अंग्रेजों ने भारत को जी भरकर लूटा
नेताजी जयंती / पराक्रम दिवस विशेष
प्रशांत पोळ
ईस्ट इंडिया कंपनी
24 सितंबर 1599 को शुक्रवार था। इस दिन, लंदन के फाउंडर्स हॉल में, इंग्लैंड के 80 व्यापारी इकट्ठा हुए थे। 1599 का इंग्लैंड, यह शेक्सपिअर का इंग्लैंड था। ‘एज यू लाइक इट’ और ‘हेम्लेट’ के कारण पूरे इंग्लैंड में शेक्सपिअर का नाम चर्चा में था। नाट्य, नृत्य, संगीत के वे दिन थे। किंतु इस वातावरण में भी इन व्यापारियों में से अनेक, समुद्रपार व्यापार करने का साहस और रुचि रखते थे। इस बैठक की अध्यक्षता कर रहे थे लंदन के तत्कालीन ‘लॉर्ड मेयर’ अर्थात महापौर, सर निकोलस मूसली ! इन व्यापारियों ने भारत की समृद्धि के अनेक किस्से सुन रखे थे। भारत से व्यापार कर के यूरोप के अनेक देश कैसे तरक्की कर रहे हैं, यह भी उनको दिख रहा था। स्वाभाविकत: इन सब की भारत के साथ व्यापार करने की इच्छा थी।
इस बैठक में शामिल उन 80 व्यापारियों को यह यत्किंचित भी आभास नहीं था कि उनकी इस बैठक से, भविष्य में भारतीय उपमहाद्वीप का इतिहास और भूगोल दोनों बदलने जा रहा है।
इन व्यापारियों ने इस बैठक में तय किया, कि इंग्लैंड की रानी एलिजाबेथ (प्रथम) के पास वे अपनी कंपनी प्रारंभ करने की अर्जी देंगे। इस कंपनी का नाम रहेगा- लंदन की ईस्ट इंडिया कंपनी।
क्वीन एलिजाबेथ (प्रथम) ने इस अर्जी पर निर्णय लेने में लगभग 15 महीने लगाए और सन 1600 के अंतिम दिवस, अर्थात 31 दिसंबर को रानी ने कंपनी को मान्यता दी। साथ ही 15 वर्ष के लिये पूर्व की दिशा में व्यापार करने का एकाधिकार भी इस कंपनी को दिया। उन दिनों, रानी की भाषा में पूर्व का अर्थ होता था, केप ऑफ गुड होप से आगे का क्षेत्र। अर्थात अफ्रीका से पूरब की ओर का सारा क्षेत्र। जब इस कंपनी को चार्टर मिला, तब इसमें 218 लोग शेयर होल्डर थे। कंपनी का पंजीकृत नाम था- ‘Governor and Company of Merchants of London, Trading into the East Indies.’ हालांकि कंपनी का प्रचलित नाम हुआ ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’।
आगे चलकर सन् 1694 में 5 सितंबर को एक और ईस्ट इंडिया कंपनी बनी, जिसका पंजीकृत नाम था ‘The English Company, Trading to the East Indies’। इसे इंग्लिश ईस्ट इंडिया कंपनी कहा गया। मात्र 10 वर्षों में यह दोनों कंपनियां मर्ज हुईं और 29 सितंबर 1805 को दोनों को मिलाकर एक नई कंपनी बनी- ‘The United Company of Merchants of England, Trading to the East-Indies’ ये सारे कागजों के खेल थे। ये नई कंपनी भी ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ कहलाई।
इस कंपनी में एक गवर्नर और 24 लोगों की कमेटी रहती थी, जो कंपनी की सारी गतिविधियां देखती थी। क्रिस होल्टे अपने ब्लॉग में लिखते हैं, “ईस्ट इंडिया कंपनी यह आज के कॉर्पोरेट्स के लिये मॉडल कंपनी थी। यह असाधारण सच था, क्योंकि इस कंपनी के पास अपनी फौज थी, यह अपने बूते पर विदेशी संबंध बनाती थी, इसने खुद अपनी लड़ाइयां भी लड़ीं। लड़ाइयां जीतने के लिये और जमीन की चौथ वसूलने के लिये घूस दी…ऐसा सब इसने किया। नीति, नियम तो इसके कोष्ठक में थे ही नहीं।” लगभग 100 वर्षों के इसके इतिहास में इसके मुख्यालय में मात्र 35 स्थायी कर्मचारी थे।
कपड़ा, मसाले आदि वस्तुओं के व्यापार के लिये बनी यह कंपनी, बाद में व्यापार के साथ बहुत कुछ करने लगी। कंपनी की अधिकृत स्थापना हुई थी, 31 दिसंबर 1600 को। इसके 8 वर्ष बाद अर्थात, गुरुवार 24 अगस्त सन् 1608 को ईस्ट इंडिया कंपनी का पहला जहाज, सूरत के किनारे पर लगा। इस जहाज का कप्तान था विलियम हॉकिन्स। उन दिनों सूरत पर मुगलों का राज था और दिल्ली में मुगल बादशाह जहाँगीर बैठा था। किंतु ईस्ट इंडिया कंपनी ने मुगल बादशाह से अधिकारिक भेंट की सन् 1612 में। इसके पहले 1611 में कंपनी ने अपना पहला कारखाना लगाया, भारत के पूर्व तट पर, आंध्र प्रदेश के मछलीपटनम में और अगले ही वर्ष 1612 के पश्चिमी किनारे पर, सूरत में कंपनी ने दूसरा कारखाना खोला।
इसी वर्ष 1612 में थॉमस रो ने दिल्ली में मुगल बादशाह जहाँगीर से भेंट की और बादशाह से, ‘जहां जहां मुगल सत्ता है, वहां वहां कंपनी को कारखाने लगाने की अनुमती तथा व्यापार करने का एकाधिकार’ मांगा। बदले में ईस्ट इंडिया कंपनी, बादशाह को यूरोप की विशेष वस्तुएं बेचेगी, ऐसा प्रस्ताव दिया। जहाँगीर बादशाह ने लगभग तीन वर्ष के पश्चात इस प्रस्ताव को स्वीकार किया।
ब्रिटेन की रानी एलिजाबेथ ने कंपनी को 15 वर्ष तक पूर्व के देशों में व्यापार करने का एकाधिकार दिया था। 1609 में कंपनी के प्रमुख ‘जेम्स द वन’ ने, रानी से बात कर के कंपनी को अनिश्चित काल तक व्यापार करने का चार्टर (लाइसेंस) दिलाया।
भारत में अंग्रेजों की प्रमुख स्पर्धा पोर्तुगीज व्यापारियों से थी। बाद में फ्रेंच और डच भी इस स्पर्धा में शामिल हुए। पोर्तुगीज लगभग सौ वर्षों से भारत के साथ व्यापार कर रहे थे। भारत के पश्चिमी तट पर उन्होंने अपना स्थान बनाया था। गोवा उनके कब्जे में था और नीचे कालीकट से लेकर दमन दीव तक उन्होंने व्यापार का एक तंत्र बनाया था। अंग्रेज तुलना में नये थे। इसलिये उन्होंने पश्चिमी तट के साथ, भारत के पूर्व तट पर अपने व्यापारी ठिकाने बनाए। कलकत्ता में व्यापारी केंद्र खोला और इसी बंगाल से सत्ता का रास्ता भी बनाया।
आगे जब 1661 में पोर्तुगल के राजा की लड़की, कॅथरीन ब्रिगेंजा का विवाह इंग्लैंड के राजपुत्र चार्ल्स (द्वितीय) के साथ हुआ, तो भारत के अंग्रेजों को, अर्थात ईस्ट इंडिया कंपनी को, पोर्तुगीजों की सत्ता वाला मुंबई (तत्कालीन बाँबे) द्वीप दहेज में मिला। कंपनी ने 1665 तक मुंबई को, एक बडे व्यापारी केंद्र के रूप में प्रस्थापित किया।
कंपनी के अफसर, मुगल बादशाह जहाँगीर को खुश रखने का हर प्रयास कर रहे थे। अंग्रेजों का, जहाँगीर के दरबार में तैनात राजदूत थॉमस रो ने इस बारे में बहुत कुछ लिख रखा है। ये अंग्रेज बादशाह जहाँगीर को और उसके कुछ सरदारों को विलायती लडकियां भेंट करते थे। 1617 में भारत आए हुए, कंपनी के ‘एने’ जहाज से तीन महिलाएं भी भारत पहुंचीं। ये तीनों कंपनी के बनाए हुए कानून को तोड़कर भारत पहुंची थीं। ये थीं – मरियम बेगम, फ्रांसेस स्टील और श्रीमती हडसन। इनमें से फ्रांसेस स्टील यह ब्रिटिश जहाज पर प्रवास के समय में ही गर्भवती थी। उसी जहाज से चलने वाले रिचर्ड स्टील से उसने गुप्त रूप से विवाह किया था। उसका बच्चा भारत की भूमि पर पैदा होने वाला दूसरा अंग्रेज था। ये फ्रांसेस स्टील, दो वर्ष तक जहाँगीर बादशाह के अंत:पुर में रही। शायद यह मरियम बेगम से उसकी नजदीकी के कारण हुआ होगा। मरियम बेगम यह आर्मेनियन ईसाई थी और वह भी जहाँगीर के अंत:पुर में उसकी रखैल बनकर रही थी। यह सिलसिला आगे भी चलता रहा।
इन सब से खुश होकर, जहांगीर के बाद दिल्ली की गद्दी पर बैठे शाहजहाँ बादशाह ने 1634 में अंग्रेज व्यापारियों को, बंगाल प्रांत में मुक्त व्यापार करने की अनुमति दी। आगे चलकर सन् 1716 में, तत्कालीन मुगल बादशाह फर्रुख सियार ने अंग्रेजों के व्यापार से सारे कर हटा लिये। इसके एवज में उसको अंग्रेजों ने दिये, मात्र 3000 रुपये! इस करमुक्त व्यापार का अंग्रेजों को बहुत लाभ हुआ और ठीक चालीस वर्ष के अंदर, अर्थात 1757 में प्लासी की लड़ाई जीतकर उन्होंने बंगाल पर कब्जा कर लिया। अर्थात व्यापार और व्यापार के माध्यम से जमीनी सत्ता हथियाने के लिये अंग्रेजों ने छल, कपट, व्यभिचार, भ्रष्टाचार, लड़ाई… सारे रास्ते अपनाए।
भारत की लूट….
भारत से संबंध आने के बाद, अंग्रेजों के शब्दकोष में हिंदी व अन्य भारतीय शब्द प्रवेश करने लगे। अब तो ‘जुगाड़’, ‘दादागिरी’, ‘ सूर्य नमस्कार’, ‘अच्छा’, ‘चड्डी’ आदि शब्द भी ऑक्सफोर्ड अंग्रेजी शब्दकोष में अपना स्थान बनाए हुए हैं। किंतु इस ऑक्सफोर्ड अंग्रेजी शब्दकोष में शामिल होने वाला पहला हिंदी शब्द कौन सा था?
वह शब्द था… ‘लूट…!’
विलियम डार्लिंपल (William Darlymple) ने ईस्ट इंडिया कंपनी पर एक विस्तृत पुस्तक लिखी है ‘The East India Company : The Original Corporate Riders’ इस पुस्तक में वे लिखते हैं –
_“One of the very first Indian words to enter the English language was the Hindustani slang for plunder: “loot”. According to the Oxford English Dictionary, this word was rarely heard outside the plains of north India until the late 18th century, when it suddenly became a common term across Britain.”_
ऐसा कहते हैं कि ईस्ट इंडिया कंपनी पर इंग्लैंड की संसद का नियंत्रण था। यदि यह सच है, तो ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत को जो जी भरकर लूटा है, उसमें इंग्लैंड की संसद अर्थात ब्रिटिश शासन भागीदार था।
क्रिस व्होल्टे लिखते हैं, _“The East India Company would have a tradition of smuggling, piracy, trafficking, all kinds of fraud, privatizing government functions, private militaries and looting. All enabled by that first charter.”_
(In his blog ‘Holte’s Thoughts’ on Sunday, August 6, 2017)
क्रिस होल्ट आगे लिखते हैं, _The reality of East India Company, was that it was basically an organization of pirates, privateers in that everything they did was ‘legal’, at least from the point of view of the British Crown._
अंग्रेज कितने लुटेरे थे, ये उन्होंने भारत के एक हिस्से, बंगाल पर हुकूमत कायम करते ही साथ दिखा दिया। 1757 में प्लासी के युद्ध में बंगाल के नवाब को परास्त करने के बाद अंग्रेजों ने कोई विवेक नहीं दिखाया, और न ही ‘सोफेस्टिकेशन’। उन्होंने तो ठेठ लुटेरों के जैसे, बंगाल के पूरे खजाने को 100 जहाजों में भरा और गंगा में, नवाब महल से, कलकत्ता के उनके मुख्यालय, ‘फोर्ट विलियम’ में पहुंचाया।
उन दिनों बंगाल देश का संपन्न प्रांत था. बंगाल का खजाना अत्यंत समृद्ध था। ऐसे भरे पूरे खजाने का अंग्रेजों ने क्या किया?
इसका अधिकतम हिस्सा इंग्लैंड पहुंचाया गया, और उन्हीं पैसों के एक बडे हिस्से से, इंग्लैंड के वेल्स प्रांत में स्थित पोविस के किले का जीर्णोद्धार किया गया। इस किले का मालिकाना हक, बाद में रोबर्ट क्लाईव के परिवार के पास आया।
बंगाल की इस लूट के बाद भी, सत्ता में होने के कारण अंग्रेज, बंगाल को निचोड़ते रहे, और ज्यादा लूटते रहे। किंतु कुछ ही वर्षों बाद जब बंगाल में महाभयानक सूखा पड़ा, तब इन अंग्रेज शासकों ने क्या किया?
कुछ नहीं ! कुछ भी नहीं..!!
1769 से 1771 यह तीन वर्ष भयानक सूखे के रहे। लेकिन आज लोकतंत्र का दंभ भरने वाले अंग्रेजों ने क्या किया? लूटे हुए खजाने का एक छोटा हिस्सा भी सूखाग्रस्तों को दिया?
उत्तर नकारात्मक है।
इस महाभयानक सूखे में लगभग एक करोड़ लोगों की जानें गईं अर्थात एक तिहाई जनसंख्या मारी गई। लेकिन कंपनी, बंगाल का सारा राजस्व इंग्लैंड भेजती रही, और बंगाल में लोग मरते रहे। क्रिस होल्टे लिखते हैं, _“The East India Company was devoted to organized theft. Bengal’s wealth rapidly drained into Britain.”_
बंगाल में सूखे के कारण हुई मौतें यह प्राकृतिक आपदा नहीं थी, यह था नरसंहार !
अमेरिका के UCLA कॉलेज के Social Sciences के वेब पेज पर लिखा है,
_“Years of its administration were calamitous for the people of Bengal. The Company’s servants were largely a rapacious and self-aggrandizing lot, and the plunder of Bengal left the formerly rich province in a state of utter destitution. The famine of 1769-70, which the Company’s policies did nothing to alleviate, may have taken the lives of as many as a third of the population.” In other words, genocidal”_
मेथ्यु व्हाइट यह प्रख्यात अमेरिकन इतिहासकार हैं। वर्ष 2011 में उन्होंने एक पुस्तक लिखी, जिसकी चर्चा सारे विश्व में हो रही है। पुस्तक है – The Great Big Book of Horrible Things. इस पुस्तक में उन्होंने विश्व की 100 सबसे ज्यादा क्रूरतापूर्ण घटनाओं का वर्णन किया है। इस सूची में चौथे क्रमांक पर है- अंग्रेजों की हुकूमत में भारत में पड़ा अकाल..! इस विपदा में, मेथ्यु व्हाइट के अनुसार 2 करोड़ 66 लाख भारतियों की मृत्यु हुई थी। इसमें द्वितीय विश्व युद्ध के समय बंगाल के अकाल में मृत 30 से 50 लाख भारतीयों की गिनती नहीं है। अर्थात भारत में अंग्रेजी सत्ता के रहते 3 करोड़ से ज्यादा भारतीयों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था।
नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने भी वर्ष 1769 के अकाल में मरने वालों की संख्या 1 करोड़ से ऊपर बताई है। बंगाल उन दिनों अत्यंत उपजाऊ और समृध्द प्रदेश माना जाता था। ऐसे बंगाल में इतनी ज्यादा संख्या में लोक भुखमरी से मारे गए, यह समझ से बाहर है।
अकाल यह तो प्राकृतिक आपदा थी। इसमे भला अंग्रेजी हुकूमत का क्या कसूर.? ऐसा प्रश्न सामने आना स्वाभाविक है। किन्तु इस संदर्भ में प्रख्यात इतिहासकार एवं तत्ववेत्ता विल ड्यूरांट लिखते हैं –
भारत में 1769 में आए महाभयंकर अकाल की जड़ में निर्दयता से किया गया शोषण, संसाधनों का असंतुलन और अकाल के समय में भी अत्यंत क्रूरता से वसूल किए गए महंगे कर थे। अकाल के कारण हो रही भुखमरी से तड़पते किसान कर भरने की स्थिति में नहीं थे। किन्तु ऐसे मरणासन्न किसानों से भी अंग्रेज़ अधिकारियों ने अत्यंत बर्बरतापूर्वक कर वसूली की।
जिस भ्रष्टाचार के द्वारा अंग्रेजों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से भारत में सत्ता हथियाई, उसी भ्रष्टाचार की घुन, कंपनी को बडी संख्या में लगी थी। कुछ अनुपात में तो, प्रारंभ से ही कंपनी ने अपने कर्मचारियों को व्यक्तिगत कमाने की छूट दे रखी थी अन्यथा इतने साहसी, कठिन और अनिश्चित अभियान पर कर्मचारी मिलने में कंपनी को कठनाई हो रही थी।
राबर्ट क्लाईव ने सारे छल कपट का प्रयोग कर के बंगाल की सत्ता हथियाई थी। उसके बाद अंग्रेजों ने बंगाल को जी भर के लूटा। इस लूट का एक बडा हिस्सा रॉबर्ट क्लाईव के पास गया। वो जब ब्रिटेन वापस गया, तब उसकी व्यक्तिगत संपत्ति की कीमत आंकी गई थी – 2,34,000 पाउंड। तत्कालीन यूरोप का वह सबसे अमीर व्यक्ति बन गया था। प्लासी की लड़ाई में जीतने के बाद, बंगाल के नवाब का जो खजाना, कंपनी के पास पहुंचा, उसकी कीमत आंकी गई थी, 25 लाख पाउंड।
अर्थात आज के दर से निकालें तो प्लासी की लड़ाई के बाद कंपनी को मिले थे 25 करोड पाउंड और रॉबर्ट क्लाईव को मिले थे 2.3 करोड पाउंड !
स्टर्लिंग मीडिया के चेयरमन एवं प्रख्यात पत्रकार मेहनाज मर्चंट ने इस संदर्भ काफी खोजबीन कर के लिखा है जो देश के अधिकतम बुद्धिजावियों को स्वीकार्य है। मर्चंट लिखते हैं, _“1757 से 1947 इन 190 वर्षों में अंग्रेजों ने भारत की जो लूट की है, वह 2015 के विदेशी मुद्रा विनिमय के आधार पर 3 लाख करोड़ डॉलर होती है। इसकी तुलना में 1738 में नादिरशाह ने दिल्ली लूटी थी, उसकी कीमत, 14,300 करोड़ डॉलर छोटी लगने लगती है।
अंग्रेजों की इस लूट में, उन्होंने भारतीय सैनिकों का उपयोग, पूरी दुनिया में अलग अलग लोगों से लड़ने में किया, उसका समावेश नहीं है। ब्रिटिश हुकूमत ने, पूरे विश्व पर अपना दबदबा कायम करने के लिए भारतीय सैनिकों को दुनिया के कोने कोने में लड़ने के लिए भेजा। यह सूची लंबी चौड़ी है। चीन में 1860 और 1900 – 1901, इथिओपिया में 1867 – 68, मलाया में 1875, माल्टा में 1878, इजिप्ट में 1882, सूडान में 1885 और 1896, ब्रह्मदेश (म्यानमार) में 1885, पूर्व अफ्रीका में 1896, 1897 और 1898; सोमालीलैंड में 1890 और 1903 – 04, तिब्बत में 1903. इन युद्धों के अलावा प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध में लाखों भारतीय जवान, अंग्रेजों की सेना से लड़े। किसी भी प्रकार के कठिन युद्ध में, अंग्रेज़ अफसर, भारतीय सैनिकों को ही भेजते थे। इथिओपिया के अबिसिनीया में कैद अंग्रेजों को छुड़ाने के लिए 1200 भारतीय सैनिक भेजे गए थे। इजिप्ट के विद्रोह को कुचलने के लिए 9444 सैनिक भेजे गए। ब्रह्मदेश के युद्ध में भेजे गए सात में से छह भारतीय सैनिक युद्ध में या बीमारी से मारे गए। ऐसे लगभग सभी युद्धों में भारतीय सैनिकों की असीम हानि हुई।
उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में अंग्रेजों के पास 3 लाख 25 हजार की खड़ी फौज थी। इन में से दो तिहाई सैनिकों को भारत के कर दाताओं के पैसों से ही वेतन और अन्य सुविधाएं दी जाती थीं। भारत में तैनात अंग्रेज़ सैनिकों को वेतन तो भारत से मिलता ही था, साथ ही सेवानिवृत्ति के पश्चात का सारा खर्चा भी भारत से ही किया जाता था और फिर ये सब करते हुए, भारतीय सैनिक और अंग्रेज़ सैनिकों में बहुत ज्यादा असमानता रहती थी। उनके वेतन में, पदोन्नति में, सुख-सुविधाओं में, राशन-पानी में खूब अंतर रहता था। कितना भी शौर्य दिखाया, तो भी भारतीय सैनिक कभी भी अंग्रेज़ सैनिक की बराबरी नहीं कर सकता था।
भारत छोड़ते समय अंग्रेजों के सेना प्रमुख थे, जनरल आचीनलेक। उन्होंने प्रकट रूप से कहा है, कि प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में यदि हमारे साथ भारतीय सैनिक नहीं होते, तो हमें जीतना संभव नहीं था।
संक्षेप में, अंग्रेज़ अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में विश्व के पटल पर महाशक्ति थे, तो भारतियों की बदौलत। किन्तु अंग्रेजों ने हमें क्या दिया…? जब अंग्रेज़ भारत आए, तो वर्ष 1700 में, विश्व व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 25% से ज्यादा, अर्थात एक चौथाई थी। उस समय इंग्लैंड का वैश्विक व्यापार में हिस्सा था, मात्र 2%। 170 में इंग्लैंड का कुल आर्थिक उत्पादन मात्र 200 मिलियन पाउंड से भी कम था। किन्तु भारत छोड़ने के बाद, वर्ष 1950 में कुल आर्थिक उत्पादन हो जाता है 200 बिलियन पाउंड्स से भी ऊपर..! अर्थात भारत को उपनिवेश बनाकर, इंग्लैंड ने, मात्र 250 वर्षों में अपना कुल आर्थिक उत्पादन एक हजार गुना से भी ज्यादा बढ़ाया ! और भारत की स्थिति क्या थी? वर्ष 1950 में, विश्व व्यापार में भारत की हिस्सेदारी रह गई थी 3% से भी कम।
अंग्रेज़ों ने हमें खूब लूटा। जी भर के लूटा और ऊपर से तुर्रा ये, कि हम तो भारत की भलाई कर रहे थे।
_(आगामी ‘विनाशपर्व’ इस पुस्तक के अंश)_
#पराक्रम_दिवस; #स्वराज्य75; #स्वराज्य@75; #Parakram_Divas; #Swarajya75
References –
1. Between Monopoly and Free Trade : The English East India Company. – Emily Erikson
2. The East India Company : The World’s Most Powerful Corporation – Tirthankar Roy
3. Landmarks in the Constitutional History of India – Atul Chandra Patra
4. The Anarchy – William Darlymple
5. Pirates, Loot and the East India Company – Holte’s Thoughts (His blog on August 6th, 2017)
6. The East India Company : The Original Corporate Riders – William Darlymple
7. The Great Big Book of Horrible Things – Matthew White
8. An Era of Darkness : The British Empire in India – Shashi Tharoor