योग और आयुर्वेद में स्वास्थ्य के साथ आर्ट ऑफ़ लिविंग के बारे में समग्रता से चिंतन समाहित है
वीरेन्द्र पांडेय
वैश्विक महामारी का सामना कर रहा विश्व आज बड़ी आतुरता से भारतीय योग-वेदांत तथा आयुर्वेद पर आधारित जीवन पद्धति की चर्चा कर रहा है। आज विश्व यह स्वीकार करने की स्थिति में है कि योग और आयुर्वेद में स्वास्थ्य के साथ आर्ट ऑफ़ लिविंग (जीने की कला) के बारे में समग्रता से चिंतन समाहित है। बात सन 2020 की है, जब उच्च सदन राज्यसभा में मेडिसिन बिल पर चर्चा के दौरान सांसद डॉ. सुधांशु त्रिवेदी ने आयुर्वेद के सन्दर्भ में अति शोधपरक बात कही। उन्होंने कहा कि “आयुर्वेद आयु का विज्ञान है, यह भारतीय ऋषियों के चिंतन तथा शोध का प्रतिफल है। हमारे वेदों की महिमा ही है जिसमें जीवन के प्रत्येक आयाम का बड़ी गहनता से वर्णन किया गया है।”
वास्तव में यह गौरवानुभूति की बात है कि हिन्दू धर्मग्रंथों में एडवांस चिकित्सा पद्धति, जीवन प्रबंधन और मैथमेटिक्स का जिक्र बड़े विस्तार से किया गया है। दुनिया के किसी अन्य धर्मग्रंथ में ऐसा नहीं मिलता। आयुर्वेद अथर्ववेद का हिस्सा है। प्रकृति के नियमों पर आधारित आयुर्वेद मनुष्य को संतुलित आहार, उत्तम दिनचर्या एवं ऋतुचर्या वाला संतुलित विहार और इन्द्रिय विजय के साथ विकार समाप्ति हेतु सद्वृत्त का आचरण करना सिखाता है। जो कि सदाचार पर आधारित होता है। जीवन के इन सभी सैद्धान्तिक मूल्यों को योग के माध्यम से सहजतापूर्वक प्राप्त किया जा सकता है। योग हमारे रक्त में सुरक्षा-तन्त्र की कोशिकाओं के बल में अपार वृद्धि करता है और प्रतिकूल वातावरण से भी हमारे शरीर की सुरक्षा करता है। योग के माध्यम से मानसिक स्थिरता प्राप्त की जा सकती है और स्थिर मन से ही जीवन को सात्विक मार्ग पर ले जाया जा सकता है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि यदि आयुर्वेद एक जीवन प्रणाली है तो योग जीवन प्रबन्धन है। योग को जीवन का विज्ञान भी कहा जा सकता है। आयुर्वेद प्रकृति का तंत्र है तो योग आत्म साक्षात्कार का आध्यात्मिक दर्शन है।
पश्चिम की सबसे बड़ी उपलब्धि शल्य क्रिया (सर्जरी) बताई जाती है, परन्तु अमेरिकन काउंसिल ऑफ सर्जन में आचार्य सुश्रुत को सर्जरी का जनक माना जाता है। सर्जरी का सम्पूर्ण वर्णन ‘सुश्रुत संहिता’ में मिलता है। सुश्रुतसंहिता आयुर्वेद के तीन मूलभूत ग्रन्थों में से एक है। आठवीं शताब्दी के इस ग्रन्थ में 184 अध्याय हैं, जिनमें 1120 रोगों, 700 औषधीय पौधों (मेडिसिन), 300 ऑपरेशन प्रक्रियाओं (प्रोसीजर) एवं 125 तरह के उपकरणों का उल्लेख है। इस बात की पुष्टि ब्रिटिश समय के भारतीय पुरातत्व विभाग के प्रमुख सर जॉन मार्शल ने हड़प्पा संस्कृति के ऊपर अपने शोध पत्र के पेज नंबर 210 पर की है। वे लिखते हैं कि यहाँ सर्जिकल इंस्ट्रूमेंट द्वितीय शताब्दी से उपलब्ध हैं। लंदन से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘द जेन्टल मैन’ ने 1794 में दो डॉक्टर जेम्स पेंडिल और थॉमस के हवाले से एक रिसर्च छापी कि कटे हुए अंगों को जोड़ने की विधि अर्थात प्लास्टिक सर्जरी आयुर्वेदिक सिस्टम से सीखी। प्राप्त दस्तावेजों के अनुसार ऑपरेशन में बेलाडोना पट्टी, मछली का तेल, चौक पाउडर तथा पिपरमेंट के उपयोग का उल्लेख मिलता है। साथ ही जो मरीज उन दिनों ऑपरेशन के लिए राजी हो जाते थे, उन्हें ठीक होने के बाद प्रोत्साहन राशि के रूप में दो रुपए भी दिए जाते थे, जो उन दिनों भारी भरकम राशि मानी जाती थी।
इसी क्रम में कुछ आयुर्वेदिक औषधियों की वैज्ञानिकता पर बात करते हैं। हृदय के लिए अर्जुनरिष्ठ लेते हैं, जिसका साइंटिफिक नाम ‘टर्मिनेलिआ अर्जुना’ है, तुलसी को अंग्रेजी में ‘होली बेसिल’ कहा जाता है। यह स्वीकारोक्ति ‘होली’ अर्थात पवित्र शब्द हमने नहीं दिया यह उनके द्वारा दिया हुआ है, इसका मतलब धार्मिक दृष्टि से महत्पूर्ण इस औषधि में कुछ विशेष वैज्ञानिक गुण निहित हैं। हमारे यहाँ ‘पीपल को प्राणवायु देने वाला और पूजनीय माना गया है, इसे अंग्रेजी में फाइकस रेलिजिओसा कहते हैं। अर्थात हमारे यहाँ धार्मिक दृष्टि से पाए जाने वाले वृक्षों में चिकित्सीय गुण हैं, जिसे विश्व भी मान्यता देता है। इससे एक बात पूर्णतः स्पष्ट हो जाती है कि हिन्दू रिलीजियस टेक्स्ट बुक आधुनिक विज्ञान को भी समाहित किये हुए हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि भारतीय इतिहास और संस्कृति में ऐसा बहुत कुछ छिपा हुआ है बल्कि जानबूझकर छिपाया गया है, जिसे जानने-समझने और जनता तक पहुँचाने की आवश्यकता है। वामपंथी इतिहासकारों द्वारा भारतीयों को हीन भावना से ग्रसित रखे जाने का जो षड्यंत्र रचा गया है उसे छिन्न-भिन्न करना होगा। आजकल के बच्चों को तो यह भी नहीं मालूम कि “मराठा साम्राज्य”, और “विजयनगर साम्राज्य” नाम का एक विशाल शौर्यपूर्ण इतिहास मौजूद है। दुर्भाग्य से हमारी नई पीढ़ी तो सिर्फ मुग़ल साम्राज्य के बारे में जानती है।
पिछले चार -पांच दशकों से नई नई मेडिसिन खाने का प्रचलन बढ़ा है। परन्तु आज परिस्थितिवश विश्व वापस हर्बल मेडिसिन की ओर जाने पर विवश हो रहा है। अब प्रश्न यह उठता है कि पश्चिम का विज्ञान तब सही था या अब? क्या हमारी पद्धति अकाट्य नहीं थी? प्रायः ऐसा होता है कि जब हम भारत के किसी प्राचीन ज्ञान अथवा इतिहास के बारे में किसी को बताते हैं तो उसे सहसा विश्वास ही नहीं होता। क्योंकि भारतीय संस्कृति और इतिहास की तरफ देखने का हमारा दृष्टिकोण ऐसा बना दिया गया है मानो हम कुछ हैं ही नहीं, जो भी हमें मिला है वह सिर्फ और सिर्फ पश्चिम और अंग्रेज विद्वानों की देन है। जबकि वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने इस एडवांस सोर्स ऑफ सिस्टम को जानें और उस पर गौरव करें तथा मजबूती से विश्व को बतायें।
मेरे वेदों का ज्ञान अमर, मेरे वेदों की ज्योति प्रखर।
मानव के मन का अंधकार, क्या कभी सामने सका ठहर?
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)