मौत आई भी तो इतने चुपके से…, बहुत याद आएंगे उमेश जी
डॉ. मयंक चतुर्वेदी
मौत आई भी तो इतने चुपके से…, बहुत याद आएंगे उमेश जी
उमेश उपाध्याय जी हमारे बीच नहीं रहे, अब शेष हैं तो उनकी स्मृतियां….एक दिन पहले तक वे चहचहा रहे थे, अपने ज्ञान के महासागर में से चुन-चुन कर मोती दे रहे थे, जिन्हें पन्ना-माणिक्य चाहिए थे, वे उन्हें भी निराश नहीं करते…अपनी बिंदास हंसमुख शैली और अनेक ज्ञान धाराओं के बीच में से वे उनके लिए भी उनकी आवश्यकता का पन्ना-माणिक्य निकाल कर दे ही देते थे, किंतु अब यह कौन करेगा!
उनकी पूर्ति कौन करेगा? न जाने कितने अनपढ़ हैं, जिन्हें उमेश जी ने नारद की परंपरा में दीक्षित किया। न जाने कितने साक्षर हैं, जिन्हें उन्होंने पारस की तरह अपने स्पर्श (संपर्क) मात्र से सोना (शिक्षित) बना दिया। आज वे सब कृतज्ञ हैं। उस देह के प्रति, उस आत्मा के प्रकाश के प्रति, उसके संसर्ग ने उन्हें योग्य नहीं योग्यतम् बनाया है।
मैं अपनी क्या कथा कहूं। यूं तो उनको पढ़ने और सुनने का अवसर तब 1994-95 दैनिक जागरण में कार्य करते हुए आता रहा, जब भैयाजी का झांसी जागरण अपने विस्तार में लगा हुआ था। किंतु असल मुलाकात और आत्मीय संबंध तब उर्वर हुए, जब नरेंद्र जैन जी ने रायपुर कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में उनके सानिध्य का एक लम्बा अवसर सुलभ कराया। स्वभाविक है, जब उनके साथ तर्क, वितर्क, कुतर्क के बीच संवाद का एक लम्बा समय बीता तो उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला।
हमारे सामने चुनौतियां क्या-क्या हैं? आज हम कहां खड़े हैं? भारत की दिशा क्या है और क्या होनी चाहिए? हम क्यों पत्रकारिता में आए? एक पत्रकार इस नाते मेरा क्या योगदान है? हम अपना सर्वोत्तम योगदान कैसे दें? जैसे अनेक प्रश्न रहे, जिनका सहज और सरल समाधान उमेश उपाध्याय जी ने तुरंत किया था। इस दिशा में उनका अपना भी जीवन बहुत गहरा रहा है। उनके अनुभव बहुत गहरे रहे। वास्तव में वे सिर्फ पत्रकार नहीं थे, वे पत्रकारिता के बहुत आगे मीडिया कम्युनिकेशन स्ट्रेटजी के सफल गुरु थे। वे एक ऐसे मीडिया कम्युनिकेटर (संचारक) थे, जो बहुत सरल ढंग से किसी भी समस्या का हल देने में सिद्धहस्त थे। अभी पिछले वर्ष ही उनसे उज्जैन में ज्ञान लाभ हुआ था। इस बार कैलाश चंद्र जी के कारण से ही यह संभव हो पाया कि बहुत दिनों बाद उनके ज्ञान का लाभ पाने का मेरे जीवन में सुखद अवसर आया।
उन्होंने हाल ही में “वेस्टर्न मीडिया नैरेटिव्स ऑन इंडिया : फ्रॉम गांधी टू मोदी” नामक पुस्तक लिखी, जिसकी चर्चा भी खूब हुई। उनकी यह पुस्तक विदेशी मीडिया के भारत विरोधी एजेंडे की संदिग्धता को बहुत ही स्पष्टता से उजागर करती है। वे इस सच से दुनिया को अपने अंदाज में परिचित कराते हैं कि कैसे भारत की स्वतंत्रता के बाद के दशकों में, और पिछले दस वर्षों में, अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने बहुत जोश के साथ गलत सूचना अभियान चलाया है। भारत की उपलब्धियों को कमतर आंकने और गलत और अधूरी सूचनाओं के आधार पर राई को पहाड़ बनाने का प्रयास किया है। वे अपनी इस पुस्तक में स्पष्ट करते हैं कि दुर्भाग्य से, भारतीय मीडिया के कुछ वर्ग, शिक्षाविद और जिसे बड़े पैमाने पर ‘बुद्धिजीवी वर्ग’ कहा जाता है, ने भी झूठे आख्यान को खुशी-खुशी अपना लिया है। वाम-उदारवादी पारिस्थितिकी तंत्र द्वारा भारत को खराब रोशनी में चित्रित करने के कई बहादुर प्रयास किए गए हैं। इस प्रक्रिया में वास्तविकता को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया है या फिर उसे असंबंधित मुद्दों के साथ मिला दिया गया है।
वे अपने पाठकों को 1980 के दशक में पंजाब में खालिस्तान समर्थक आंदोलन की याद दिलाना नहीं भूलते हैं। वह पाठकों को कनाडा लेकर जाते हैं, जहां सिखों की अच्छी खासी जनसंख्या है। वे उस भारत विरोधी नैरेटिव को बार-बार सामने रखते रहे, जिससे कि भारत के आम जनमानस को सावधान रहने की आवश्यकता है, विशेषकर बौद्धिक जगत एवं अर्थ जगत से जुड़े लोगों को कम से कम चिंतन के स्तर और व्यवहार के स्तर पर इस नैरेटिव से दूर रहने की आवश्यकता है। कुल मिलाकर वे हर नैरेटिव से अवगत कराते हैं जोकि भारत को विविध प्रकार से कमजोर करने का कार्य करता है।
उमेश जी, बताते हैं कि पश्चिमी प्रेस के एक हिस्से ने सरदार वल्लभभाई पटेल को भारतीय संघ में रियासतों को एकीकृत करने के उनके प्रयासों के लिए खलनायक के रूप में चित्रित किया था । “ ब्रिटेन के समाचार पत्र एकतरफा रिपोर्ट प्रकाशित कर रहे थे, जिसमें सरदार पटेल को हैदराबाद में उपद्रवी बताया गया था, जो रियासत के निज़ाम के साथ किए गए समझौते का पालन नहीं कर रहे थे।” सिर्फ़ सरदार पटेल ही नहीं, महात्मा गांधी और बीआर अंबेडकर भी पश्चिमी प्रेस के गलत सूचना अभियान के शिकार हुए। चलो, यह तो कल की बात थी, लेकिन कई दशकों बाद, तकनीक के ज़रिए ज़्यादा आसानी से उपलब्ध विश्वसनीय जानकारी के प्रवाह के बावजूद भी आज पश्चिमी पूर्वाग्रह उसके मीडिया में भारत के प्रति साफ दिखाई देता है। उसे भी उन्होंने कई दफे अपनी लेखनी से उजागर किया।
देश में इस वक्त जो अराजकता का वातावरण विपक्ष विशेषकर नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी द्वारा अपने वक्तव्यों से पैदा किया जा रहा है, हिन्दुओं को जातियों में बांटकर आपस में लड़ाने का जो षड्यंत्र रचा जा रहा है, तो वहीं, कहीं किसानों के तो कहीं अन्य प्रकार के मुद्दों को हवा देकर केंद्र में मोदी सरकार के कार्यों को कमजोर बताने एवं कुछ नहीं करते हुए भाजपा और उसकी सरकार को तानाशाही बताकर उसे कटघरे में खड़ा करने का जो प्रयास हो रहा है, उसे श्री उमेशजी ने अपनी पुस्तक “वेस्टर्न मीडिया नैरेटिव्स ऑन इंडिया : फ्रॉम गांधी टू मोदी” में बहुत ही सही ढंग से समझा दिया है।
वे इसमें लिखते भी हैं कि “कई पश्चिमी प्रकाशनों ने पहले ही पीएम नरेंद्र मोदी को ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ और उनकी सरकार को हिंदू राष्ट्रवादी सरकार घोषित कर दिया था। इसलिए, उनका मानना था कि सरकार कुछ भी सही नहीं कर सकती।” अपने रुख को पुख्ता करने के लिए, मीडिया ने “अपनी मान्यताओं के अनुकूल कहानियों को चुनना शुरू कर दिया था।” कहना होगा कि एक चुनी हुई सरकार के रूप में देश हित में जो बड़े कार्य एवं माइक्रो स्तर पर कार्य पिछले 10 वर्षों में तेजी के साथ सम्पन्न हुए हैं, उतनी गति विकास की कभी किसी सरकार की नहीं रही, फिर भी देश भर में अच्छा काम करने का ये परिणाम मिला कि मोदी विरोधी छवि कुछ हद तक सफल होती दिखी। अमेरिकी राष्ट्रपति और उनकी टीम ने भाजपा और पीएम मोदी के खिलाफ जो अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया, वह रिकॉर्ड में है। आश्चर्यजनक रूप से, न तो अमेरिकी प्रेस और न ही वहां के लोगों ने उस भाषा की अब तक कोई निंदा की ।
उन्होंने न्यूयॉर्क टाइम्स द्वारा 2021 में दिए गए एक विज्ञापन का हवाला दिया है, जिसमें नई दिल्ली के लिए अपने व्यापार और आर्थिक कवरेज का नेतृत्व करने के लिए ऐसे उम्मीदवारों की तलाश की गई थी, जोकि भारत का समालोचक नहीं उसके प्रति नफरती सोच रखता हो। निश्चित ही पश्चिमी मीडिया ने अभी भी भारत के संदर्भ में अपनी औपनिवेशिक मानसिकता को नहीं छोड़ा है। शायद उसे इस तथ्य को स्वीकार करने में कठिनाई हो रही है कि एक स्वतंत्र भारत ने प्रगति की है।
विदेशी मीडिया को यह बात पच नहीं पा रही है कि भारत ने यह सब और उससे भी अधिक हासिल कर लिया है, यहां श्री उमेश उपाध्याय जी ने अपने बेहतरीन आख्यान को इस सुझाव के साथ समाप्त किया है कि अब एक “नई विश्व सूचना व्यवस्था” की आवश्यकता है जहाँ भारत जैसे देशों की एक सच्ची तस्वीर दुनिया के सामने पेश की जाए। इस तरह के प्रयास को मुख्य रूप से उन देशों द्वारा आंतरिक रूप से संचालित किया जाना चाहिए, जो “पश्चिमी आख्यानों के शिकार” रहे हैं। उभरते भारत की कहानी बताई जानी चाहिए। यह बताई जा रही है, लेकिन इसे और अधिक जोरदार और निरंतर नए-नए तरीके से बताए जाने की आवश्यकता है।
अब क्या कहें, उनका योगदान अनेकों के जीवन में अद्भुत है। घर पर चल रहे निर्माण कार्य के दौरान हुई छोटी सी दुर्घटना में वो गंभीर रूप से घायल हो जाते हैं और चिकित्सालय में डॉक्टरों उन्हें मृत घोषित कर देते हैं । ऐसे हमारे सामने से देखते ही देखते टेलीविजन, प्रिंट, रेडियो और डिजिटल मीडिया में चार दशकों से अधिक समय तक सक्रिय और महत्वपूर्ण भूमिका में योगदान देने वाले हम सब के प्रिय उत्कर्ष से विसर्जन को प्राप्त हो जाते हैं । निश्चित ही उनका हम सभी के बीच से यूं चले जाना सभी को जो उनके अपने हैं, बहुत बड़ी व्यक्तिगत क्षति है। किंतु यह उनकी देह की मृत्यु हम सभी के लिए एक सबक भी है कि मौंत कभी अपने ऊपर आरोप नहीं लेती कि देखो मैं आई और अब मैं लेकर जा रही हूं। वह चुनौती भी नहीं देती, बस…चुपके से आती है, अपने अनेक रूपों में वह कभी भी चली आती है, व्यक्ति अनेक योजनाएं बनाए बैठा होता है, किंतु जब वह आती है तो सारी योजनाएं धरी रह जाती हैं। पंछी अपना घोंसला छोड़ एक नई यात्रा के लिए निकल पड़ता है, पीछे रह जाती हैं उसकी स्मृतियां शेष……जैसे हमारे प्रिय उमेश जी,…शत् शत् नमन !!! भावपूर्ण श्रद्धांजलि …ओम् …।