सामाजिक वैमनस्यता की विचारधारा आम वनवासी को कभी स्वीकार्य नहीं : रामचंद्र खराड़ी

सामाजिक वैमनस्यता की विचारधारा आम वनवासी को कभी स्वीकार्य नहीं : रामचंद्र खराड़ी

कौशल मूंदड़ा

सामाजिक वैमनस्यता की विचारधारा आम वनवासी को कभी स्वीकार्य नहीं : रामचंद्र खराड़ी

उदयपुर, 22 अक्टूबर। अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम के नवनियुक्त राष्ट्रीय अध्यक्ष रामचंद्र खराड़ी कहते हैं कि सामाजिक वैमनस्यता की विचारधारा को एक सामान्य वनवासी ने कभी स्वीकार नहीं किया। अब जनजाति समाज जागरूक हो रहा है और समाजों में आपस में लड़ाये जाने वाली ताकतों को पहचान कर उनसे दूरी बना रहा है।

वनवासी कल्याण आश्रम के अखिल भारतीय अध्यक्ष बनने के बाद उदयपुर पहुंचे खराड़ी ने वनवासी अंचलों की मूल समस्याओं और उनके समाधान की पृष्ठभूमि पर विशेष चर्चा की। वे कल्याण आश्रम के तीसरे राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और दक्षिणी राजस्थान का वनांचल उनकी जन्म और कर्म भूमि है।
उल्लेखनीय है कि खराड़ी मूलत: उदयपुर जिले के परसाद के पास खरवड़ के हैं। राजकीय सेवा से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर वे पहले गायत्री परिवार और फिर वनवासी कल्याण आश्रम से जुड़ गए थे।

खराड़ी कहते हैं कि जो ताकतें वनवासी समाज को भ्रमित कर रही हैं, वे किसी भी समस्या का समाधान नहीं चाहतीं, समस्या को बनाए रखना चाहती हैं। वे ऐसी ही समस्याओं को ढूंढ़ते हैं जिनका त्वरित स्तर पर समाधान संभव नहीं हो और इसके जरिये वे आदिवासी युवाओं को भ्रमित कर राज्य के खिलाफ कृत्य करने को उकसा सकें। भीमा कोरेगांव और पालघर जैसी घटनाएं इसका उदाहरण हैं। इस विचारधारा के लोग यह जानते हैं कि जिन समस्याओं के समाधान का मार्ग संविधान और सरकार के जरिये होगा, उन समस्याओं के लिए जानबूझकर सामान्य वनवासी समाज को अन्य समाजों के मन में यह धारणा स्थापित करने का षड्यंत्र किया जाता है कि समस्या दूसरे समाजों के कारण है। हालांकि, अब सामान्य जनजाति युवा इन बातों को समझने लगा है। उन्होंने हाल ही में डूंगरपुर की कांकरी-डूंगरी से उठे आंदोलन में हुई अराजकता पर इसी विचारधारा को दोषी ठहराया और कहा कि यह तो वे अभ्यर्थी भी भली-भांति जानते हैं कि इस समस्या का समाधान न्यायालय और सरकार के जरिये ही संभव है। लेकिन, इस समस्या की आड़ में दूषित विचारधारा वालों ने अन्य समाजों को निशाना बनाया। खराड़ी ने कहा कि लोकतांत्रिक देश में सामाजिक विद्वेष बढ़ाने वाली घृणा की राजनीति की जगह नहीं है और इस बात को कांग्रेस भी समझती है। कांग्रेस ने भी इस तरह की घृणा की राजनीति को स्वीकार नहीं किया है। इस घृणा की राजनीति के खिलाफ अब समस्त संत समाज भी जाग्रत हो गया है। उदयपुर जिले के सलूम्बर में सोनार माता के मंदिर में पारम्परिक ध्वजा उतारकर बीटीपी का झण्डा लगा देने की घटना के बाद संत समाज ने सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचाने वाले विचार के प्रतिकार के लिए आदिवासी समाज को जागरूक करने का बीड़ा उठा लिया है। तपस्वी-साधुसंत जंगलों में आदिवासी समाज के बीच रहकर ही साधना करते आए हैं। वे भी इस घृणा की राजनीति से आहत हैं।

खराड़ी ने आरोप लगाते हुए कहा कि मिशनरी, पीएफआई, बामसेफ, बीटीपी, वामपंथी विचारधारा वालों ने पिछले कुछ समय से मध्य भारत को लक्ष्य बनाया है और येन-केन-प्रकारेण वनवासी समाज को हिन्दू संस्कृति से दूर करने का षड्यंत्र कर रहे हैं। जब एक जनजाति समाज का नामकरण, आस्था पद्धतियां, आचार-व्यवहार आदि हिन्दू संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हैं तब उस विचारधारा वालों ने प्रकृति पूजा का शब्द इस्तेमाल करना शुरू किया। प्रकृति पूजा तो सनातन संस्कृति का अभिन्न अंग है। जब इसके प्रति समाज जागरूक होने लगा तो वे मूल निवासी शब्द ले आए। जबकि, जब भारत में मूल निवासी दिवस मनाने का विचार पैदा किया गया तब यह सर्वोच्च सदन ने यह कहा कि भारत में सभी मूल निवासी हैं। भारत से किसी को खदेड़ा नहीं गया। भारत द्वारा विश्व के उन लोगों को सहयोग जरूर दिया जा सकता है जहां के मूल निवासियों को उनके मूल से खदेड़ा गया हो। अमरीका में तो 9 अगस्त को आदिवासी काला दिवस मनाते हैं क्योंकि यह दिन वहां के मूल निवासियों के लिए रासायनिक हथियारों द्वारा नरसंहार के कड़वे इतिहास से जुड़ा है। खराड़ी ने कहा कि भारत में जैसे-जैसे मूल निवासी अवधारणा की यह हकीकत युवाओं के समक्ष पहुंचने लगेगी, उन्हें सामाजिक विद्वेष का षड्यंत्र समझ में आने लगेगा।

खराड़ी ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि वनवासी समाज और अन्य समाज में दूरियां बढ़ाने की शुरुआत अंग्रेजों ने की। कुत्सित विचारधारा के लोग आदिवासी युवाओं में यह बात तो फैला रहे हैं कि आदिवासियों पर कोई कानून लागू नहीं होते, लेकिन इसकी हकीकत भी सामने नहीं लाते। दरअसल, अंग्रेजों को जंगलों से लकड़ी, सोना, खनिज पदार्थ आदि प्राप्त करना होता था जिसके लिए यदि वे नियमों से चलते तो अनुचित दोहन उनके लिए संभव नहीं होता। ऐसे में अंग्रेजों ने यह कह दिया कि जंगल में रहने वाले ट्राइबल के लिए कोई कानून लागू नहीं होता। अंग्रेज इसकी आड़ में उन पर अत्याचार और दोहन कर अपने जरूरत की वस्तुएं प्राप्त करते रहे। यदि यह हकीकत विस्तृत रूप से आदिवासी समाज के सामने आने लगेगी तो स्वत: ही अराजक विचारधारा को समाज किनारे कर देगा।

बातचीत के दौरान खराड़ी ने सवाल उठाया कि सोवियत रूस जहां कम्युनिस्ट साम्यवादियों ने कभी ट्राइबल कल्चर को नहीं छेड़ा, तब यह विचारधारा भारत में ट्राइबल कल्चर को क्यों दूषित करना चाह रही है। उन्होंने आगे जोड़ा कि आने वाली जनगणना में भी आदिवासी युवाओं को अदर रिलीजियस पर्सन (ओआरपी) कॉलम में अपना धर्म बताने के लिए बरगलाया जा रहा है और इसमें मिशनरी ताकतें भी शामिल हैं जिनके लिए यह षड्यंत्र सफल होने पर इसके बाद धर्म परिवर्तन कराने की राह और आसान हो जाएगी। यही कारण है कि वनवासी कल्याण आश्रम ने इसके लिए पूरे देश में जनगणना जागरूकता अभियान का निर्णय किया है।

धर्म परिवर्तन को रोकने की दिशा में कल्याण आश्रम काफी पहले से यह मांग भी कर रहा है कि धर्म बदलने वालों को आरक्षण का लाभ नहीं दिया जाए। इसके पीछे मजबूत आधार यह भी है कि 1950 में आरक्षण के प्रावधानों में अनुसूचित जाति (एससी) के लिए यह उपबंध डाला गया कि जो भी एससी हिन्दू या सिक्ख धर्म छोडक़र जाएगा, उसे आरक्षण नहीं मिलेगा। तब अनुसूचित जनजाति (एसटी) में भी ऐसा उपबंध लगाया जाना था, लेकिन तत्कालीन मिशनरी दबावों के चलते ऐसा नहीं हो पाया। इसके बाद भी इसके प्रयास जारी रहे। कांग्रेस के ही सांसद डॉ. कार्तिक उरांव ने 1970 में एसटी के संदर्भ में भी इसी तरह का उपबंध शामिल करने के लिए अभियान चलाया और 348 (322 लोकसभा-26 राज्यसभा) सांसदों ने सहमति हस्ताक्षर किए। लेकिन तब इंदिरा सरकार थी और इंदिरा गांधी ने पूर्वांचल के दो ईसाई डिप्टी मिनिस्टर्स के दबाव में इसको टालना चाहा। लेकिन, सांसदों का दबाव देख यह कहा कि तत्कालीन सत्र के अंतिम दिन इसे भी पटल पर ले लिया जाएगा। अंतिम दिन से पहले लोकसभा भंग हो गई। इस पेंडिंग इश्यू को आश्रम आज भी पूरा कराने का प्रयास कर रहा है। दरअसल, आरक्षण की अवधारणा के पीछे हिन्दू ट्राइबल का उत्थान निहित था जिसके लिए यह कहा जाता रहा है कि हिन्दू सवर्ण ने सदियों से उसका शोषण किया। ऐसे में जो ट्राइबल हिन्दू नहीं रहता है तो उसे आरक्षण का लाभ क्यों।

सोशल मीडिया पर भी मजबूती

सोशल मीडिया पर फैलाए जा रहे भ्रमों पर खराड़ी ने कहा कि समय के साथ वनवासी युवा भी सोशल मीडिया पर मजबूत हुआ है। जो युवा भारत की सनातन संस्कृति के मूल को समझ रहे हैं वे सोशल मीडिया पर समाजों में विद्वेष उत्पन्न करने वाले विचारों का मजबूती से प्रतिकार करने लगे हैं।

भारतवर्ष में कभी जाति आधारित अलग राज्य संभव नहीं

भीलीस्तान जैसे अलग राज्य की मांग पर खराड़ी ने कहा कि भारतवर्ष में कभी जाति आधारित अलग राज्य संभव नहीं है और ऐसा होना भी नहीं चाहिए। यह मांग उठाने वाले भी अच्छी तरह जानते हैं कि यह संभव नहीं है। उनका उद्देश्य सिर्फ समाजों को आपस में दूर करना है। खराड़ी ने असम का उदाहरण देते हुए कहा कि वहां रोहिंग्या मुसलमानों ने जनजाति समाज की लड़कियों से विवाह कर सामाजिक ताना-बाना बुनना शुरू किया। अपनी लड़कियों की शादी भी वहां के आदिवासियों से करवाई। इससे उन्हें वहां जमीनें खरीदने के व अन्य अधिकार मिल गए और धीरे-धीरे वहां अलग राज्य की मांग उठने लगी। जैसे ही एनआरसी सामने आई वैसे ही देश को तोड़ने वाले विचारों की पोल खुलने लगी और वहां के जनजाति समाज में भी जागरूकता आई। अब वहां अलग राज्य की मांग विड्रॉ हो चुकी है।

संस्कारों की पाठशाला भी है कल्याण आश्रम

खराड़ी बताते हैं कि कल्याण आश्रम वनवासी बंधुओं के बीच रहकर न केवल शिक्षा, रोजगार, सामाजिक सरोकार, रीति-रिवाज, संस्कृति संरक्षण जैसे आयामों पर कार्य कर रहा है, अपितु आचार-व्यवहार में सद्संस्कारों से परिपूर्ण व्यक्तित्व तैयार करना भी लक्ष्य है। कल्याण आश्रम के बच्चों के संस्कारों के बारे में लुधियाना का प्रसंग सुनाते हुए उन्होंने कहा कि कल्याण आश्रम आदिवासी बच्चों को विभिन्न शहरों में अलग-अलग समाजों के भामाशाह परिवारों में कुछ दिन रहने के लिए भेजता है। लुधियाना के एक भामाशाह परिवार के बुजुर्ग ने आश्रम को अनुभव सुनाया कि वह जनजाति छात्र नियमित सुबह सभी बड़ों के पैर छूकर आशीर्वाद लेता। उसे देख उसके 35 वर्षीय पुत्र ने भी पैर छूना शुरू किया और उसके बाद तो परिवार के सभी बच्चों ने सुबह-सुबह बड़ों के पैर छूने शुरू कर दिए। पांच दिन उस घर में रहे उस जनजाति छात्र ने उस घर में सद्संस्कारों का बीजारोपण कर दिया।

15 नवम्बर को मनाएंगे जनजाति गौरव दिवस

खराड़ी ने बताया कि आश्रम ने अपने प्रस्ताव में पूरे देश में बिरसा मुण्डा जयंती को सात दिवसीय आयोजनों के रूप में मनाए जाने का निर्णय किया है। बिरसा मुण्डा की जयंती 15 नवम्बर को है। इस दिन को जनजाति गौरव दिवस के रूप में मनाया जाएगा। वनवासी कल्याण आश्रम जनजाति संस्कृति के लिए सर्वस्व समर्पित करने वाले बिरसा मुण्डा के लिए भारत रत्न प्रदान किए जाने का भी प्रयास कर रहा है।

जनजाति आस्था स्थलों की सुरक्षा करे सरकार

कल्याण आश्रम ने सरकार से मांग की है कि पूरे देश में जनजाति समाज के आराध्य स्थलों, आस्था केन्द्रों की सुरक्षा की व्यवस्था सरकारी स्तर पर की जाए। उनके पुजारियों के लिए मानदेय की व्यवस्था भी सरकार करे। जनजाति समाज देश के 35 प्रतिशत भूभाग में रहता है, पूरे देश में बड़ी संख्या में आस्था के केन्द्र है। इन केन्द्रों को अराजक तत्वों से बचाने के लिए सुरक्षा व्यवस्था जरूरी है।

आक्रोश को घृणा की राजनीति में बदलने का मौका बना रही हैं कतिपय ताकतें

उत्तरी राजस्थान और दक्षिणी राजस्थान के मीणा समाज में अंतर के प्रश्न पर खराड़ी ने कहा कि उत्तरी राजस्थान का मीणा समाज सम्पन्न रहा है, ऐसे में तुलनात्मक रूप से सरकारी नौकरियों में उनका चयन ज्यादा हुआ, जबकि दक्षिणी राजस्थान का मीणा समाज जिसे भील मीणा कह सकते हैं, वे सम्पन्न तो दूर शिक्षा से भी वंचित रहे, ऐसे में अब तक वे पिछड़ते रहे, लेकिन, अब भील मीणा समाज भी सक्षम हो रहा है। इसे लेकर मन में कुछ आक्रोश हो सकता है, जिससे कतिपय ताकतों को घृणा की राजनीति करने का मौका मिल जाता है।

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