लोक देवता तेजाजी, श्रद्धा का ज्वार उमड़ता है जिन के मेले में
लोक देवता से तात्पर्य उन महापुरुषों से है जो दृढ़ आत्मबल द्वारा समाज में सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापना, धर्मरक्षा एवं जन हितार्थ सर्वस्व न्यौछावर कर लोक आस्था के प्रतीक हो गये। कालान्तर में इन्हें जनसामान्य के दुःखहर्ता या लोकदेवता के रूप में पूजा जाने लगा। इनके पूजा स्थल आस्था केन्द्र के रूप में यहाँ-वहाँ विद्यमान हैं। ऐसे लोक देवताओं में एक नाम वीर तेजाजी महाराज का भी है। तेजाजी महाराज ने अपने वचनों की रक्षा के लिए प्राणों की बलि दी।तेजाजी की राजस्थान के अधिकांश गाँवों में पूजा की जाती है एवं उनकी स्मृति में अनेक स्थानों पर छोटे-बड़े मेले भी भरते हैं। इनमें सबसे प्रसिद्ध एवं मुख्य परबतसर (जिला नागौर) का मेला है, जो प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल की दशमी (इस बार 16 सितम्बर) को लगता है। यह मेला पशु मेले के नाम से भी विख्यात है।
सामाजिक समरसता का अनूठा संगम
भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की दशमी से पूर्णिमा तक बड़ी संख्या में यह मेला भरता है। तेजाजी के यशोगान करते हजारों भक्तगण इस मेले में भाग लेते हैं। नृत्य, गीत, विभिन्न वेशभूषा और साज-सज्जा की वस्तुओं का क्रय-विक्रय भी मेले में होता है।
मेले में राजस्थान के अतिरिक्त गुजरात, मध्यप्रदेश, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और दिल्ली सहित अन्य स्थानों से लोग पैदल चलकर भी मेले में सम्मिलित होते हैं। लोग अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए मनौती मांगते हैं तथा पूरी होने पर सवामणी भी करते हैं। मेले की पूर्व संध्या पर भक्तों द्वारा मंदिर प्रांगण में रात्रि जागरण और कीर्तन किया जाता है। ढोल, मंजीरे, झालर, मृदंग बजाते हुए स्थानीय कस्बे के मुख्य मार्गों से तेजाजी महाराज की सवारी निकाली जाती है। श्रद्धालु गाजे-बाजों के साथ बड़ी-बड़ी ध्वज पताकाएं हाथों में लेकर तेजाजी को समर्पित करते हैं। वीर तेजाजी के दर्शन कर उन्हें नारियल और घी का प्रसाद चढ़ाते हैं। मेले में बड़ी संख्या में पशुओं की खरीद और बिक्री होती है। यह पशु मेला राजस्थान में भरने वाले पशु मेलों में आय की दृष्टि से सबसे बड़ा मेला है।
तेजाजी के मेले में राजस्थानी लोक-संस्कृति और सामाजिक समरसता का अनूठा संगम देखने को मिलता है।
गाँव-गाँव में है तेजाजी के थान
राजस्थान के अधिकतर गाँवों में किसी तालाब, नदी, तलैया या नहर के किनारे बने चबूतरे पर घोड़े के ऊपर एक योद्धा के रूप में साफा बांधे, हाथ में भाला लिए व सांप द्वारा जीभ पर दंश देते हुए इनकी मूर्ति स्थापित की जाती है। तेजाजी के थान (पूजास्थल) को देवरा, देवल, चबूतरा या देवस्थान भी कहा जाता है। पूजा करने वाले पुजारी को घोड़ला कहा जाता है। इनके चबूतरे पर ग्रामीण लोग ज्वार, गेहूँ और चना आदि भी चढ़ाते हैं। तेजाजी के मुख्य थान सुरसुरा, सैदरिया, खरनाल, ब्यावर, भांवता, परबतसर आदि है, जहाँ प्रतिवर्ष विशाल मेला भरता है। तेजाजी महाराज का यशोगान लोकगीतों, लोकनाट्यों में राजस्थान के ग्रामीण अंचल में बड़े ही श्रद्धाभाव से गाया व सुनाया जाता है।
वीर तेजाजी महाराज
वीर तेजाजी का जन्म माघ शुक्ल 14 वि. सं. 1130 को नागौर जिले के खड़नाल ग्राम में हुआ था। पिता का नाम ताहड़ जी और माता का नाम रामकुंवरी था। जन्म के समय चेहरे पर विशेष तेज था इसलिए माता-पिता ने उनका नाम तेजा रखा। तेजाजी महाराज महापराक्रमी और उच्चकोटि के साधक थे।अपनी वीरता का परिचय देते हुए उन्होंने गोवंश और निर्बलों की रक्षा में जीवन समर्पित किया। उन्हें नागों के देवता, काला-बाला देवता, गोरक्षक के नाम से भी जाना जाता है। ऐसी मान्यता है कि सर्प दंश और जहरीले कीड़े से पीड़ित व्यक्ति के दांये पैर में तेजाजी की तांती (डोरी/धागा) बांध दें तो विष नहीं च़ढ़ता।
गो-रक्षक वीर तेजा– गाय सदा से हमारे आर्थिक जीवन का आधार रही है। उस काल में समृद्धि का मापदण्ड ही गोवंश हुआ करता था और इसलिए चोर-लुटेरे तथा अन्यायी शासक जनता के गोधन को लूटते थे। जिस किसी की गाय चोरी हो जाती तो वह सीधे तेजाजी से गुहार लगाता था। तेजाजी लुटेरों से गोधन छुड़ाकर और दण्ड देकर वापस लाते। अतः एक गो-रक्षक योद्धा और सिद्ध पुरुष के रूप में वे लोक प्रसिद्ध हो गये।
कृषकों में है विशेष आस्था– वीर तेजाजी को कृषि कार्यों का उपकारक देवता भी माना जाता है। कुछ प्रांतों में आज भी किसान अच्छी फसल के लिए भावमग्न होकर तेजाजी के गीत गाते हैं। बाल्यावस्था से ही तेजाजी गो-सेवा में लीन रहते थे। उन्होंने कृषकों को कृषि की नई-नई विधियाँ बताईं। पहले बीज उछालकर खेत जोता जाता था, उन्होंने बीज को जमीन में हल द्वारा कतार में बोना सिखाया।