राजनीतिक भूल सुधार का प्रयास
बलबीर पुंज
प्रधानमंत्री संग्रहालय, राजनीतिक भूल सुधार का प्रयास
‘सबका साथ-सबका विकास, सबका विश्वास-सबका प्रयास’ क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लोकलुभावन उद्घोष मात्र है या इसका प्रतिबंब उनकी कार्यशैली में दिखता है? गत 14 अप्रैल को देश ने इसका जीवंत प्रमाण तब देखा, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली स्थित कई एकड़ में फैले तीन मूर्ति भवन परिसर में 271 करोड़ रुपये की लागत से निर्मित भव्य ‘प्रधानमंत्री संग्रहालय’ का उद्घाटन किया। जिस तीन मूर्ति भवन में अब तक स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू से जुड़े संस्मरणों का संग्रहालय था, अब वहां अन्य भवन बनाकर देश के सभी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तित्व और कृतित्व को भी प्रस्तुत किया गया है। यहां सभी प्रधानमंत्रियों को बराबरी का सम्मान दिया गया है। अपने उद्घाटन भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था, ‘देश आज जिस ऊंचाई पर है, वहां तक उसे पहुंचाने में स्वतंत्र भारत के बाद बनी प्रत्येक सरकार का योगदान है। मैंने लाल किले से भी ये बात कई बार दोहराई है।’ वास्तव में, यह संग्रहालय निष्पक्षता और वस्तुनिष्ठता के साथ बहुलतावादी भारतीय सनातन संस्कृति के अनुकूल भी है। जहां प्रधानमंत्री मोदी इसके लिए असीम बधाई के पात्र है, तो इस राजनीतिक समरसता रूपी भवन को साकार करने में केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय, नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय के कार्यकारी परिषद के अध्यक्ष नृपेंद्र मिश्र और उपाध्यक्ष ए.सूर्य प्रकाश की भूमिका भी अतुलनीय है।
‘प्रधानमंत्री संग्रहालय’ में लाल बहादुर शास्त्री से लेकर डॉ. मनमोहन सिंह तक 13 पूर्व प्रधानमंत्रियों से संबंधित जानकारियों को प्रदर्शित किया गया है। इसमें गुलजारी लाल नंदा के योगदानों को भी शामिल किया गया है, जो 13 दिनों के लिए दो बार कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने थे। अत्याधुनिक तकनीक और उत्कृष्ट स्थापत्य-कला के उपयोग से देश के पूर्व प्रधानमंत्रियों के जीवन, कार्यों और देश के प्रति उनके योगदान के साथ उनके कार्यकाल में घटित विवादों को भी दर्शाया गया है। साथ ही इसमें स्वतंत्र भारत द्वारा प्राप्त मील के पत्थरों का संबंधित प्रधानमंत्री के कार्यकाल के साथ उल्लेख है। उदाहरणस्वरूप, संग्रहालय में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के खंड में कंप्यूटर क्रांति के साथ-साथ बोफोर्स समझौता घोटाले, शाहबानो प्रकरण, भोपाल गैस त्रासदी की जानकारी है। इसके अतिरिक्त, यहां इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के साथ बैंकों के राष्ट्रीयकरण, पी.वी. नरसिम्हा राव के कार्यकाल में उदारीकरण और अटल सरकार में पोखरण-2 परमाणु परीक्षण आदि को स्थान दिया गया है।
निमंत्रण के बाद पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री, मोरारजी देसाई, नरसिम्हा राव, चरण सिंह, एच.डी. देवेगौड़ा और अटल बिहारी वाजपेयी के परिवार से जुड़े लोग इस उद्घाटन समारोह में शामिल हुए। किंतु नेहरू-गांधी परिवार या फिर डॉ.मनमोहन सिंह परिवार से कोई भी शामिल नहीं हुआ। कुछ मीडिया रिपोर्टों की मानें, तो डॉ. सिंह ने स्वास्थ कारणों से कार्यक्रम से दूरी बनाई। परंतु न तो इंदिरा गांधी की पुत्रवधू और राजीव गांधी की पत्नी सोनिया गांधी वहां पहुंची और ना ही राहुल गांधी या फिर प्रियंका गांधी। कांग्रेस इस संग्रहालय का विरोध कर रही है।
वास्तव में, यह उस चिंतन का परिचायक है, जिसमें राजनीतिक विरोधी से प्रतिस्पर्धा का नहीं, घृणा का भाव होता है, जो लोकतंत्र को दशकों से अस्वस्थ कर रहा है। यह कोई पहला मामला नहीं। दशकों से भारत की सनातन संस्कृति की रक्षा, एकता, संप्रभुता, समावेशी विचारों, बहुलतावाद और राष्ट्रवाद के कारण भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) दशकों से ‘राजनीतिक अस्पृश्यता’ और घृणा का दंश झेल रहे हैं। इसका कारण उस मानसिकता में है, जो अनादिकाल से भारत की मूल सनातन संस्कृति में स्वीकार्य ‘मतभिन्नता’ को चुनौती दे रहा है। इस गौरवशाली और समरसतापूर्ण भारतीय परंपरा को आठवीं शताब्दी से प्रवासी ‘काफिर-कुफ्र’ चिंतन, 16वीं सदी से ‘हीथन’ दर्शन और बीते 100 वर्षों से वामपंथ विकृत कर रहा है।
विगत 1310 वर्षों से जिस प्रकार भारत की सनातन संस्कृति पर इन विदेशी चिंतनों द्वारा आघात हो रहा है, जिससे भारत की सांस्कृतिक सीमा कालांतर में सिकुड़ती गई, 1947 में इस भूखंड का एक-तिहाई हिस्सा इस्लाम के नाम पर काट लिया, तो देश में आज भी चर्च-ईसाई मिशनरियों का छल-बल-लोभ से मतांतरण अभियान और मजहबी अलगाववाद-कट्टरपंथ जारी है। वामपंथियों ने भले ही पाकिस्तान के जन्म में दाई की भूमिका निभाई, किंतु उन्हें खंडित भारत में ‘मतभेद’ को ‘मनभेद’ और ‘घृणा’ में परिवर्तित करने में समय लगा। इसका प्रमाण पं.जवाहरलाल नेहरू और अटल बिहारी वाजपेयी के संबंधों से स्पष्ट है। पं.नेहरू और अटलजी, अलग-अलग विचारधाराओं के ध्वजवाहक थे। दोनों में गहरा मतभेद तो था, परंतु मनभेद नहीं। यह नेहरू द्वारा अटल के प्रधानमंत्री बनने की भविष्यवाणी और वाजपेयी द्वारा पं.नेहरू के निधन पर दी गई भावुक श्रद्धांजलि से स्पष्ट है। इसके अतिरिक्त, 1962 के भारत-चीन युद्ध में आरएसएस की निस्वार्थ राष्ट्रसेवा देखने और पूर्वाग्रह के बादल छंटने के बाद 1963 के गणतंत्र दिवस में परेड के लिए पं.नेहरू द्वारा संघ को आमंत्रित करना, 1965 में पाकिस्तान से युद्ध के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के निमंत्रण पर संघ के तत्कालीन सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर का सामरिक बैठक में पहुंचना, 1973 में गोलवलकर के निधन पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा शोक प्रकट करते हुए उन्हें राष्ट्र-जीवन में महत्वपूर्ण योगदान देने वाला विद्वान और प्रभावशाली व्यक्ति बताना- स्वस्थ लोकतंत्र और बहुलतावाद के प्रतीक थे।
यह परिदृश्य तब बदलना प्रारंभ हुआ, जब 1969 में कांग्रेस टूटने के बाद इंदिरा गांधी ने अपनी सरकार बचाने के लिए वामपंथियों का सहारा ले लिया और उनका सनातन भारत विरोधी दर्शन, राष्ट्रीय मुख्यधारा का अंग बन गया। तब कांग्रेस ने वामपंथी चिंतन को ‘आउटसोर्स्ड’ कर लिया और कालांतर में पार्टी उससे ऐसी जकड़ी कि जिन इंदिरा गांधी ने वीर विनायक दामोदर सावरकर के सम्मान में स्वयं डाक-टिकट जारी करते हुए भारत का विशिष्ट पुत्र बताकर ब्रितानियों के विरुद्ध निर्भीक संघर्ष करने वाला स्वतंत्रता सेनानी बताया था, उन्हीं इंदिरा की पार्टी और अन्य स्वघोषित ‘सेकुलर’ नेताओं ने आरएसएस और सावरकर के विरुद्ध विषवमन शुरू कर दिया। यह वामपंथीकरण का प्रभाव था कि वर्ष 2004 में केंद्रीय सत्ता पर आने के बाद कांग्रेस के तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री मणिशंकर अय्यर ने अंडमान की अंडाकार जेल से वीर सावरकर के विचारों (उद्धरण पट्टिका) को हटा दिया था, जिसे मई 2014 के बाद पुनर्स्थापित कर दिया गया। इस प्रकार के ढेरों उदाहरण हैं, जिसकी आंच अब प्रधानमंत्री मोदी तक भी पहुंच चुकी है।
स्वतंत्रता के बाद देश पर लगभग 50 वर्षों तक शासन कर चुकी कांग्रेस ने यह स्थापित करने का प्रयास किया है कि देश की स्वतंत्रता और विकास में केवल कांग्रेस, विशेषकर नेहरू-गांधी परिवार के लोग ही शामिल रहे हैं। यही कारण है कि स्वाधीनता के समय देश को एकसूत्र में बांधने वाले सरदार वल्लभभाई पटेल को वर्ष 1991 में, संविधान निर्माता बाबासाहेब डॉ.बीआर अंबेडकर को वर्ष 1990 में ‘भारत रत्न’ दिया गया, जबकि यह सर्वोच्च नागरिक सम्मान पं.नेहरू को 1955 में, इंदिरा गांधी को 1971 और राजीव गांधी को 1991 में दे दिया गया था। इसी प्रकार देश की राष्ट्रीय योजनाओं, भवनों, उद्यानों आदि के अधिकांश नाम भी एक ही परिवार को समर्पित हैं।
सच तो यह है कि ‘प्रधानमंत्री संग्रहालय’ उस परंपरा का हिस्सा है, जिसमें सांस्कृतिक भूल सुधार के साथ ऐतिहासिक राजनीतिक विकृतियों को ठीक किया जा रहा है। गुजरात में ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ के रूप में स्थापित सरदार पटेल की विशाल प्रतिमा और इंडिया गेट स्थित छतरी में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 28 फीट ऊंची ग्रेनाइट मूर्ति बनने तक होलोग्राम प्रतिमा का अनावरण- इसका प्रमाण है।