विद्वान सर्वत्र पूज्यते

विद्वान सर्वत्र पूज्यते

नीलू शेखावत

 

विद्वान सर्वत्र पूज्यतेविद्वान सर्वत्र पूज्यते

उपनिषदों की तत्त्व मीमांसा भारत ही नहीं, समस्त विश्व का कल्याण करने वाली वैचारिक संपदा है। उपनिषदों का दर्शन वेदों पर आधृत होते हुए भी वेदों से सर्वथा भिन्न है। वेदों और वेदांगों में जहां अपरा विद्या का विवेचन है वहीं उपनिषदों में पराविद्या का तात्त्विक विवेचन है, जो मनुष्य को सभी शोकों से पार कर ‘स्व’ स्वरूप में स्थिति करवा देता है।

वेदांत सूत्रों में जिन श्रुतियों पर विचार किया गया है, उनमें छांदोग्य उपनिषद एक है। इसका ज्ञानकांड तो जिज्ञासुओं के लिए अक्षय कोष है। जो ‘तत्त्वमसि’ महावाक्य अद्वैत संप्रदाय में ब्रह्मत्मेक्य बोध का प्रधान साधन माना गया है, वह इसी के छठे अध्याय में आया है। छांदोग्य उपनिषद् में ओंकार उपासना की महिमा प्रतिपादित की गई है, जिसे यहाँ ‘उद्गीथ’ की संज्ञा से अभिहीत किया गया है। प्रथम अध्याय के प्रथम खंड का प्रथम श्लोक ही यहाँ से आरंभ होता है-
ओमित्येतद्क्षरमुद्गीथमुपासीत।
“ॐ यह अक्षर उद्गीथ है, इसकी उपासना करनी चाहिए।”

यहाँ ज्ञान चर्चा यद्यपि सूत्र रूप में है, किंतु ये सूत्र जिज्ञासुओं को नीरस न कर दें, इसलिए स्थान-स्थान पर इन सूत्रों में आख्यायिकाओं को सूत्र में मणि की तरह पिरो दिया गया है। जिससे गूढ़तम तात्त्विक रहस्यों को भी सहजता से हृदयंगम किया जा सके।

सनातन मनीषा में वाद-संवाद की एक स्वस्थ परंपरा रही है। शिष्य गुरु से, सेवक स्वामी से और भक्त भगवान से प्रश्न करने का साहस करता रहा है। इसके पीछे यह भाव रहा कि ज्ञानी पुरुषों के आपसी संवाद से भ्रम का नाश, ज्ञान की उत्पति और संशय की निवृति होती है। अतः ऐसे लोगों को एक साथ बैठकर संवाद, शास्त्रार्थ करते रहना चाहिए। दूसरा ज्ञानवान का वय या वर्ण विभाग नहीं देखा जाता। वह सर्वत्र पूजनीय है। गार्गी-याज्ञवल्क्य संवाद, जनक-अष्टावक्र संवाद जैसे अनेकानेक दृष्टांतों से सभी परिचित हैं। उद्गीथोपासना की महत्ता को समझाने वाला एक ऐसा ही संवाद छांदोग्य उपनिषद् के प्रथम अध्याय में आता है –

शालावान् के पुत्र शालावात्य (शिलक), चिकितायन के पुत्र चैकितायन (दाल्भ्य) और जीवल के पुत्र जैवली (प्रवाहण) उद्गीथ विद्या के ज्ञाता हुआ करते थे। उद्गीथ विद्या में गति होने से विद्वानों में उनका नाम अग्रगण्य था। एक बार ये तीनों किसी संयोगवश एक स्थान पर मिले। तीनों में ज्ञान चर्चा हुई और शीघ्र ही शास्त्रार्थ में बदल गई। निश्चय हुआ कि क्यों न इस विषय की गहराई तक जाया जाए।

शालावात्य और चैकितायन दोनों जन्मना ब्राह्मण थे, जबकि जैवली क्षत्रिय। जैवली ने बड़े विनय के साथ कहा- पहली बारी आप दोनों द्विजश्रेष्ठों की है। आप लोग शास्त्रार्थ कीजिये, मैं श्रद्धा और आदरपूर्वक श्रवण करूँगा। दोनों ब्राह्मणों ने उनका आग्रह स्वीकार किया। तब शिलक ने दाल्भ्य से कहा- आपकी अनुमति हो तो मैं आपसे प्रश्न करूँ?
दाल् कमअक्ल@भ्य ने कहा- पूछो।

शिलक ने साम (उद्गीथ) का आश्रय पूछा। उत्तर मिला- स्वर। क्योंकि स्वर साम स्वरूप है। जिस प्रकार मिट्टी के बर्तनों का उपादान मिट्टी है, वैसे ही ओंकार का आश्रय स्वर है।
फिर स्वर का आश्रय क्या है?
उत्तर मिला- प्राण
प्राण का आश्रय क्या है?
प्राण का आश्रय- अन्न
और अन्न का आश्रय क्या है?
उत्तर मिला – जल क्योंकि अन्न जल से ही उत्पन्न होता है।
जल की गति (आश्रय) क्या है?
इस बार उत्तर मिला- वह लोक (स्वर्ग)
प्रश्न हुआ- उस लोक की क्या गति है?
दाल्भ्य बोले- साम का अंतिम आश्रय स्वर्ग ही है अर्थात् वह स्वर्ग में ही प्रतिष्ठित है क्योंकि साम स्वर्गसंस्ताव (जिसका स्वर्ग रूप से संस्तवन किया गया है) है। ‘स्वर्गो वै लोक: साम वेद’ ऐसा श्रुति भी कहती है। अत: स्वर्ग का अतिक्रम नहीं हो सकता।

शिलक ने हँसते हुए कहा- फिर तो आपका साम अप्रतिष्ठित हुआ। जिसकी गति स्वर्ग से आगे है ही नहीं, उसकी उपासना मुक्तिकामी क्यों करे? आपका कथन मिथ्या है, इसलिए आपका उद्गीथवेत्ता होने का अहम् भी टूटने योग्य है।
दाल्भ्य बोले- फिर इसका समाधान आप ही करें।
शिलक ने कहा- जब यह लोक यज्ञ, दान, हवनादि से उस लोक को पुष्ट करता है तो वह तो स्वयं इस पृथ्वी लोक का आश्रित हुआ क्योंकि दान के आश्रय से ही देवतागण का अस्तित्व है। जब संपूर्ण प्राणियों की प्रतिष्ठा पृथ्वी से है, तो साम भी पृथ्वी में ही प्रतिष्ठित होगा। अर्थात् उस लोक की गति तो यह लोक है।
“इयम् वै रथन्तरम् – यह पृथ्वी ही रथन्तर साम है, ऐसी श्रुति भी है।“
प्रवाहण धीरे से मुस्कराए और बोले- श्रीमान! फिर तो आपका साम भी नश्वर ही है। उद्गीथवेत्ता होने का अहम् तो आपका भी टूटना चाहिए। शिलक ने धैर्य और शांतिपूर्वक कहा- क्या आपके पास इस शंका का समाधान है कि इस लोक की क्या गति है?
प्रवाहण बोले- अवश्य है, आप जान लीजिए-
इस लोक (पृथ्वी) की गति आकाश है। (यहाँ आकाश से आशय परमात्मा है, भूताकाश नहीं- आत्मन आकाश: संभूतस्तत्तेजोऽसृजत) वही इसका आश्रय है क्योंकि समस्त भूत आकाश (परमात्मा) से ही उत्पन्न होते हैं और आकाश में ही लय को प्राप्त होते हैं। अतः वही समस्त भूतों का परायण- परम आश्रय है, तीनों काल में उनकी प्रतिष्ठा है।

सर्वाणि ह वा इमानि भूतान्याकाशादेव समुत्पद्यंत आकाशं प्रत्यस्तं यंत्याकाशो ह्येवैभ्यो ज्यायानाकाश: परायणम्। ९.१
प्रवाहण का यही मत अंत में सर्वमान्य हुआ।

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