौसेना का आंदोलन शांत हुआ।

काँग्रेस और मुस्लिम लीग ने इस आंदोलन का विरोध किया था

इस आंदोलन में ग्यारह नौसैनिक और एक अफसर मारा गया था। सौ से ज्यादा नौसैनिक और ब्रिटिश सोल्जर्स जखमी हुए थे।

इस आंदोलन के थमने के बाद ब्रिटिश अधिकारियों ने इन आंदोलनकारी सैनिकों पर कड़ाई के साथ कोर्ट मार्शल की कार्यवाही की। 476 सैनिकों की ‘पे एंड पेंशन’ समाप्त की।दुर्भाग्य से, डेढ़ वर्ष के बाद जब भारत स्वतंत्र हुआ, तब इन निलंबित सैनिकों को भारतीय नौसेना में नहीं लिया गया। इनका अपराध इतना ही था, कि आंदोलन करते समय इन सैनिकों ने नेताजी सुभाषचंद्र बोस के चित्र लहराए थे।
(क्रमशः)

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