वामपंथ का मूल चरित्र और उसकी विसंगतियाँ (भाग-3 )
11 जून 2020
प्रणय कुमार
जिन देशों में वामपंथ सत्ता में रहा, वहां की ‘साम्यवादी’ सरकारों ने भय और प्रोपेगेंडा के बल पर नागरिकों के मुँह खोलने पर पूरी पाबंदी लगा रखी थी। मुंह खोलने का मतलब था- मौत।
आज वामपंथ के कथित अर्थशास्त्र के बारे में विद्वान सैकड़ों बार कह चुके हैं कि यह आत्मघाती, विसंगतियों से भरी है। वे मानते हैं कि यह व्यवस्था अप्राकृतिक और अस्थिर होती है। जड़ से ही खोखली इन आर्थिक नीतियों के कारण तमाम साम्यवादी देशों और राज्यों की अर्थव्यवस्था का बुरा हाल रहता है और इसकी सबसे ज्यादा कीमत निम्न और मध्यम वर्ग के लोग चुकाते हैं। और फिर यदि इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था के खिलाफ लोगों में असंतोष उभरता है तो उसकी अभिव्यक्ति तक होने से पहले ही उनका क्रूरता से दमन कर दिया जाता है।
जिस माओ के नाम पर बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ और बिहार-झारखंड में वहाँ के प्रगतिवादी वामपंथी खूनी खेल खेल रहे हैं, चीन में उसी माओ के शासनकाल में दो करोड़ से भी ज्यादा लोग सरकारी नीतियों से उपजे अकाल में मारे गए और लगभग पच्चीस लाख लोगों को वहाँ की इकलौती पार्टी के गुंडों ने मार डाला। सोवियत रूस में स्तालिन ने भी सर्वहारा हित के नाम पर लगभग 30 लाख लोगों को साइबेरिया के गुलाग आर्किपेलागो में बने लेबर कैंपों में भेजकर अमानवीय स्थितियों में कठोर श्रम करवाकर मार डाला। ऊपर से लगभग साढ़े सात लाख लोगों को, विशेषकर यहूदियों को, बिना कोई मुकदमा चलाए मार डाला गया। इनमें से अधिकांश के परिजनों को 1990 तक पता भी नहीं चला कि वे कहाँ गायब हो गए।
पूर्वी जर्मनी, चेकोस्लोवाकिया, हंगरी आदि ईस्टर्न ब्लॉक के यूरोपीय देश जो दूसरे विश्व युद्ध के बाद रूस की रेड आर्मी के कब्जे में थे और जहाँ रूस ने अपने टट्टू शासन में बिठा रखे थे, वहाँ भी लगभग यही स्थिति थी। पूर्वी जर्मनी में तो स्टासी ने हर नागरिक की पूरी जिंदगी की ही जासूसी कर रखी थी। इन सब देशों में कुल मिलाकर इन ‘साम्यवादी’ सरकारों ने भय और प्रोपेगेंडा के बल पर नागरिकों के मुँह खोलने पर पूरी पाबंदी लगा रखी थी और पूरा आयरन कर्टन बना रखा था। बिना पोलित ब्यूरो की अनुमति के लोगों का देश के बाहर जाना-आना भी मुश्किल था। डर था कि कहीं सच्चाई बाहर न चली जाए। इन सब जगहों पर कहने को चुनाव होते थे, पर उनमें एक ही पार्टी खड़ी होती थी- कम्युनिस्ट पार्टी। अखबार, पत्रिकाएँ, टीवी, सिनेमा, साहित्य, विज्ञान, कला और यहाँ तक कि संगीत में भी जो भी कुछ होता था वो पोलित ब्यूरो तय करती थी। इसेंटीन और तारकोवस्की जैसे अद्भुत फिल्मकारों से लेकर कई लेखक, संगीतकार, कलाकार, सबकोइन अधपढ़े और असभ्य कम्युनिस्टों ने यातनाएँ दीं। कुछ मारे गए। कुछ मानसिक रूप से विक्षिप्त हो गए। कुछ ने डर से पोलित ब्यूरो का एजेंडा अपना लिया और कुछ, जो नसीब वाले थे, अमेरिका और पश्चिमी यूरोप भाग गए। वैज्ञानिक और खिलाड़ी भी इस दमनकारी व्यवस्था से बचे नहीं, कितने ही लोग अंतरिक्ष में और चाँद पर जाने की सोवियत मुहिम में मारे गए जिनके अस्तित्व के सारे सुबूत केजीबी ने मिटा दिए। हारनेवाले ऐथलीट भी कठोर सजा के हकदार बनते थे। इनके आदर्श ‘सर्वहारा सेवकों’ की सत्तालोलुपता और ऐय्याशी का वर्णन करते शब्द कम पड़ जाएँगे।
जैसे ही कोई नेता कमजोर पड़ा कि गुटबंदी करके एक उसको मरवाकर खुद शासक बन जाता था। ‘सर्वहारा का दुश्मन’ होने का आरोप लगा राजनैतिक लोगों को फायरिंग स्क्वाड के हवाले कर दिया जाता था। खुद स्तालिन ने 139 केंद्रीय समिति सदस्यों में से 93 और 103 जेनरलों में से 81 को मरवा दिया था। बाद में पुरानी तस्वीरों और फिल्मों में से भी उन्हें मिटा दिया जाता था।
परिवर्तन प्रकृति का नियम है। यह तथ्य है कि भारतीय लोकतंत्र में वामपंथ की खोखली विचारधारा लोगों के सामने पूरी तरह सामने आ चुकी है। इसीलिए चुनाव दर चुनाव इनकी सांसें कम होती जा रही हैं।
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
लेखक का संक्षिप्त परिचय भी दिया जाना चाहिए