रानी दुर्गावती, जिन्होंने मुगलिया दरिन्दों को गाजर-मूली की भांति काट डाला

रानी दुर्गावती, जिन्होंने मुगलिया दरिन्दों को गाजर-मूली की भांति काट डाला

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

रानी दुर्गावती, जिन्होंने मुगलिया दरिन्दों को गाजर-मूली की भांति काट डालारानी दुर्गावती, जिन्होंने मुगलिया दरिन्दों को गाजर-मूली की भांति काट डाला

इतिहास के पन्नों में रानी दुर्गावती एक ऐसा नाम है, जिसके स्मरण मात्र से वीरता की भावना का ज्वार स्वतः उठने लगता है। ऐसी वीरांगना, जिन्होंने मुगलों को नाकों चने चबवा दिए। अपने शौर्य और पराक्रम से जिन्होंने इस्लामिक आक्रान्ताओं का प्रतिकार करते हुए, उन्हें भारतीय नारी की शूरवीरता के समक्ष घुटने टेकने के लिए विवश कर दिया। युद्धभूमि में साक्षात चण्डी सा उग्र स्वरूप लेकर जिन्होंने मुगलिया दरिन्दों को गाजर-मूली की भांति काट डाला।

कालिंजर के कीर्तिसिंह चन्देल की पुत्री के रूप में पाँच अक्टूबर 1524 ई. दुर्गाष्टमी की तिथि में जन्मी बेटी का नामकरण ही दुर्गावती किया गया और यथा नाम तथा गुण की उक्ति को उन्होंने स्वयं गढ़ा एवं मण्डला के नेतृत्व की बागडोर सम्हालने के बाद चरितार्थ किया। वे बाल्यकाल से ही बरछी, भाला, तलवार, धनुष, घुड़सवारी और तैराकी में अव्वल थीं। साहस-शौर्य, बुद्धि एवं कौशल से प्रवीण दुर्गावती में राष्ट्रगौरव, आत्मसम्मान, स्वाभिमान, अस्मिता तथा हिन्दू-समाज संस्कृति-परम्पराओं के प्रति अनुराग कूट-कूट कर भरा था।

अपनी युवावस्था के समय जब उनके पिता शेरशाह सूरी से युद्ध करते-करते घायल हो गए थे, जिस कारण से उन्हें चिकित्सा के लिए महल में लाना पड़ा था। शेरशाह ने उचित अवसर जान किले पर आक्रमण के लिए घेराबन्दी कर दी, ऐसी स्थिति में प्रजा भयभीत एवं जौहर के लिए तैयार हो गई थी। किन्तु दुर्गावती ने अपने अदम्य साहस का परिचय देते हुए शेरशाह को कूटनीतिक सन्धि प्रस्ताव में उलझाए रखते हुए, उसके विरुद्ध संघर्ष की पूरी तैयारी कर ली। तत्पश्चात जब शेरशाह ने कायरतापूर्ण घात करने का प्रयत्न किया तो दुर्गावती ने उसका भरपूर प्रत्युत्तर दिया और बारूदी गोलों की आग से शेरशाह की मुगलिया सेना को परास्त कर दिया। उसी हमले में बारूद के ढेर में शेरशाह सूरी के चिथड़े उड़ गए।

सन् 1540 ई. में गोंडवाना साम्राज्य (गढ़ा मण्डला) के युवराज दलपतशाह से उनका विवाह सम्पन्न हुआ। चार वर्ष के अन्तराल में रानी की गोद में सन् 1544 ईस्वी में वीरनारायण के रूप में जन्मे पुत्र ने किलकारियों की गूँज से मातृत्व को पुष्पित एवं पल्लवित किया। मगर काल की गति और विधि में कुछ और लिखा होने के कारण गम्भीर बीमारी के चलते सन् 1548 में दलपतशाह का देहावसान हो गया।

25 वर्ष की आयु में उनके जीवन में आया वैधव्य का संकट किसी महाप्रलय से कम नहीं था, लेकिन रानी ने महाराज दलपतशाह के वचनों को निभाने के लिए वीरनारायण को सिंहासन पर आरूढ़ कर राज्य के कुशल संचालन का दायित्व अपने कन्धों पर ले लिया। उनके राज्य में कुल 52 गढ़ थे, जिनकी प्रगति और उत्कर्ष के लिए वे प्रतिबद्ध थीं। उस समय गोंडवाना (गढ़ा मण्डला) राज्‍य का विस्तार उत्तर में नरसिंहपुर, दक्षिण में बस्‍तर छत्‍तीसगढ़, पूर्व में संभलपुर (उड़ीसा) एवं पश्चिम में वर्धा (महाराष्‍ट्र) तक फैला हुआ था।

रानी प्रजापालक, कुशल रणनीतिज्ञ, लोकप्रिय तथा प्रकृति प्रेमी थीं। उनके राज्य में अपार समृद्धि के साथ सभी में स्नेह-समन्वय था। वे अपनी प्रजा के लिए राज्य में भ्रमण कर नीतियाँ बनाने के साथ उनके कार्यान्वयन में रत रहीं। उन्होंने अनेक तालाबों-बाँधों का निर्माण करवाया। कृषकों को उन्होंने भू-दान, धातुदान व पशुपालन के लिए प्रेरित किया तथा उनकी समृद्धि के लिए स्वयं वे सभी प्रयास किए जो उनके लिए आवश्यक थे।

वर्तमान मध्यप्रदेश की संस्कार एवं न्याय राजधानी के तौर पर प्रसिद्ध जबलपुर के इस स्वरूप के पीछे रानी दुर्गावती की विचार दृष्टि ही है। उन्होंने जबलपुर में रानी ताल, चेरी ताल, आधार ताल सहित कुल 52 तालाबों का निर्माण करवाया था। वे धर्मनीति के प्रति कितनी समर्पित थीं, इसकी झलक उनके द्वारा निर्माण कराए गए मंदिरों एवं धर्मशालाओं में स्पष्ट देखी जा सकती है। रानी दुर्गावती के राज्य में सुख-समृद्धि अपने चरमोत्कर्ष पर थी, इसकी बानगी आईने-अकबरी में अबुल फजल द्वारा दर्ज की गई है- “दुर्गावती के शासन काल में गोंडवाना इतना समृद्ध था कि प्रजा लगान का भुगतान स्‍वर्ण मुद्राओं और हाथियों के रूप में करती थी।”

दलपतशाह की मृत्योपरान्त मालवा के मांडलिक बाजबहादुर ने उनका राज्य हड़पने के उद्देश्य से गढ़ा मण्डला पर आक्रमण किया, मगर युद्ध के मैदान में वह रानी दुर्गावती के आगे कहीं नहीं टिक सका। रानी ने उसे युद्ध भूमि में परास्त कर जान बचाकर भागने के लिए विवश कर दिया। रानी के पराक्रम एवं उनके राज्य की समृद्धि के चर्चे सभी ओर ख्याति प्राप्त करने लगे। लेकिन उनका जीवन चुनौतियों से भरा हुआ था। निजी जीवन का कष्ट, प्रजापालन व राज्य के कुशल संचालन के साथ शत्रुओं की गिद्ध दृष्टि भी उनके राज्य पर बनी हुई थी।

वे दूरदर्शी और कूटनीति के साथ युद्ध संचालन एवं रणनीति बनाने में प्रवीण थीं। उनकी सेना में 20 हजार घुड़सवार, एक हजार हाथी दल के साथ-साथ बड़ी संख्या में पैदल सेना थी। उन्होंने अपनी सहायिका रामचेरी के नेतृत्‍व में ‘नारी वाहिनी’ का भी गठन किया था। भारतीय इतिहास में यह उनकी विचार दृष्टि-समता एवं नारी के शौर्य का अनुकरणीय उदाहरण है, जिसमें उन्होंने उन्हीं भारतीय परम्पराओं के मूल्यों को ग्रहण किया जो धर्म-ग्रन्थों एवं पूर्व परम्पराओं से प्राप्त थे।

उस समय के क्रूर, बर्बर आतंकी अकबर ने जब रानी दुर्गावती को अधीनता स्वीकार करते हुए उनके प्रिय हाथी सरमन, सेनापति आधार सिंह को दरबार में भेजने का सन्देशा भिजवाया, तो रानी दुर्गावती ने इसे अस्वीकार कर दिया और हिन्दू समाज की अस्मिता व स्वाभिमान की पताका को गर्वानुभूति के साथ फहरने दिया।

उन्होंने पराधीनता के स्थान पर वीरता को चुना और युद्ध के लिए निडरतापूर्वक तैयार हो गईं। उनकी सेना की संख्या अकबर के मुकाबले भले ही कम थी, किन्तु उनका आत्म तेज, त्याग-बलिदान, साहस उससे लाख गुना बड़ा था। रानी दुर्गावती की प्रतिक्रिया से खिसियाए अकबर ने आसफ खाँ को युद्ध के लिए भेजा। लेकिन रानी दुर्गावती ने युद्ध के मैदान में उसे धूल चटा दी। अन्ततोगत्वा उसे अपने प्राण बचाकर भागना पड़ा। उसने 23 जून 1564 को अपनी सम्पूर्ण ताकत के साथ पुन: आक्रमण किया। जबलपुर के समीप नरई नाला के किनारे रानी ने प्रतिकार करते हुए मुगल सेना के छक्के छुड़ा दिए। वे जिस ओर से जातीं, उधर केवल संहार नृत्य करता था। उनके भय से शत्रु सेना भयाक्रान्त थी। उनके दोनों हाथों में लहराती खड्ग केवल मुगलों के रक्त से प्यास बुझा रही थी।

24 जून 1564 को जब वे वीरतापूर्वक युद्ध के मैदान में शत्रुओं का संहार कर रही थीं, उसी समय शत्रु का एक तीर उनकी भुजा में आ लगा। क्षण भर भी विचलित हुए बिना उन्होंने वह तीर निकाल फेंका, तभी दूसरा तीर उनकी आँख में आ लगा। इतनी मर्मान्तक पीड़ा के बाद भी उन्होंने उस तीर को निकालने का यत्न किया। लेकिन उसकी नोंक आँख में ही धँसी रह गई। अब रानी जब तक सम्भल पाती, तब तक तीसरा तीर उनकी गर्दन में आ लगा। रानी ने इस विकट परिस्थिति को देखते हुए समीप ही युद्धरत सेनापति आधार सिंह से अपनी गर्दन काटने का आग्रह किया। किन्तु जब आधार सिंह असमंजस में पड़ गए, तब उन्होंने अपनी वीरगति के लिए कटार निकालकर आत्मोत्सर्ग कर लिया। उनके बाद वीरनारायण ने युद्ध का मोर्चा सम्भाला, किन्तु सेना के अभाव में उन्होंने भी वीरगति प्राप्त की।

रानी दुर्गावती का वह आत्मबलिदान भारतवर्ष की उस शक्ति का बलिदान था, जिसके आत्मोत्सर्ग ने हिन्दुओं के रक्त के कण-कण में वीरता की नव चेतना प्रवाहित कर दी। उनकी आयु कोई अधिक नहीं थी, वीरगति प्राप्त करने तक वे केवल चालीस वर्ष की ही थीं। किन्तु उन्होंने मुगलों के प्रतिकार की जो ज्वाला सुलगाई उसकी चिंगारी ने क्रूरता के भी वक्ष को चीर डाला।

इस युद्ध पर इतिहासकार विन्सेंट स्मिथ लिखते हैं कि – “दुर्गावती जैसी सत्-चरित्र और भली रानी पर हुआ अकबर का आक्रमण साम्राज्‍यवादी व न्‍याय संगत नहीं था।”

युद्ध स्थल के समीप जबलपुर से कुछ ही किलोमीटर दूर बरेना गाँव में श्वेत पत्थरों से रानी दुर्गावती की समाधि बनी हुई है। यह समाधि उस वीरांगना की शौर्य-गाथा का जाज्वल्यमान अमर स्तम्भ है, जिसने अपने अभूतपूर्व साहस, त्याग, बलिदान का लोहा मनवाते हुए मुगलों को भारतीय नारी के उस स्वरूप से परिचित करवाया, जिसे चण्डी कहते हैं। रानी ने इतिहास के पन्नों पर पराक्रम की अमिट लकीर खींचते हुए देश-धर्म, प्रजा व स्वतन्त्रता के लिए सर्वस्व न्यौछावर कर दिया।

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