मुसलमानों में जातीय कुचक्र का अब होगा खुलासा
प्रमोद भार्गव
मुसलमानों में जातीय कुचक्र का अब होगा खुलासा
बृहत्तर मुस्लिम समाज सामान्य तौर से यह जताता है कि इस्लाम में जाति व्यवस्था नहीं है। इस भ्रम के माध्यम से मुसलमानों में जातीय कुचक्र को अब तक छिपाया जाता रहा है। लेकिन अब बॉम्बे हाईकोर्ट ने इसे कानूनी कसौटी पर परखने का फैसला लिया है। दरअसल मुसलमानों में जातियां तो हैं, लेकिन दस्तावेजों में उनके लिखने का प्रचलन नहीं है। मुसलमानों में यह उदारता कुटिल चतुराई का पर्याय है। यह जांच नौकरियों में आरक्षण का लाभ लेने के क्रम में की जाएगी। अदालत का कहना है कि जब सरकारी रिकॉर्ड में जाति के आधार पर प्रमाणीकरण ही न किया गया हो तो फिर आरक्षण का लाभ कैसे मिल रहा है। जब कोई व्यक्ति सरकारी दस्तावेजों में जाति या उपजाति का उल्लेख ही नहीं कर रहा है, तो उसे पिछड़ा वर्ग या अनुसूचित जाति अथवा जनजाति के कोटे में आरक्षण का लाभ कैसे मिल सकता है? आरक्षण की व्यवस्था में वही व्यक्ति आरक्षण का लाभ उठाने का पात्र है, जिसे निर्धारित व्यवस्था के अंतर्गत आरक्षण पाने के लिए सक्षम अधिकारी द्वारा जाति प्रमाण-पत्र जारी किया गया हो।
नौकरी या शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए आरक्षण प्राप्त करने हेतु आवेदक द्वारा जाति प्रमाण-पत्र लगाना अनिवार्य है। बावजूद इसके कई बार संबंधित विभाग या राज्य सरकारों की ‘जाति जांच समिति‘ परीक्षण करके ज्ञात करती है कि वास्तव में आवेदक आरक्षित वर्ग या जाति से है अथवा नहीं? इसी प्रकृति का एक मामला बॉम्बे हाईकोर्ट में आया है। जुवेरिया रियाज अहमद शेख बनाम महाराष्ट्र सरकार के नाम से पंजीबद्ध इस मामले में अदालत ने 7 अप्रैल 2022 को दिए आदेश में कहा गया कि, ‘मुसलमानों द्वारा रिकॉर्ड में जाति का उल्लेख नहीं करने की प्रथा को कानूनी तौर पर परखने का निर्णय तब लिया गया है, जब याचिकाकर्ता की ओर से दलील दी गई कि कुछ प्रासंगिक दस्तावेजों में याचिकाकर्ता के रिश्तेदारों की जाति का उल्लेख नहीं होने के कारण को जातीय जांच का आधार नहीं बनाना चाहिए था, क्योंकि बॉम्बे हाईकोर्ट के कई पूर्व निर्णयों में कहा जा चुका है कि मुसलमानों में जाति का उल्लेख करने का प्रचलन नहीं है। इस दलील के समर्थन में इसी हाईकोर्ट के 4 फरवरी 2021 और 22 दिसंबर 2020 के दो पूर्व निर्णयों को बतौर उदाहरण प्रस्तुत किया गया था, कि मुसलमानों के संबंध में यह तय कानूनी व्यवस्था है कि उनमें जाति प्रमाण-पत्रों में जाति का उल्लेख करने का प्रचलन नहीं है। फिलहाल इस मामले की सुनवाई मई 2022 में होगी। यहां प्रश्न उठता है कि जब जाति ही सुनिश्चित नहीं तो जातिगत आरक्षण कैसे दिया जा सकता है?
आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था में मुसलमानों को अनुसूचित जाति वर्ग में आरक्षण नहीं मिलता है। उन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में ही आरक्षण का लाभ मिलता है। दरअसल केंद्र की ओबीसी सूची में ‘मुसलमान‘ जैसा कोई शब्द दर्ज नहीं है। लेकिन ‘बुनकर‘ शब्द उल्लेखित है। बुनकरों में हिंदू और मुसलमान दोनों ही शामिल हैं। लिहाजा बुनकर मुस्लिम है तो उन्हें जाति प्रमाण-पत्र मिल जाता है। हालांकि अपवादस्वरूप मुसलमान जाति का जिक्र करते हैं। इनमें मोमिन और जुलाहा जैसे जाति समुदाय शामिल हैं, इन्हें ओबीसी का जातीय प्रमाण-पत्र मिल जाता है। लेकिन बड़ा विषय यही है कि यदि सरकारी रिकॉर्ड में जाति का उल्लेख नहीं है, तो फिर जातीय प्रमाण-पत्र कैसे मिल सकता है?
मुस्लिम धर्म के पैरोकार यह दुहाई देते हैं कि इस्लाम में जाति प्रथा की कोई गुंजाइश नहीं है। जबकि एम एजाज अली के अनुसार मुसलमान भी चार श्रेणियों में विभाजित हैं। उच्च वर्ग में सैयद, शेख, पठान, अब्दुल्ला, मिर्जा, मुगल, अशरफ जातियां शुमार हैं। पिछड़े वर्ग में कुंजड़ा, जुलाहा, धुनिया, दर्जी, रंगरेज, डफाली, नाई, पमारिया आदि शामिल हैं। पठारी क्षेत्रों में रहने वाले मुस्लिम जनजातियों की श्रेणी में आते हैं। बक्खो, हलालखोर, कलंदर, मदारी, फकीर आदि अनुसूचित जातियों के समतुल्य हैं।
मुस्लिमों में ये ऐसी प्रमुख जातियां हैं जो पूरे देश में लगभग इन्हीं नामों से जानी जाती हैं। इसके अलावा देश के राज्यों में ऐसी कई जातियां हैं, जो क्षेत्रीयता के दायरे में हैं। जैसे बंगाल में मण्डल, विश्वास, चौधरी, राएन, हलदार, सिकदर आदि। यही जातियां बंगाल में मुस्लिमों में बहुसंख्यक हैं। इसी तरह दक्षिण भारत में मरक्का, राऊथर, लब्बई, मालाबारी, पुस्लर, बोरेवाल, गारदीय, बहना, छप्परबंद आदि। उत्तर-पूर्वी भारत के असम, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर आदि में विभिन्न उपजातियों के क्षेत्रीय मुसलमान हैं। राजस्थान में सरहदी, फीलबान, बक्सेवाले आदि हैं। गुजरात में संगतराश, छीपा जैसी अनेक नामों से जानी जाने वाली बिरादरियां हैं। जम्मू-कश्मीर में ढोलकवाल, गुडवाल, बकरवाल, गोरखन, वेदा (मून) मरासी, डुबडुबा, हैंगी आदि जातियां हैं। इसी प्रकार पंजाब में राइनों और खटीकों की भरमार है।
इतनी प्रत्यक्ष जातियां होने के बावजूद मुसलमानों को लेकर यह भ्रम की स्थिति बनी हुई है कि ये जातीय दुष्चक्र में नहीं जकड़े हैं। दरअसल जाति-विच्छेद पर आवरण कुलीन मुस्लिमों की कुटिल चालाकी है। इनका उद्देश्य विभिन्न मुस्लिम जातियों को एक सूत्र में बांधना कतई नहीं है। वे इस छद्म आवरण की ओट में सरकार द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं पर एकाधिकार रखना चाहते हैं। जिससे इनका लाभ इनकी पीढ़ियों को मिलता रहे। 1931 में हुई जनगणना में बिहार और ओड़ीसा में मुसलमानों की तीन बिरादरियों का उल्लेख है, मुस्लिम डोम, मुस्लिम हलालखोर और मुस्लिम जुलाहे। बाकी जातियों को किस राजनीतिक जालसाजी के अंतर्गत हटाया गया, इसकी पड़ताल होनी चाहिए। यदि ऐसा होता है तो वास्तविक रूप से मुसलमानों में आर्थिक बदहाली झेल रही जातियों को सरकारी लाभ योजनाओं से जोड़ा जा सकेगा।
अल्पसंख्यक समूहों में इस समय हमारे देश में पारसियों की घटती जनसंख्या चिंता का कारण है। इस जनसंख्या को बढ़ाने के लिए भारत सरकार ने इन्हें प्रजनन सहायता योजनाओं में भी शामिल किया हुआ है। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के एक सर्वे के अनुसार पारसियों की जनसंख्या 1941 में 1,14000 के मुकाबले 2001 में केवल 69000 रह गई। इस समुदाय में लंबी उम्र में विवाह की प्रवृत्ति के चलते भी यह स्थिति निर्मित हुई है। इस जाति का देश के औद्योगिक और आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान है। प्रसिद्ध टाटा परिवार इसी समुदाय से है। इस जाति को सुरक्षित रखने की दृष्टि से ही जो नागरिकता संशोधन विधेयक लाया गया है, उसमें इनके भारत में ही रहने के प्रावधान किए गए हैं। बहरहाल ऐसे समाज या धर्म समुदाय को खोजना मुश्किल है, जो जातीय कुचक्र के चक्रव्यूह में जकड़ा न हो।
जातिगत आरक्षण के संदर्भ में संविधान के अनुच्छेद 16 की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था है। अतएव आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक रूप से पीछे रह गई जातियों को आरक्षण का लाभ इसलिए दिया जाता है, जिससे वे संविधान के समानता के सिद्धांत का लाभ उठाकर अन्य जातियों के बराबर आ जाएं। बावजूद आरक्षण किसी भी जाति के समग्र उत्थान का मूल कभी नहीं बन सका क्योंकि आरक्षण के सामाजिक सरोकार केवल संसाधनों के बंटवारे और उपलब्ध अवसरों में भागीदारी से जुड़े हैं। इस आरक्षण की मांग शिक्षित बेरोजगारों को रोजगार और ग्रामीण अकुशल बेरोजगारों के लिए सरकारी योजनाओं में हिस्सेदारी से जुड़ गई है। परंतु जब तक सरकार समावेशी आर्थिक नीतियों को अमल में लाकर आर्थिक रूप से कमजोर लोगों तक नहीं पहुंचती तब तक पिछड़ी जातियों अथवा आय के स्तर पर पिछले छोर पर बैठे व्यक्ति के जीवन स्तर में सुधार नहीं आ सकता।
(लेखक, वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं)