राहुल गांधी के सपनों का भारत
बलबीर पुंज
देश में 18वें लोकसभा चुनाव की गहमागहमी चरम पर है। कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सबसे मुखर आलोचक बनकर उभरे हैं। उन्हें प्रधानमंत्री मोदी का भारत पसंद नहीं है। परंतु राहुल को कैसा भारत चाहिए? इसका कुछ अनुमान कांग्रेस के घोषणापत्र और स्वयं उनके वक्तव्यों से मिल जाता है।
तेलंगाना में 6 अप्रैल को एक जनसभा को संबोधित करते हुए राहुल ने कहा, “…हम फाइनेंशियल और इंस्टीट्यूशनल सर्वे करेंगे। यह पता लगाएंगे कि हिंदुस्तान का धन किसके… कौन से वर्ग के हाथ में है… जो आपका हक बनता है, वो हम आपको देने का काम करेंगे।” यहां राहुल देश की समृद्धि बढ़ाने के स्थान पर उसके पुनर्वितरण की बात कह रहे हैं। यह नीति कोई नई नहीं है। वास्तव में, यह राहुल का मौलिक राजनीतिक-वैचारिक चिंतन भी नहीं है। यह उस उधार के दर्शन का प्रतिबिंब है, जिसे वर्ष 1969-71 में उनकी दादी और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने वामपंथियों से राजनीतिक समझौते के अंतर्गत आउटसोर्स किया था।
तब के भारत में भीषण भुखमरी और महंगाई के साथ टेलीफोन, सीमेंट, इस्पात, कार-स्कूटर से लेकर दूध-चीनी, तेल-अनाज आदि खाद्य वस्तुओं की घोर कालाबाजारी और उसके लिए लगने वाली लोगों की लंबी-लंबी पंक्तियां थीं। गरीबी हटाने और समानता लाने हेतु देश में 97.7 प्रतिशत तक आयकर था। इस मार्क्स-लेनिन-स्टालिन प्रेरित समाजवादी व्यवस्था (1947-91) से देश में कालाधन, भ्रष्टाचार, गरीबी और कपट कई गुना बढ़ गया। स्थिति इतनी विकट हो गई कि वर्ष 1991 में देश को अपनी देनदारियों को पूरा करने हेतु राष्ट्रीय स्वर्ण भंडार को विदेशी बैंकों में गिरवी रखना पड़ा था।
इस अभिशाप रूपी वाम-विचारधारा से तब भारत ही ग्रस्त नहीं था। चीन में माओ त्से-तुंग (1949-76) और कंबोडिया में पोल पॉट का शासनकाल (1975-79) भी इसी चिंतन का भयावह परिणाम देख चुका है। वहां भी सामाजिक-आर्थिक अन्याय को समाप्त करने हेतु निजी संपत्ति-स्वामित्व और धन-संपदा को समाप्त कर दिया गया था। इस प्रकार के कई अव्यवहारिक उपायों से न केवल मानवाधिकारों का भीषण हनन हुआ, अपितु करोड़ों लोगों की मौत तक हो गई। आज चीन जिस प्रकार चमक रहा है, वह इसलिए संभव हुआ है, क्योंकि चीनी सत्ता अधिष्ठान समय को भांपते हुए अपनी विशुद्ध वाम-नीतियों को दशकों पहले तिलांजलि दे चुका है। वर्तमान भारत भी वर्ष 1970-80 के दशक की वीभत्स स्थिति से बाहर निकलकर विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है और शीघ्र ही तीसरी आर्थिक महाशक्ति भी बनने वाला है।
कालबाह्य वामपंथी जुमले-नारे अब भारतीय जनमानस को आकर्षित नहीं करते। आज का युवा आकांक्षावान है। वह समृद्धि और आर्थिक विकास को गरियाना नहीं, अपितु अपनाना चाहता है। इस आमूलचूल परिवर्तन में नीतिगत सुधारों के साथ भारतीय उद्यम क्षमता की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका है, जिसे वर्ष 1990 के दशक तक पनपने नहीं दिया जा रहा था। 50 वर्ष पहले जिन अपशब्दों से वामपंथी-पश्चिमी समूह टाटा-बिरला औद्योगिक समूह को कलंकित करते थे, वही अब अंबानी-अदाणी समूह के लिए उपयोग होते हैं। दिलचस्प बात यह है कि राहुल भारतीय औद्योगिक घरानों को तो कोसते हैं, परंतु विदेशी कंपनियों के विरुद्ध वैसी मुखरता नहीं दिखाते। भीषण कोरोनाकाल में स्वदेशी कोविड टीके के बजाय विदेशी वैक्सीन पर राहुल का अधिक विश्वास— इसका एक प्रमाण है। इसका कारण क्या है? क्या राहुल औपनिवेशिक मानसिकता के शिकार हैं?
कई अवसरों पर राहुल भारत को ‘राष्ट्र के बजाय राज्यों का संघ’ बता चुके हैं। यह विचार उन्हीं विदेशी विचारधाराओं के अनुरूप है, जिसमें देश के मूल सनातन दर्शन, संस्कृति, पहचान और इतिहास के प्रति हीन-भावना और भारत को ‘राष्ट्र’ नहीं मानने का चिंतन है। जब राहुल के सहयोगी दल द्रमुक के शीर्ष नेताओं ने खुलकर ‘सनातन को मिटाने’ का आह्वान किया, तब राहुल न केवल चुप रहे, अपितु उनकी पार्टी के सांसद कार्ति चिदंबरम और कर्नाटक सरकार में मंत्री प्रियांक खड़गे— इसका समर्थन करते नजर आए। वर्ष 2005 में मीलों दूर काबुल जाकर राहुल को इस्लामी आक्रांता बाबर के मकबरे पर सज़दा करना स्वीकार है, परंतु भारत की मूल पहचान श्रीराम के जन्मभूमि मंदिर में दर्शन स्वीकार नहीं। उनके लिए बहुसंख्यक हिन्दू सांप्रदायिकता के पर्याय हैं, परंतु ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरित जिहादियों के विरुद्ध अक्सर मौन रहते हैं। क्यों?
राहुल के ‘जितनी जनसंख्या, उतना हक’ विचार में राष्ट्रीय पहचान ‘भारतीयता’ गौण, तो जाति प्रमुख है। दूसरे शब्दों में कहें, तो इसके धरातली क्रियान्वन से भारत का मूलाधार हिन्दू समाज फिर से जातियों में विभाजित हो जाएगा और उनमें वास्तविक-काल्पनिक आधार पर शत्रुभाव उत्पन्न होगा। क्या इस स्थिति में भारत में एकता बनी रह सकती है? वास्तव में, राहुल मार्क्स-मैकॉले मानसपुत्रों के अधूरे एजेंडे को जाने-अनजाने में आगे बढ़ा रहे हैं, जो अपने निहित स्वार्थ की पूर्ति हेतु अनादिकालीन भारत को फिर से क्षीण और कई टुकड़ों में देखना चाहते हैं।
राहुल के अनुसार, ‘यदि भाजपा जीती तो देश में आग लग जाएगी और संविधान बदल जाएगा’। अब राहुल स्वयं संविधान-लोकतंत्र का कितना सम्मान करते हैं, यह 2013 की घटना से स्पष्ट है, जिसमें उन्होंने अपनी ही मनमोहन सरकार द्वारा पारित अध्यादेश को फाड़कर फेंक दिया था। भारतीय संविधान में 100 से अधिक बार संशोधन हो चुके हैं, जिनमें अधिकांश कांग्रेस ने ही किए हैं।
सच तो यह है कि वर्तमान कांग्रेस में बौद्धिक नेतृत्व केवल राहुल तक सीमित है। वे उस ‘विशेषाधिकार की भावना’ से ग्रस्त हैं, जिसमें उनका मानना है कि केवल उन्हें ही कोई भी विचार रखने और अपने अनुकूल ‘लोक’ (जनमानस) और ‘तंत्र’ (मीडिया-न्यायालय सहित) चलाने का ‘दैवीय अधिकार’ है। आज तक राहुल ने आजीविका हेतु न ही कोई व्यापार किया और न ही कोई नौकरी। शून्य राजनीतिक अनुभव के बावजूद राहुल वर्ष 2004 में कांग्रेस की तत्कालीन सुरक्षित और खानदानी सीट अमेठी से पहली बार लोकसभा सांसद बने। अनुभवी नेताओं के रहते 2007 में पार्टी महासचिव, 2013 में पार्टी उपाध्यक्ष, तो 2017 में पार्टी अध्यक्ष तक चुन लिए गए। अब राहुल को वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विकल्प बनना, उनसे वैचारिक-राजनीतिक रूप से अलग दिखना और इसके बल पर चुनाव जीतना है। इस अंधदौड़ में राहुल जो वादे और विचार प्रस्तुत कर रहे हैं, उसमें भारत कैसा होगा?
यदि टाटा-बिरला-अंबानी-अडाणी जैसे उद्यमी नहीं होंगे, तो देश में उद्योग कौन चलाएगा? क्या विदेशी कंपनियों को पहले जैसे देश को लूटने अवसर दिया जाएगा? क्या राष्ट्रहित केंद्रित विदेश नीति फिर से विदेशियों द्वारा निर्धारित होगी? क्या देश में आतंकी हमलों और असुरक्षा का दौर फिर लौट आएगा, जैसे वर्ष 2004-14 के बीच था? क्या लोकलुभावन नीतियों के नाम पर विशुद्ध सरकारी नियंत्रण और लाइसेंस राज की वापसी होगी, जिसमें 1970-80 की भांति रोजमर्रा की वस्तुओं की भयंकर कमी के साथ कालाबाजारी, गरीबी, महंगाई, भुखमरी और भ्रष्टाचार चरम पर था? क्या भारत दुनिया की तीसरी बड़ी आर्थिक शक्ति बनने के स्थान पर 1991 की स्थिति में पहुंच जाएगा, जब देश की अर्थव्यवस्था लगभग ढह चुकी थी? क्या पाकिस्तान और श्रीलंका में बदहाली का कारण इसी प्रकार की राजनीति नहीं?
अगले पांच वर्षों में भारत का चित्र कैसा होगा?— क्या वह प्रधानमंत्री नरेंद्र के संकल्प के अनुरूप होगा, जिसमें देश को 2047 तक विकसित राष्ट्र के रूप स्थापित करने का लक्ष्य है या फिर वैसा— जिसका तानाबाना राहुल गांधी बुन रहे हैं? इसका उत्तर मतदाताओं के विवेक पर निर्भर है।
(स्तंभकार ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक के लेखक हैं)
कम्युनिस्ट धन के पुनर्वितरण पर बल देते है, उत्पादन, श्रम, मेहनत, प्रतियोगिता के आधार पर आगे बढ़ने का कोई चिंतन नही है। वरन वितरण का संघर्ष उतपन्न कर अराजकता लाना लक्ष्य है
इसी कारण रूस में उत्पादन इकाइयों में संगीनों की नोक पर काम करवाया गया।