क्या भारत विरोधी प्रलाप अब थम जाएगा?
बलबीर पुंज
क्या भारत विरोधी प्रलाप अब थम जाएगा?
अठारहवीं लोकसभा चुनाव के परिणाम अपने अंदर कई संदेशों को समेटे हुए हैं। पहला— पिछले कुछ वर्षों से विरोधी दल, विदेशी शक्ति और मीडिया के एक भाग द्वारा नैरेटिव गढ़ा जा रहा था कि देश की लोकतांत्रिक-संवैधानिक संस्था प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘जेब’ में है— अर्थात् प्रजातंत्र समाप्त हो चुका है। ईवीएम और चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर प्रश्नचिन्ह लगाकर देश को कलंकित किया जा रहा था। चुनाव परिणाम ने न केवल इस प्रकार के मिथकों को तोड़ दिया, बल्कि इसने भारत के जीवंत, विविधतापूर्ण, पंथनिरपेक्षी और स्वस्थ लोकतांत्रिक छवि को पुनर्स्थापित किया है। क्या प्रधानमंत्री मोदी का अंध-विरोध करने वाला वाम-जिहादी-सेकुलर समूह अपने इस वाहियात प्रलाप के लिए देश से क्षमा मांगेगा?
दूसरा— प्रधानमंत्री मोदी ने इतिहास रचते हुए स्वतंत्र भारत में 1962 के बाद लगातार तीसरी बार सरकार बनाने का जनमत प्राप्त किया है। वर्ष 2014 से सत्ता में रहने के बाद भी भाजपा अपने बलबूते सर्वाधिक 36.5 प्रतिशत मतों के साथ 240 सीटें, तो उसके नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) 293 सीट लाने में सफल हुई है। पूरी शक्ति झोंकने के बाद भी कांग्रेस नीत विरोधी गठबंधन आई.एन.डी.आई.ए., भाजपा के कुल योग को छू भी नहीं पाया है। कांग्रेस को 99, तो उसके गठजोड़ को 234 सीटें मिली हैं।
पिछले लोकसभा चुनाव (2019) की तुलना में भाजपा को इस बार 0.8 प्रतिशत मतों का नुकसान हुआ है। इससे देश में उसकी 63 सीटें घट गईं और वह अपने दम पर तीसरी बार लगातार बहुमत का आंकड़ा छूने से पिछड़ गई। भाजपा को जिन चार प्रदेशों में सर्वाधिक क्षति पहुंची, उनमें संख्या की दृष्टि से उत्तरप्रदेश सबसे ऊपर है। यहां की 80 लोकसभा सीटों में भाजपा इस बार 41 प्रतिशत मतों के साथ 33 सीटों पर विजयी हुई है, यानि पिछले चुनाव की तुलना में 29 सीटें कम हैं। इसका सीधा लाभ समाजवादी पार्टी-कांग्रेस नीत विरोधी गठबंधन को मिला है।
तीसरा— अपने बल पर बहुमत के आंकड़े से चूकने के बाद भाजपा इस बार तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) और जनता दल-यू (जेडीयू) सहित लगभग 30 सहयोगियों पर निर्भर होकर सरकार चलाएगी। आंध्रप्रदेश में भाजपा और जन सेना पार्टी से गठबंधन करने के बाद टीडीपी ने दमदार प्रदर्शन करते हुए राज्य की 175 सदस्यीय विधानसभा में अकेले दो तिहाई से अधिक अर्थात् 135 सीटें जीतकर जबरदस्त वापसी की है। प्रदेश की 25 लोकसभा सीटों में से 16 पर विजयी होकर टीडीपी ने स्वयं को राष्ट्रीय राजनीति में पुनर्स्थापित भी किया है।
चौथा— टीडीपी के अतिरिक्त बिहार में एनडीए सहयोगी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जेडीयू ने भी भाजपा के साथ मिलकर शानदार प्रदर्शन किया है। इससे साबित होता है कि बिहार की राजनीति में नीतीश अब भी लोकप्रिय हैं। राजग गठबंधन के अंतर्गत भाजपा ने 17 में से 12, जेडीयू ने 16 में से 12 और चिराग पासवान की पार्टी ने अपनी सभी 5 सीटों पर जीत हासिल की है। कांग्रेस-आरजेडी सहित विरोधी गठजोड़ जबरदस्त प्रचार के बाद भी 10 सीटें ही जीत पाया है।
पांचवां— ओडिशा में भाजपा ने कीर्तिमान रचा है। 40 प्रतिशत से अधिक मतों के साथ पार्टी ने 147 सदस्यीय विधानसभा चुनाव में 78 सीटें जीतकर अपने दमखम पर बहुमत प्राप्त किया है। वहीं लोकसभा में 21 में से 20 सीटें अपने नाम करके सत्तारूढ़ बीजू जनता दल (बीजेडी) का सूपड़ा साफ कर दिया है। सूबे में 24 वर्षों से सत्तासीन और शारीरिक रूप से अस्वस्थ 77 वर्षीय निवर्तमान मुख्यमंत्री और बीजेडी के अध्यक्ष नवीन पटनायक अब शायद ही इस पराजय से वापसी कर पाएं। ओडिशा के अतिरिक्त, अरुणाचल प्रदेश के 60 सदस्यीय विधानसभा चुनाव में 54 प्रतिशत मत और 46 सीटों के प्रचंड बहुमत के बल पर भाजपा सरकार बनाने में सफल हुई है।
छठा— पश्चिम बंगाल में अनेक प्रकार के विवाद, मुस्लिम कट्टपंथियों के तुष्टिकरण और भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद भी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस ने विरोधी आई.एन.डी.आई.ए. गठबंधन और भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़कर 46 प्रतिशत मतों के साथ यहां की 42 में से 29 सीटें जीतने में सफलता प्राप्त की है। वर्ष 2014 के बाद तृणमूल का यह सबसे बेहतर प्रदर्शन है।
सातवां— कौन जेल में रहेगा, इसका निर्णय अदालतें करती हैं। परंतु दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस चुनाव को अपने जेल के अंदर रहने या बाहर रहने का अधिकार मतदाताओं को सौंप दिया, जिसका परिणाम यह रहा कि उनके शासन वाली दिल्ली में ‘आप’ का खाता तक नहीं खुला, तो वहीं उनकी पार्टी पंजाब में विधानसभा चुनाव (2022) का चमत्कार दोहराने में विफल हो गई और 13 में से केवल 3 सीटें ही जीत पाई।
आठवां— इस चुनाव में भाजपा की अखिल भारतीय स्वीकार्यता को और अधिक बल मिला है। केरल में पहली बार उसका खाता खुला है। यहां की त्रिशूर सीट पर भाजपा प्रत्याशी सुरेश गोपी ने वामपंथी प्रतिद्वंद्वी को 74 हजार से अधिक मतों से हराया है। तेलंगाना में भाजपा की सीटें पिछले चुनाव की तुलना में 4 से बढ़कर 8 हो गई हैं। आंध्रप्रदेश में तीन, तो कर्नाटक में 17 सीटों पर विजयी हुई है। तमिलनाडु में भले ही भाजपा एक भी सीट जीतने में असफल रही हो, परंतु उसका मतप्रतिशत पहली बार 11% को पार कर गया है।
अब भाजपा कहां चूकी, उसका वह आगामी दिनों में स्वाभाविक मंथन करेगी। परंतु एक बात साफ है कि देश के करोड़ों लोगों को बिना किसी जातीय-मजहबी-राजनीतिक भेदभाव के केंद्रीय-प्रादेशिक जनकल्याणकारी योजनाओं (राशन-आवास-जल-बिजली-गैस सहित) का लाभ मिला है। यह सब मई 2014 से मोदी सरकार द्वारा प्रदत्त ‘सबका साथ, सबका विश्वास और सबका प्रयास’ के बहुलतावादी सिद्धांत के कारण संभव हुआ है। ऐसी दर्जनों योजनाओं का बड़ा लाभ भारतीय मुसलमानों को भी मिला है और आगे भी मिलता रहेगा। परंतु देश के अधिकांश मुस्लिम मतदाताओं ने पूर्वाग्रह से प्रभावित होकर भाजपा के विरुद्ध वोट दिया है।
यह चलन न ही हालिया है और न ही केवल भाजपा तक सीमित है। आज मुस्लिम समाज के जिस ‘आक्रोश’ को भाजपा झेल रही है, ठीक उसी तरह का गुस्सा कांग्रेस का भी सह चुकी है। वर्ष 1935 के बाद अविभाजित भारत के कुछ प्रांतों में कांग्रेस की सरकार बनी थी। तब मुस्लिम लीग ने कांग्रेस की इन्हीं प्रांतीय सरकारों में तथाकथित ‘मुस्लिम अत्याचार’ पर 1937-38 में पीरपुर समिति का गठन किया था। उसने अपनी रिपोर्ट में ‘बहुसंख्यकवाद’ आदि विषयों को लेकर कांग्रेस को ‘सांप्रदायिक’ घोषित कर दिया था। बाद में अंग्रेजों और वामपंथियों के समर्थन से इन आरोपों को इस्लाम के नाम पर भारत के तकसीम का मुख्य आधार बना लिया गया था।
एक सदी बाद भी मुस्लिम समाज के ये इल्ज़ाम जस के तस हैं। तब यह आरोप इकबाल-जिन्नाह की मुस्लिम लीग ने वामपंथियों-अंग्रेजों के साथ मिलकर गांधी-पटेल-नेहरू की कांग्रेस पर लगाए थे और आज वही जहर राहुल की कांग्रेस, स्वयंभू सेकुलरवादी मार्क्स-मैकॉले मानसपुत्रों के साथ मिलकर मोदी-शाह-योगी की भाजपा पर उगल रहे हैं। बेशक, ‘सबका साथ, सबका विश्वास’ एक पवित्र संकल्प है और भारतीय संस्कृति से प्रेरित भी है, परंतु इसका भाजपा के चुनावी गणित से कोई सरोकार नहीं।
(हाल ही में लेखक की ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक प्रकाशित हुई है)