हर भारतवासी की राष्ट्रीय पहचान हिन्दू है
जयराम शुक्ल
श्रीमद्भागवत् गीता, योग, वन्दे मातरम् या राष्ट्रीय स्वाभिमान से जुड़े इन्हीं जैसे अन्य विषयों की चर्चा छिड़ती है तो अपने भैय्याजी बेहद विचलित हो जाते हैं। कभी-कभी विचलन इस हद तक बढ़ जाता है कि वे पागलपन की हद तक पहुंचकर अक-बक बोलने लगते हैं।
उन्हें वंदे मातरम से परेशानी है, भारतमाता की जय बोलने में जीभ लटपटाने लगती है। दुनिया जिस योग को अपने जीवन में उतार रही है, उससे भी इन्हें परेशानी है। योग कोई धार्मिक संस्कार नहीं अपितु भौतिक अभ्यास है जो हमें सनातन से विरासत में मिला है। यही योग, योगा बनकर यूरोप और अमेरिका में छाया हुआ है।
महर्षि महेश योगी सहित कई संतों- महात्माओं व विद्वत्जनों ने इसके महात्म को वैज्ञानिक रूप से स्थापित किया। वहां कोई आपत्ति नहीं। योग की महत्ता को संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी समझा और बहुमत के साथ अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाना तय किया। यह भारत के लिए गौरव का विषय है कि उसकी सनातन संस्कृति से आज समूचा विश्व जुड़ गया है।
अपने कामरेड को इस पर आपत्ति है कि यह ध्यान बंटाने का प्रयास है, योग-फोग कुछ नहीं है। ऐसा वक्तव्य वही दे सकता है, जिसकी जड़ें हमारी सनातन संस्कृति से कटी हैं। भैय्याजी इसी प्रजाति के हैं। उनको भारतीय संस्कृति, परम्परा से क्या लेना देना! वे फुल आक्सफोर्डिए हैं, विलायत से डिग्रियां ली हैं। उन्हें प्राचीन भारत, आर्यावर्त, सतयुग, त्रेता, द्वापर के बारे में कुछ भी नहीं मालूम। इसलिए हम उम्मीद कर सकते हैं कि वे रामायण, महाभारत, भगवद् गीता जैसे ग्रंथों का नाम ही नहीं सुने होंगे। गीता, वन्दे मातरम् और योग की बात होती है तो लगता है कितने अधर्म की बात होती है। जैसे यह कोई पाप है। एक मुल्लाजी लोकसभा में वन्दे मातरम् गान पर खड़े नहीं हुए। दूसरे कह रहे हैं कि वे सूर्य के आगे झुकेंगे नहीं।
सूर्य तो सूर्य हैं नैसर्गिक व सृष्टिकर्ता, उनकी इसी अजस्त्र शक्ति को कई धर्मावलंबी पूजते हैं। सूर्य धर्म से ऊपर हैं।विज्ञान भी यही कहता है। ये ऊर्जा व शक्ति स्रोत हैं।
मुल्लाजी यदि सूर्य को नमस्कार न करें तो ये उनकी मर्जी। योग जैसे अद्भुत-अलौकिक, आध्यात्मिक अभ्यास से वे मरहूम रहें यह उनकी मर्जी। कोई अच्छाई ग्रहण नहीं करना चाहता तो उसे मजबूर क्यों करें। नहाना, स्वच्छ रहना, अपने परिवेश को साफ सुथरा रखना, योग-ध्यान करना यह धार्मिक नहीं अपितु जीवन के आचरण का विषय है। कोई मैले में ही रहना चाहता है। बिना नहाए धोए, गंधाते मुंह ही भोजन करना चाहता है तो करे। हाँ, उसके समक्ष अच्छा, श्रेष्ठ व्यक्ति बनने का विकल्प है।
हाँ, अब कोई देश से ऊपर अपने मजहब को रखे, गैर कानूनी और राष्ट्रद्रोही कृत्य करे तो उसकी जगह जेल ही है। देश धर्मशाला नहीं और न खैरातगाह है। देश अपने आप में कौम है। यही धर्म है। यही जीने और मरने का सबब भी। जो लोग राष्ट्र से बड़ा अपना मजहब या धर्म मानते हैं, उन्हें इस भारत भूमि में रहने का अधिकार नहीं।
हिन्दुस्तान मुगलों से पहले भी था और अंग्रेजों के भी। हिन्दुस्तान एक विशाल सांस्कृतिक राष्ट्र है। हिन्दू धर्म नहीं अपितु सृष्टि के अस्तित्व में आने के बाद से अविरल प्रवाहमान संस्कृति है। समयकाल और नई सभ्यताओं के साथ भले ही नाम बदलते रहे हों। इस सांस्कृतिक क्षेत्र में रहने वाला चाहे जिस मजहब, पंथ, सम्प्रदाय का मतावलंबी है, वह हिन्दू ही है। विश्व में उसकी पहचान हिन्दू के रूप में वैसी ही है, जैसे कि जर्मन, अमेरिकन, अंग्रेज, आस्ट्रेलियन की है. इकबाल ने भी इसी सत्य को स्वीकार किया और ..सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा… हिंदू/हिंदी हैं हम वतन हैं, हिंदोस्तां हमारा…. की रचना की।
धर्म उसका निजी मामला है। पर हर भारतवासी की राष्ट्रीय पहचान हिन्दू है, भारतीय है। गीता, योग, वेद पुराण, नदी, पर्वत, तालाब मन्दिर ये सब राष्ट्रीय अस्मिता के प्रतीक हैं। ये सिकन्दर, चंगेज़ खाँ, बाबर, अकबर के पहले भी थे। जिस रूप में वे तब थे, भारतीय जनमानस में आज भी हैं।
विदेशी संस्कृति का संक्रमण हमें स्वीकार नहीं। राष्ट्र के भीतर धर्म के नाम पर अलग-अलग कौमें अपनी अलग पहचान के साथ नहीं रह सकतीं। जैसे गंगा में छोटे बड़े नदी-नाले मिलकर गंगा बन जाते हैं, उनका अस्तित्व विलीन हो जाता है, उसी तरह हिन्दुस्तान की सांस्कृतिक गंगा में सभी विदेशी मजहब, पंथ, मत अपने आपको विलीन समझें। अलग से किसी का कोई अस्तित्व नहीं।
अस्तित्व है तो हिन्दुस्तान के रूप में एक सांस्कृतिक राष्ट्र का जो सनातन से अपनी शाश्वत पहचान के साथ चलता चला आ रहा है। इसलिए गीता, वन्दे मातरम् और योग से परहेज करने वाले खुद का आंकलन करें कि वे किस पक्ष में हैं, सनातन सांस्कृतिक राष्ट्र के या उससे अलग कुछ …..।