फूल तो बरसेंगे नहीं, जो हुआ, वही होना था, रामगोपाल मिश्रा की हत्या पर सरवर चिश्ती का बयान

फूल तो बरसेंगे नहीं, जो हुआ, वही होना था, रामगोपाल मिश्रा की हत्या पर सरवर चिश्ती का बयान

फूल तो बरसेंगे नहीं, जो हुआ, वही होना था, रामगोपाल मिश्रा की हत्या पर सरवर चिश्ती का बयान फूल तो बरसेंगे नहीं, जो हुआ, वही होना था, रामगोपाल मिश्रा की हत्या पर सरवर चिश्ती का बयान

अजमेर। उत्तर प्रदेश के बहराइच के महाराजगंज में 13 अक्टूबर को मां दुर्गा की प्रतिमा की विसर्जन यात्रा निकल रही थी। यह यात्रा जब अब्दुल हमीद के घर के सामने पहुंची, तो अब्दुल के घरवालों ने डीजे बंद करवा दिया। इस पर वातावरण गरमा गया, इसी कहासुनी के बीच 22 वर्षीय रामगोपाल मिश्रा को गोली मारी गई और तड़पा-तड़पाकर उसकी वीभत्स हत्या कर दी गई। पुलिस ने इस मामले में आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया है और पूरे मामले की जांच की जा रही है।

अब इस प्रकरण में अजमेर में खादिमों की संस्था ‘अंजुमन सैयद जादगान’ के सचिव सरवर चिश्ती का बयान आया है। उन्होंने रामगोपाल मिश्रा की हत्या को सही ठहराया है। उन्होंने अपने ट्विटर हैंडल (एक्स) पर लिखा है, ‘मुसलमानों को गालियां बकी जाएंगी। उनके घर पर चढ़कर हरा झण्डा उतारकर भगवा झण्डा लहराया जाएगा। फिर फूल तो बरसेंगे नहीं, जो हुआ, वही होना था।’ अजमेर दरगाह के सरवर चिश्ती के इस ट्वीट से उनकी सोच का पता चलता है। उनके अनुसार, रामगोपाल मिश्रा ने हरा झण्डा उतारकर भगवा झण्डा लगाने का प्रयास किया था, तो क्या इसकी शिकायत पुलिस से नहीं की जा सकती थी? क्या उन्हें मारना और तड़पाकर मारना ही आवश्यक था? ऐसे में जब हिन्दू समाज प्रश्न करता है कि इस तरह की घटनाएं उनके धार्मिक कार्यक्रमों और शोभायात्राओं के दौरान ही क्यों होती हैं, तब मुस्लिम समाज सच्चा मुसलमान और बुरा मुसलमान जैसी बातें क्यों करने लग जाता है? क्यों ऐसा होता है कि घटना कोई भी हो, यदि उसमें आरोपी मुस्लिम है, तो मुस्लिम समाज या तो चुप रहता है या अपराधी के बचाव में खड़ा दिखता है। क्यों यह समाज गलत को गलत नहीं कहता? क्यों अल्पसंख्यक कार्ड खेलने लग जाता है या अपराधियों के भी मानवाधिकारों की दुहाई देने लग जाता है? देश में अगर कहीं कोई अपराध होता है, तो पुलिस अपना काम करती है। आरोपी किसी भी रिलिजन का हो उसे सजा देने के लिए कानून बनाए गए हैं। इसका निर्णय न्यायपालिका करती है।

रामगोपाल मिश्रा की पोस्टमार्टम रिपोर्ट बता रही है कि उन्हें छत पर भगवा लहराने की इतनी बर्बर सजा दी गयी, जितनी शायद कोई स्वजन की हत्या होने पर बदला लेने के दौरान भी न सोच सके।
उन्हें छत से खींचकर घर के आंगन में लाया गया। वहां पहले से उपस्थित अपराधियों हामिद और सलमान ने उसे गोली मारी, फिर घर के भीतर जमा भीड़ उन पर वहशियों की तरह टूट पड़ी। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, उन्हें करेंट दिया गया, नाखून उखाड़े गए, चेहरे और गले पर तेज धार हथियार से हमला किया गया।

इसका अगर मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जाए, तो कोई भी सामान्य व्यक्ति या समुदाय ऐसा नहीं करेगा। ऐसी हत्याएं आमतौर पर वहीं दिखाई देती हैं, जहॉं हत्यारों के मन में पहले से लबालब घृणा भरी हो। ऐसी परिस्थिति में हत्यारा सिर्फ हत्या नहीं करता बल्कि उस शरीर को जितना विकृत कर सकता है, वह करता है, क्योंकि ऐसा करने से शायद उसके अंदर धधक रही घृणा की आग शांत होती है।

फिर आमतौर पर ऐसी जघन्य वारदात किसी पुरानी दुश्मनी में ही दिखाई देती है। लेकिन रामगोपाल मिश्रा को तो वो जानते तक नहीं थे। एक नौजवान था, जो भीड़ से निकलकर उनकी छत पर जा चढ़ा था। फिर इतनी घृणा भरी हत्या क्यों की होगी हामिद, सलमान और उसके साथियों ने?

इसका अर्थ है, यह घृणा सार्वभौमिक है। यह घृणा व्यक्ति नहीं बल्कि समूची मानवता के विरुद्ध है। यही घृणा हमें पाकिस्तान में अक्सर दिखती है, जब भीड़ किसी के साथ इसलिए जघन्यता करती है क्योंकि उनके मस्तिष्क में भर दिया जाता है, उसने तुम्हारे मजहब की तौहीन कर दी है। इस मानसिकता के लोगों के अंदर घृणा की आग जलती ही रहती है। कोई रामगोपाल मिश्रा, अंकित शर्मा या फिर प्रियांथा तो इस आग की लपट की जद में आ जाते हैं। वरना उनके अंदर जल रही यह आग तो बुझने ही नहीं दी जाती। कभी जाकिर नाइक तो कभी सरवर चिश्ती जैसे लोग कभी केरोसिन तो कभी माचिस की तीली का काम करते हुए उसे जलाए रखते हैं।

सरवर चिश्ती तो वक्फ एक्ट में संशोधन की बात पर भी मुस्लिमों को भड़का चुके हैं या फिर अजमेर-92 फिल्म के समय, “लड़की चीज ही ऐसी है… बड़े से बड़ा फिसल जाता है” जैसे बयानों से अपनी सोच पहले भी दर्शा चुके हैं।

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