म्हाकी बोली म्हारो गुमान
डॉ. विशाला शर्मा
10 करोड़ लोगों के द्वारा बोली पढ़ी जाने वाली राजस्थानी नागरी लिपि में लिखी जाती है। जिसमें 72 बोलियां प्रचलित हैं। जयपुरी, मेवाती, जोधपुरी के साथ-साथ किशनगढ़ अलवर जिले में अहीरवाटी और दक्षिण पूर्वी राजस्थान में मालवी बोली बोली जाती है। मारवाड़ी भाषा पर गुजराती भाषा का प्रभाव है। जिसका उत्पत्ति काल 12 वीं सदी के अंतिम चरण में माना जाता है। इसका उद्भव शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ है। भारतीय भाषाओं में राजस्थानी भाषा का सातवां स्थान है। राजस्थानी मारवाड़ की महक, संस्कृति, संस्कार और एकता की परिचायक है।
हम भारतवासी यह जानते हैं कि मां, मातृभूमि और मातृभाषा का कोई विकल्प नहीं होता। सकारात्मक मूल्यों के विकास तथा मानवीय संबंधों के ताने-बाने को बनाए रखने में हमारी मां के बोल हमारे व्यक्तित्व की आधारशिला हैं। मातृभाषा हमारे पूर्वजों के द्वारा प्रदत्त संपत्ति है जो चरित्र निर्माण के साथ-साथ अनुशासन, मानवीयता, सदाचार, साहस, उत्साह जैसे गुणों और भावों को पनपने का एक सशक्त माध्यम बनती है। हर बालक एक संवेदनशील इकाई बने और मातृभूमि के प्रति अपने उत्तरदायित्व को समझ सके यह आवश्यक है। मातृभाषा भविष्य रूपी इमारत को मजबूती से संभालने हेतु नींव के पत्थर का कार्य करती है। यही कारण है कि आज संस्कृति और परंपरा को बचाए रखने के लिए भाषाओं के संवर्धन की आवश्यकता है। भाषाएं केवल विचार विनिमय का साधन नहीं हैं अपितु भाषा में इतिहास के चित्र होते हैं।
भाषिक संपन्नता में भारत का कोई सानी नहीं है। विश्व में बोली जाने वाली अग्रणी 35 भाषाओं में 6 भाषाएं हमारे देश की हैं। अपनी मातृभाषा का एक-एक शब्द हमें विश्व दृष्टि प्रदान करता है। हमारी अपनी पहचान, विविधता, संस्कृति, इतिहास, विज्ञान सब कुछ हमारी मातृभाषा में निहित है। आज भारत के बहुभाषिकता के सौंदर्य को बनाए रखना राष्ट्रीय एकीकरण और मनुष्य के विकास के लिए आवश्यक है। भारत भूमि में कई वैचारिक आंदोलन, राष्ट्रीय आंदोलन, समाज सुधारक आंदोलन देश के कोने कोने तक पहुंचे थे और वे अपनी मातृभाषा / बोली में जन-जन को जागृत करते थे। हमारे व्यक्तित्व और कलाओं को विकसित करने में मातृभाषा / बोलियों का योगदान अहम रहा। किसी भी भाषा का विकास विचारों की पवित्रता से होता है। जन्म के पश्चात जिस भाषा में हमने अभिव्यक्त होना सीखा और जो हमारे विचारों की जननी है, वह मातृभाषा / बोली भावात्मक एकता स्थापित करने के साथ-साथ राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति की गंगोत्री है। मां हमें जिस भूमि पर जन्म देती है और जिसकी गोद में हम पलकर बड़े होते हैं वह मातृभूमि हमारा स्वाभिमान होती है। मां के पश्चात मातृभूमि से हमारा गहरा रिश्ता होता है और मातृभाषा की चेतना को लेकर शब्द और संप्रेषण कौशल के साथ मनुष्य अपना जीवन व्यतीत करता है। यही मातृभाषा मानवता के विकास का अभिलेखागार होती है। अपनी मातृभाषा से बालक जड़ों तक जुड़ जाता है। अतः सांस्कृतिक ढांचे को सुरक्षित रखने हेतु और भाषा के प्रभुत्व को स्थापित करने के लिए भारतीय भाषाओं के महत्व को बनाए रखना होगा। मातृभाषा दिवस हमारी भाषा में विविधता का उत्सव है जो हमें गौरव का अनुभव कराता है। भाषाओं के मूल्यों को समझने व उनके उत्थान के लिए यह आवश्यक है कि अपनी मां की अंगुली पकड़कर प्रथम बार पाठशाला आने वाले बालकों को प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में ही प्रदान की जाए। हमारे समाज शास्त्री मनोवैज्ञानिक और शिक्षण शास्त्री मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा को श्रेष्ठ मानते हैं। इससे बालक का सर्वांगीण विकास संभव है। जिस परिवेश में बालक का बचपन व्यतीत होता है, उस भाषा को बच्चे आसानी से सीखते हैं और उन शब्दों को आसानी से आत्मसात करते हैं। मातृभाषा से बच्चों का परिचय घर और परिवेश से शुरू हो जाता है। अपने सोचने और समझने की क्षमता मातृभाषा में विकसित करने के पश्चात बच्चे जब विद्यालय में प्रवेश लेते हैं, तब भाषा के रूप में अपनी मातृभाषा में शिक्षा पाकर बेहतर परिणाम देते हैं। हमारे महापुरुष इस बात को मानते थे कि भारत के करोड़ों लोगों को अपनी मातृभाषा की अपेक्षा किसी विदेशी भाषा में शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालना है।
आधुनिकता की आंधी में हमारी मातृभाषा विलुप्त प्राय होती जा रही है। 28 नवंबर 2014 को लोकमत में भाषाविद् गणेश देवी का एक साक्षात्कार छपा था, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि आज के समय में बोली जाने वाली 4000 भाषाएं आने वाले 80 वर्षों में मृत हो जाएंगी। जबकि किसी भाषा की मृत्यु मनुष्य की मृत्यु के समान घटना है। हमारे देश के अलग-अलग प्रांतों की मातृभाषाएं और उनसे जुड़े एक एक शब्द का अपना इतिहास है। इन शब्दों में पर्यावरण को समझने की अपार शक्ति है। पृथ्वी को बचाने की समझ है। वे आध्यात्मिकता का आधार स्तंभ हैं। आइए, मातृभाषा दिवस पर एक सार्थक पहल करते हुए हम संकल्प लें कि अपने परिवार में बच्चों के साथ अपनी मातृभाषा में बात करेंगे, अपने हस्ताक्षर हिंदी में करेंगे। जिससे हमारी मातृभाषा का चिर स्थायीकरण होगा, हमारे विचारों की मौलिकता बनी रहेगी और हमारी मातृभाषा सदैव उत्सव का माध्यम बनेगी।
(लेखिका चेतना कला वरिष्ठ महाविद्यालय औरंगाबाद में प्रोफेसर हैं)