असत्य पर सत्य की विजय का पर्व है विजयदशमी

असत्य पर सत्य की विजय का पर्व है विजयदशमी

दीपक आजाद

असत्य पर सत्य की विजय का पर्व है विजयदशमी

गांव में, शहर में ताजिंदगी अमर कर दिए जाने वाले संस्कार और संस्कृति, दोनों के लिए खतरा बने दशानन के विध्वंस की एक बार फिर तैयारी हो चुकी है। प्रतिवर्ष नेताओं द्वारा दिए जाने वाले लच्छेदार भाषणों के बावजूद दशानन का ठप्पा सरकारी कार्यालयों में अनिवार्य हो गया है। कुछ लोग चाहते हैं कि दशानन काग़ज़ों में मृत्यु को प्राप्त हो पर वास्तव में उसका वर्चस्व कायम रहे। वे अपने षड्यंत्रों में सफल भी हुए हैं। अब कहीं कहीं लोगों के मन में दशानन के लिए आत्मीयता पनपने लगी है। इसका कारण भी सालों साल तक सत्तारूढ़ रहने वाली सरकारें हैं। यह सरासर गलत है कि नेता जनमानस को स्वीकार करते हैं, परन्तु यह सार्वभौमिक सत्य है कि नेता जनमानस को अपने अनुसार ढालते हैं। हमारे देश के कुछ नेता अब राम को नहीं रावण को पूजने लगे हैं। किसी व्यक्ति के नाम से ज्यादा प्रभाव उसके उपनाम का होता है। केवल इसी आधार पर तय करें तो भी मेरी जानकारी में ‘रावण’ उपनाम से कुछ नेता दिखाई देते हैं मगर ‘राम’ उपनाम को धारण करने वाला तन से छोड़िये मन से भी कोई नज़र नहीं आता। मन में मैल लेकर ‘राम की शक्ति पूजा’ नहीं की जा सकती। राम को पूजना है तो अपने आप को अच्छा और सच्चा बनाने के लिए कदम उठाया जाना चाहिए। विजयदशमी, प्रतीक है सत्य की, शक्ति की, प्रतिष्ठा बन जाने की।

स्वामी विवेकानंद ने कहा था, ‘मुझे सौ युवक चाहिए’, क्या उन्हें इतने युवक नहीं मिले होंगे? और क्या उस समय सौ युवकों से पूर्णतः सतयुग आ गया होगा? क्या उस कालखण्ड में उस महापुरुष के विचारों का विरोध नहीं हुआ था? जब भी कोई कालपुरुष आह्वान करता है तो उसका अर्थ उस समय तक ही सीमित नहीं होता। आज के समय में भी वैसे ही मात्र सौ युवक अगर एकत्र होते हैं तो क्या समाज का दृष्टिकोण नहीं बदला जा सकता? 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी विजयदशमी के रोज ऐसे ही 18 युवकों के साथ समाज का दृष्टिकोण बदलने का भागीरथ प्रयास शुरू किया था। जिसका सानी आज तक कोई नहीं है, परिणाम भी सबके सामने है। 1925 से लेकर आज तक समय समय पर अनेकों विद्वानों ने आरएसएस यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रशंसा में पुराण रच डाले हैं। संघ जैसा न कोई है और न ही कभी कोई हो सकता है। स्वामी विवेकानंद के ध्येय को पूरा करने का काम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ लगभग 96 वर्षों से कर रहा है। इस दौरान संघ पर अनेकों आरोप लगाए गए। जिस पर संघ हमेशा आरोप लगाने वालों को भी अपना मानकर निस्वार्थ भाव से कार्य करता रहा और करता रहेगा। संघ ने घृणा करने वालों को भी कभी अपना विरोधी नहीं माना। कोसने वाले कोसते रहते हैं, संघ अपनी गति से अपना काम करता रहता है। सौ नहीं हज़ारों की संख्या में कंटक पथ समान सत्यमार्गी और ध्येयनिष्ठ कार्यकर्ताओं का निर्माण करने वाले संघ को सत्यापन की कभी आवश्यकता नहीं रही। गालियां देने वाले तो श्री राम और कृष्ण को भी न बख्शेंगे, फिर कुछ राष्ट्रहित को पोषित करने वाले संगठन को क्या छोड़ेंगे। संघ तो अपने बुरे समय को अच्छा बनाने की शक्ति रखता है। इसलिए जब जब संघ पर कोई मनुष्यकृत आपदा आई, तब तब यह प्रभु कार्य को ही अपना कार्य मानने वाला संगठन मां शक्ति और श्री राम के हवन कुंड में तप कर निखरता है। इस पर भी अपना मानना है कि संघ सदैव से सत्यमार्गी और निस्वार्थ भाव से सेवा करने वाले लोगों का हिमायती रहा है। अन्यों की भांति उन्हें काटने का कार्य नहीं करता।

आज के समय में हमें सबसे पहले अपने मन में घर कर बैठे दशानन को संदेश देना चाहिए कि अब तेरी भ्रष्टता मेरे पास नहीं चल सकने वाली। हम व्यक्तिगत शपथ लें कि न गलत बात सुनेंगे न उसका साथ देंगे।

कहते हैं कि लोग अपने जैसे व्यक्तित्व को स्वतः ढूंढ लेते हैं। पिछले 96 सालों में यही होता रहा है, संघ अपने जैसे ही राष्ट्रीय चेतना और उसकी रक्षा करने वाले योद्धाओं को ढूंढकर, मानवीयता की लड़ाई में अपनी ओर से लड़ने का अवसर देता है। इस विजयदशमी पर सबसे पहले हम भीतर के रावण से लड़ें और फिर बाहरी से लड़ने के लिए एकजुट हों। अब जनमानस पर बिछी धूल को झाड़ने का समय आ गया है। ये धूल हमारे आपसी विवादों की है, जातिवाद और क्षेत्रवाद की है। जिसे अब रावण मानकर इसका विध्वंस करना होगा। तभी हम एक कदम बढ़ाएंगे सत्य की असत्य पर विजय का।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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