राष्ट्रीय पशु बने गाय
प्रमोद भार्गव
गो-हत्या के एक मामले की सुनवाई करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है कि गाय भारत की संस्कृति का अभिन्न अंग है, अतएव इसे राष्ट्रीय पशु घोषित किया जाना चाहिए। न्यायालय ने जावेद नामक व्यक्ति की जमानत याचिका खारिज करते हुए यह बात कहीं। जावेद पर उत्तर–प्रदेश गो–हत्या रोकथाम अधिनियम के अंतर्गत गाय काटने का आरोप था। न्यायाधीश शेखर कुमार यादव की एकल पीठ ने कहा कि ‘केंद्र सरकार को संसद में एक विधेयक लाना चाहिए, जिसमें गाय को मौलिक अधिकार दिए जाएं और उसे राष्ट्रीय पशु घोषित किया जाए। साथ ही उन लोगों को भी दंडित करने के लिए कानून बनाया जाए, जो गाय को नुकसान पहुंचाते हैं। ‘देश में गो–रक्षा को लेकर बहुत हिंसक उत्पात देखने में आ रहे हैं। रक्षा को लेकर गाहे–बगाहे भीड़–तंत्र खड़ा हो रहा है, जो हत्या तक कर रहा है। कुछ लोग कह रहे हैं, भीड़ द्वारा हत्याओं का सिलसिला तब बंद होगा, जब गोमांस का सेवन और निर्यात बंद हो। इन दुश्वारियों का हल और देश को सहिष्णु लोकतंत्र बनाए रखने का निदान संविधान की भावना और कानून के राज में तलाशने की दृष्टि से अदालत की टिप्पणी अहम् है।
इस समय देश में अनेक समस्याओं का निदान संविधान की भावना और कानून की कठोरता में देखा जा रहा है। बावजूद केंद्र सरकार हिंदू धार्मिकता के परिप्रेक्ष्य में पक्षपात का आरोप न लगे, इसलिए गोधन सरंक्षण कानून बनाने में शायद हिचक रही है। हालांकि भाजपा और संघ के एजेंडे में गोरक्षा हमेशा रही है। चुनांचे जब तक कानून अस्तित्व में नहीं आता है, तब तक इस समस्या का समाधान सांस्कृतिक समाजवाद और मनुष्यता से भी संभव है, इस विचार पर दृष्टि नहीं डाली जा रही है। जबकि डॉ. भीमराव अंबेडकर ने गाय आधारित कृषि अर्थव्यवस्था के महत्व को रेखांकित करते हुए संविधान के अनुच्छेद 48 में भारत सरकार को ‘गायों, बछड़ों और हरेक किस्म के दुधारू मवेशियों के सरंक्षण और संवर्धन के साथ–साथ उनके वध पर भी प्रतिबंध बनाने की पहल की थी।‘ साथ ही संविधान के अध्याय 4 में जो नीति–निर्देशक सिद्धांत सुनिश्चित किए गए हैं, उनके मूलभूत कर्तव्यों के अनुच्छेद–51-ए (जी) में सभी भारतीय नागरिकों से ‘वनों, झीलों, नदियों के साथ प्राकृतिक सपंदा का सरंक्षण करने और जीवित प्राणियों के प्रति दयालुता का भाव रखने की आशा जताई है।‘ किंतु क्रूरता की गतिविधियां और तथाकथित बुद्धिजीवियों के जो कथन आ रहे हैं, उनसे अभिव्यक्त होता है कि हमारी बौद्धिकता के क्षरण का प्रस्थान बिंदु विस्तृत हो रहा है। जबकि दयानंद सरस्वती, भीमराव अंबेडकर के अलावा मुंशी प्रेमचंद ने भी अपनी कहानी ‘मुक्तिधन‘ में गाय सरंक्षण की पैरवी की थी।
इसमें दो मत नहीं कि हिंदू संस्कारों में गो–पूजा धर्म का एक हिस्सा है। अतएव वह सनातन संस्कृति का अटूट हिस्सा है। गो–पूजा धर्म का भाग इसलिए भी है, क्योंकि गाय ही एक समय देश की जनसंख्या की शत–प्रतिशत आजीविका का प्रमुख साधन रही है। दूध देने के अलावा वह गाय ही है, जो खेती–किसानी के लिए सुघड़ बैलों को जन्मती है। गाय के महत्व को दयानंद सरस्वती ने समझा था, इसीलिए आर्य समाज के संस्थापक दयानंद ने गो–रक्षा आंदोलन चलाया। जिसका विस्तार उत्तर–भारत में भी हुआ। दयानंद ने ‘गोरक्षिणी‘ सभा का गठन किया और ‘गो–करुणानिधि‘ नाम से एक पर्चा भी निकाला। इसमें गाय के गुणों की प्रशंसा के साथ गोकशी के विरुद्ध अनेक दलीलें दर्ज थीं। दरअसल दयानंद जैसे समाज–सुधारक भली–भांति जानते थे कि एक बहुधार्मिक, बहुजातीय और बहुसांस्कृतिक समाज की अपनी जटिलताएं होती हैं। इसलिए गाय के सरंक्षण से जुड़ने के लिए दयानंद ने गो–रक्षिणी सभाओं का सदस्य बनने के लिए हर समुदाय और जाति को छूट दी थी। इससे प्रभावित होकर ही लाहौर से प्रकाशित होने वाले अखबार ‘आफताब–ए–पंजाब‘ 6 सितंबर 1886 को और सियालकोट के समाचार–पत्र ‘वशीर–उल–मुल्क‘ 12 अक्टूबर 1886 को गोकशी रोकने की अपील की थी। शायद इसी आंदोलन से प्रभावित होकर प्रेमचंद ने ‘मुक्तिधन‘ कहानी लिखी थी। इस कहानी के माध्यम से उन्होंने हिंदू–मुस्लिम एकता का संदेश देने के साथ परस्पर धर्म की रक्षा, सामुदायिक समरसता और आर्थिक विषमता की चौड़ी हुई खाई को भी पाटने का संदेश दिया है।
बीते कुछ महीनों में गुजरात, झारखंड, मध्य–प्रदेश, उत्तर–प्रदेश और कर्नाटक में गो–रक्षा के नाम पर गैर–कानूनी वीभत्स एवं अराजक घटनाएं घटी हैं। देश के अधिकांश राज्यों में गोहत्या अपराध है। गो–मांस की बिक्री पर भी प्रतिबंध है। लिहाजा गो–रक्षकों को कानून और संविधान के दायरे में रहने की जरूरत है। जबकि हो उल्टा रहा है। लोग कानून का उल्लघंन कर व्यवस्था को चुनौती दे रहे हैं। जबकि उनका दायित्व बनता है कि वे गाय से जुड़ी किसी भी गैर–कानूनी गतिविधि की सूचना पुलिस को दें और फिर कार्यवाही और न्याय होने दें। खुद न्याय व्यवस्था हाथ में लेकर न्याय करने का अधिकार गो–रक्षकों को कतई नहीं है। वैसे भी यदि समाज का व्यवहार बदलता है तो बिना किसी कानून के भी गो–हत्या बंद हो सकती है। आज हम गाय को मां मानते हैं तो किसी कानून के वशीभूत न होकर गाय की महिमा एवं उपयोगिता को ज्ञान परंपरा से जानते हुए मानते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी तथाकथित गोरक्षकों पर हमलावर होते हुए कहा था कि 80 प्रतिशत गोरक्षक धंधेबाज हैं। राज्य सरकारें इनकी कुंडली निकालें और सख्त कानूनी कार्यवाही करें। मोदी ने यह भी कहा था कि ज्यादातर गायें कत्लखानों में कत्ल से ज्यादा प्लास्टिक खाने से मरती हैं। इसीलिए मोहन भागवत ने भी गो–हत्या पर कानून बनाकर पाबंदी लगाने की मांग की थी।
गाय के संरक्षण से बढ़ेगा दूध का उत्पादन
गो हत्या पर रोक का कानून बनता है तो दूध का उत्पादन तो बढ़ेगा ही, जैविक खाद से खेती भी होने लग जाएगी। फिलहाल देश में दुग्ध उत्पादन में कमी अनुभव की जाने लगी है। जिसकी भरपाई नकली दूध से की जा रही है। जो नई–नई बीमारियां परोसने का काम कर रहा है। दूध की दुनिया में सबसे ज्यादा खपत भारत में है। देश के प्रत्येक नागरिक को औसतन 290 मिली दूध प्रतिदिन मिलता है। इस हिसाब से कुल खपत प्रतिदिन 45 करोड़ लीटर दूध की हो रही है। जबकि शुद्ध दूध का उत्पादन करीब 15 करोड़ लीटर ही है। मसलन दूध की कमी की पूर्ति सिंथेटिक दूध बनाकर, यूरिया और पानी मिलाकर की जा रही है। दूध की लगातार बढ़ रही मांग के करण मिलावटी दूध का कारोबार गांव–गांव फैलता जा रहा है। बहरहाल मिलावटी दूध के दुष्परिणाम जो भी हों, इस असली–नकली दूध का देश की अर्थव्यवस्था में योगदान एक लाख 16 हजार करोड़ रुपए है। दाल और चावल की खपत से कहीं ज्यादा दूध और उसके सह उत्पादों की मांग व खपत बढ़ी है। दूध की इस खपत के चलते दुनिया के देशों की निगाहें भी इस व्यापार को हड़पने में लगी हैं। दुनिया की सबसे बड़ी दूध का कारोबार करने वाली फ्रांस की कंपनी लैक्टेल है। इसने भारत की हैदराबाद की सबसे बड़ी ‘तिरुमाला दूध डेयरी‘ को 1750 करोड़ रूपए में खरीद लिया है। इसे चार किसानों ने मिलकर बनाया था। भारत की तेल कंपनी आॅइल इंडिया भी इसमें प्रवेश कर रही है। क्योंकि दूध का यह कारोबार 16 प्रतिशत की दर से हर साल बढ़ रहा है।
बिना किसी सरकारी सहायता के बूते देश में दूध का 70 प्रतिशत कारोबार असंगठित ढांचा संभाल रहा है। इस कारोबार में ज्यादातर लोग अशिक्षित हैं। लेकिन पारंपरिक ज्ञान से न केवल वे बड़ी मात्रा में दुग्ध उत्पादन में सफल हैं, बल्कि इसके सह उत्पाद दही, घी, मक्खन, पनीर, मावा आदि बनाने में भी मर्मज्ञ हैं। दूध का 30 प्रतिशत कारोबार संगठित ढांचा, मसलन डेयरियों के माध्यम से होता है। देश में दूध उत्पादन में 96 हजार सहकारी संस्थाएं जुड़ी है। 14 राज्यों की अपनी दूध सहकारी संस्थाएं हैं। देश में कुल कृषि खाद्य उत्पादों व दूध से जुड़ी प्रसंस्करण सुविधाएं मात्र दो प्रतिशत हैं, किंतु वह दूध ही है, जिसका सबसे ज्यादा प्रसंस्करण करके दही, घी, मक्खन, पनीर आदि बनाए जाते हैं। इस कारोबार की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इससे सात करोड़ से भी ज्यादा लोगों की अजीविका चल रही है।
चंद पूर्वग्रही, दुधारू मवेशियों की सुरक्षा को अल्पसंख्यक–बहुसंख्यक दृष्टि से देखते हुए मुस्लिम हित प्रभावित होने की बात को तूल देते हैं। आम धारणा है कि मांस के व्यापार में मुसलमान जुड़े हैं, जबकि यह धारणा निराधार है। देश के जो सबसे बड़े चार मांस निर्यातक हैं, वे हिंदू हैं। दुधारू पशुओं को पालने और दूध के व्यापार से ग्रामीण दलित और मुसलमान भी जुड़ा है। बकरियों के कारोबार में तो मुस्लिमों की बहुतायत है। इसके विपरीत हिंदुओं में खटीक समाज के लोग भी मांस का व्यापार करते हैं। तय है, गाय आजीविका और खेती का आज भी सबसे बड़ा संसाधन है। इसलिए इसे कानून बनाकर राष्ट्रीय पशु घोषित करना जनहित में है।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं)