रूस-यूक्रेन युद्ध : समरथ कहुं नहिं दोषु गोसाई…
बलबीर पुंज
रूस-यूक्रेन युद्ध का क्या निहितार्थ है? हजारों वर्षों की तथाकथित सभ्यताकालीन यात्रा के बाद धरातल पर मानव-सभ्यता वहीं की वहीं विद्यमान है, जहां पाषाण युग के समय हुआ करती थी। यदि परिस्थिति को शब्दजाल से मुक्त करके देखें, तो दुनिया पहले भी ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’ पर चलती थी और आज भी इसमें कोई परिवर्तन नहीं आया है। यह बात ठीक है कि लाठी का स्थान अब अत्याधुनिक हथियारों, मिसाइलों, तकनीक और परमाणु-बम ले चुके है, किंतु चिंतन अब भी वही है। ऐसे में लगभग 450 वर्ष पहले गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा लिखित “..समरथ को नहिं दोषु गोसाई…” पंक्ति की प्रासंगिकता और अधिक बढ़ जाती है।
जहां रूस दुनिया की एक बड़ी सामरिक-आर्थिक शक्ति है, तो यूक्रेन पूर्वी यूरोप का सबसे बड़ा देश, खनिजों से समृद्ध और विश्व में गेहूं के बड़े निर्यातकों में से एक है। स्पष्ट है कि रूस की तुलना में यूक्रेन एक ‘कमजोर’ और अमेरिका नियंत्रित नाटो सैन्य गठबंधन में शामिल होने या न होने का ‘स्वतंत्र निर्णय’ लेने में अक्षम राष्ट्र है। पुरानी कहावत है- ‘जिस पर पड़ती है, उसे ही भुगतना होता है’। यूक्रेन इसका मूर्त रूप है। रूसी सेना के प्रहारों को झेलने वाले यूक्रेन को भले ही अमेरिका और यूरोपीय आदि देशों से सहानुभूति मिल रही है और आयुध देने का भरोसा दिया जा रहा है, परंतु सच तो यही है कि यूक्रेन में रूसी सैन्यबल का सामना केवल उसके लोगों को करना पड़ रहा है और उनकी रक्षा हेतु वे देश युद्धभूमि से गायब हैं, जो किसी भी कीमत पर यूक्रेन को बचाने का दंभ भर रहे थे। स्पष्ट है कि हमें अपनी शक्तियों पर सर्वाधिक विश्वास करना चाहिए और दूसरों पर निर्भर रहने के बजाय स्वयं को सामरिक-आर्थिक रूप से सशक्त बनाना चाहिए।
इस स्थिति से स्वतंत्र भारत, कई बार दो-चार हुआ है। जब वर्ष 1949 में चीन ने तिब्बत को निगला, तब तत्कालीन भारतीय नेतृत्व तो मौन रहा ही, किंतु शेष दुनिया- विशेषकर स्वयंभू विश्वरक्षक भी इसे नहीं रोक पाए। वर्ष 1959 में तिब्बत पर विद्रोह को कुचलने और उस पर शत प्रतिशत कब्जा जमाने के बाद से आज तक साम्यवादी चीन अपने राजनीतिक-वैचारिक चिंतन के अनुरूप वहां बौद्ध भिक्षुओं का सांस्कृतिक संहार कर रहा है। यह ठीक है कि अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश यदा कदा चीन द्वारा तिब्बत में मानवाधिकार हनन का मौखिक विरोध करते है, किंतु क्या इन देशों ने धरातल पर उतर कर कोई कार्रवाई (प्रतिबंध सहित) की? शायद अब तक नहीं। क्यों?
जब चीन ने तिब्बत के बाद वर्ष 1962 में भारत पर हमला किया, तब अमेरिका आदि देशों ने संवेदना दिखाते हुए कहा तो बहुत कुछ, किंतु कुछ ठोस या निर्णायक नहीं किया। वर्ष 1971 में पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) में हिंदुओं-बौद्ध अनुयायियों का नरसंहार और उनकी हजारों-लाख महिलाओं से बलात्कार करने का सैन्य अभियान चलाने वाले पश्चिमी पाकिस्तान (वर्तमान पाकिस्तान) के समर्थन में जब अमेरिका ने अपनी नौसेना के विमान-वाहकपोत ‘एंटरप्राइज’ को बंगाल की खाड़ी में तैनात किया, तब वह पाकिस्तान को प्रचंड पराजय (93,000 सैनिकों के आत्मसमर्पण सहित) से नहीं बचा पाया था।
यूक्रेन का समर्थन करते हुए अमेरिका, कनाडा के साथ ब्रिटेन, जर्मनी जैसे कई यूरोपीय देशों और कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने रूस पर प्रतिबंध लगाए हैं। अब इनसे रूस कितना निर्बल होगा, यह तो आने वाला समय बताएगा। परंतु एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि रूस पर प्रतिबंध लगाने वाले कई देश रूसी तेल-गैस पर लगभग आश्रित हैं या फिर उनका रूस से अरबों डॉलर का व्यापारिक संबंध है। इन सबसे मुझे 1998 में भारत द्वारा किया गया सफल पोखरण-2 परमाणु परीक्षण का स्मरण आता है। तब भी भारत पर कई प्रतिबंध लगे थे। यह तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की दूरदर्शिता और राजनीतिक इच्छाशक्ति से परिपूर्ण वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति प्रतिबद्धता और समर्पण का परिणाम है कि पाकिस्तान-चीन अब हदें पार करने से पहले हजार बार सोचते हैं। कल्पना कीजिए, यदि 24 वर्ष पहले भारत परमाणु शक्ति नहीं बनता, तो पाकिस्तान-चीन जैसे शत्रुओं के बीच हमारी क्या स्थिति होती?
यह स्थापित सत्य है कि यूक्रेन कई महत्वपूर्ण अवसरों पर भारतीय हितों का विरोधी रहा है, जबकि रूस दशकों से हर कठिन परिस्थिति में भारत का साथ दे रहा है और आवश्यकता पड़ने पर अपनी वीटो शक्ति का उपयोग भी कर चुका है। अमेरिका से भारत के व्यापारिक संबंध हैं। हाल के वर्षों में दोनों देशों के रिश्तों में पहले से अधिक सुदृढ़ता और मजबूती आई है। निसंदेह, रूस-यूक्रेन के बीच युद्ध समाप्त होना चाहिए और विवाद का निपटारा संवाद से होना चाहिए। भारत का आधिकारिक पक्ष भी यही है। सच तो यह है कि रूस ने यूक्रेन पर सैन्य कार्रवाई अपनी ‘भावी आत्मरक्षा’ में की है। क्या यह सत्य नहीं कि यूक्रेन की नाटो गठबंधन से जुड़ने की हठ, रूस के सामरिक हितों के लिए बड़ा खतरा है?
वास्तव में, रूस की सैन्य कार्रवाई का अमेरिका और पश्चिमी देशों द्वारा विरोध ‘पाखंड’ है। जब अमेरिका ने स्वरक्षा में अफगानिस्तान-इराक आदि देशों पर अन्य सहयोगी देशों के साथ मिलकर हमला किया, तो उसे ‘मुक्ति-संघर्ष’ का नाम दिया गया, किंतु जब रूस ने अपने हितों की रक्षा में यूक्रेन पर हमला किया, तो उसे ‘आक्रामक’ कहा जा रहा है। यदि रूस ‘गलत’ है, तो फिर अमेरिका और उसके सहयोगी देश ‘सही’ कैसे थे? कटु सत्य तो यह है कि कई वैश्विक संकटों के लिए अमेरिका जैसे देशों की विरोधाभासी नीतियां प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं। इस्लामी आतंकवाद के खिलाफ बीते दो दशकों से चल रहा दिशाहीन अभियान- इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
रूस-यूक्रेन युद्ध का भारत पर क्या प्रभाव पड़ेगा? रूस, अमेरिका और सऊदी अरब के बाद दुनिया में कच्चे-तेल का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। रूस के यूक्रेन पर हमले के बाद इसकी अंतरराष्ट्रीय कीमत 95-100 डॉलर प्रति बैरल के बीच पहुंच गई है, जिससे आने वाले दिनों में भारत सहित दुनियाभर में पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ जाएंगी। पाकिस्तान-चीन जैसे परमाणु संपन्न, कुटिल और शत्रु देशों से घिरे भारत को हवाई हमलों से बचने हेतु रूस निर्मित आधुनिक अभेद्य महाकवच एस-400 ‘एयर डिफेंस मिसाइल सिस्टम’ की आवश्यकता है। रक्षा समझौते के अंतर्गत पांच में से इसकी एक ईकाई भारत पहुंच चुकी है और वह पंजाब में तैनात है। अमेरिका प्रारंभ से इस सौदे का विरोधी रहा है और रूस-यूक्रेन युद्ध ने उसे अधिक रोड़े अटकाने का अवसर दे दिया है। भारत के लिए सबसे असहज और चिंताजनक बात यह है कि उसका दशकों पुराना मित्र-राष्ट्र रूस, चीन-पाकिस्तान के निकट आ रहा है। आशा है कि बदलते सामरिक समीकरणों के बीच और विश्व में बढ़ते प्रभाव से भारत इन में से किसी को हावी नहीं होने देगा।
यक्ष प्रश्न है कि क्या यूक्रेन, शक्तिशाली पड़ोसी रूस के आगे घुटने टेक देगा? शायद नहीं। सोवियत संघ और अमेरिका- दोनों ने ही अलग-अलग समय अपने सैन्यबल के दम पर अफगानिस्तान को नियंत्रित करने का असफल प्रयास किया है। अमेरिका अपने से कहीं अधिक कमजोर वियतनाम को निर्णायक रूप से पराजित नहीं कर पाया। यदि यूक्रेन की जनता ने राष्ट्रवाद से ओतप्रोत होकर और हथियार उठाकर रूस के खिलाफ अंत तक मोर्चा संभाला, तो वह कभी न कभी रूस के वज्रपात से अवश्य मुक्त होगा।