विनाशपर्व का अंत

विनाशपर्व का अंत

प्रशांत पोळ

विनाशपर्व का अंतवर्ष 2014, जब अंग्रेजों के चलाए हुए विनाशपर्व का अंत हुआ

गुरुवार, दिनांक 23 जून 1757 को अंग्रेजों ने बंगाल में प्लासी में हुए युद्ध को जीत लिया और पूरा बंगाल उनके कब्जे में आ गया। उस समय का ‘पूरा बंगाल’, अर्थात आज का बांग्लादेश, पश्चिम बंगाल और बिहार – ओडिशा का कुछ भाग। धीरे – धीरे अंग्रेज़ अपना राज्य बढ़ाते गए। 3 जून 1818 को पुणे के पेशवा ने हार मानने के बाद, पंजाब छोड़कर, लगभग समूचे हिंदुस्तान पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया।

23 जून 1757 से 15 अगस्त 1947, अर्थात कुल 190 वर्ष अंग्रेजों ने भारत पर राज किया। इस पूरे कालखंड में अंग्रेजों ने भारत को जी भर कर लूटा। एक छोटे से बिन्दु के समान इंग्लैंड की एक छोटी सी व्यापार करने वाली कंपनी, ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ ने इस विशाल अखंड भारत को देखते – देखते निगल लिया और पचा भी लिया। भारत देश, अंग्रेजों के लिए सुख, वैभव, ऐश्वर्य, समृद्धि का खजाना था। ऐशो आराम, उपभोग, संपत्ति, रईसी… इन सभी शब्दों के लिए अंग्रेजों के पास पर्यायवाची शब्द ‘भारत’ था। इन 190 वर्षों के कालखंड में इंग्लैंड दिनों दिन समृद्ध होता गया और किसी समय विश्व में व्यापार और ज्ञान – कौशल के मामले में सर्वश्रेष्ठ भारत, कंगाल और गरीब होता गया।

जब अंग्रेजों ने भारत पर राज करना प्रारंभ किया तब, अर्थात 1757 में वैश्विक व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 22.8% थी, तो इंग्लैंड की थी मात्र 3%। किन्तु 1947 में अंग्रेज़ जब भारत छोड़ कर गए, तब यह आंकड़े बिलकुल विपरीत थे। 1947 में वैश्विक व्यापार में भारत की हिस्सेदारी मात्र 3% रह गई थी। लेकिन छोटे से इंग्लैंड का हिस्सा 17.6% तक बढ़ गया था..!

ऐसा लगा कि 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजों द्वारा आरंभ किया गया ‘विनाशपर्व’ समाप्त हुआ। स्वतंत्रता मिलने के बाद, भारत के सामने एक बड़ी चुनौती थी – देश को फिर से एक बार सम्पूर्ण रूप से खड़ा करने की। भारत के पास अपने पुरखों की मजबूत धरोहर थी। इस्लामी, अंग्रेज़, पोर्तुगीज और फ्रेंच आक्रांताओं द्वारा इस देश की समृद्ध व्यवस्था को ध्वस्त करने के भरसक प्रयासों के बावजूद भी भारतीय ज्ञान – परंपरा में जबरदस्त जीवटता थी। उसका सहारा लेकर, विज्ञान और तकनीकी में प्रगति करते हुए, एक नया वैभवशाली भारत निर्माण करना संभव था। उस प्रकार की अनुकूलता भी देश में थी।

देश का विभाजन हुआ था। उस विभाजन के दाहक अंगारों को झेलते हुए आगे बढ़ना था। मुसलमानों को उनका अलग देश मिलने से हिन्दू – मुस्लिम समस्या समाप्त होनी चाहिए थी। आगे बढ़ने के रास्ते में कांटे बिछने का कोई कारण नहीं था।

किन्तु ऐसा हुआ नहीं। ऐसा होना भी नहीं था। अंग्रेजों का चलाया हुआ ‘विनाशपर्व’ अभी समाप्त नहीं हुआ था..!

देश की स्वतंत्रता के बाद, इस विशाल देश को एक साथ, एकजुट रखते हुए, नए भारत के निर्माण के लिए अनेक चीजें करने की आवश्यकता थी। किन्तु स्वतंत्रता को एक वर्ष भी नहीं हुआ था, कि महात्मा गांधी की हत्या के झूठे आरोप लगाकर हजारों देशभक्तों को जेल में भेज दिया गया। पैंसठ वर्ष के वीर सावरकर जी को भी स्वतंत्र भारत में कारावास झेलना पड़ा। नेताजी सुभाषचंद्र बोस का नाम तो मानो जैसे प्रतिबंधित ही हो गया था। देश को स्वतंत्रता दिलाने के लिए, अंडमान – निकोबार तक पहुंच कर, उस भूभाग को स्वतंत्र करने वाली, ‘आजाद हिन्द सेना’ का बहिष्कार हो रहा था।

नया भारत निर्माण करने में सहायक और आवश्यक ऐसे प्रेरणास्पद व्यक्तित्व और प्रतीकों को ही समाज से दूर रखा गया।

1948 में स्वतंत्र हुए इज़राइल के सामने, ‘देश की भाषा कौन सी होनी चाहिए’ यह समस्या थी। इज़राइल में पूरी दुनिया से अलग – अलग भाषा बोलने वाले आप्रवासी ज्यू (यहूदी) आए थे। उन की स्वयं की भाषा ‘हिब्रू’, लगभग 2000 वर्ष पहले की स्थिति में थी। बहुत कम यहूदियों को यह भाषा आती थी। लेकिन इज़राइल ने अपनी यानि हिब्रू भाषा में, सभी व्यवहार करने का निश्चय किया। केवल पांच वर्षों में, अर्थात 1952-53 तक इज़राइल के सभी ज्यू नागरिक हिब्रू भाषा में बोल रहे थे, लिख रहे थे। आज ‘सायबर सिक्यूरिटी’, ऑप्टिक्स या खेती में नई तकनीकी संबंधी नवीनतम जानकारी चाहिए, तो हिब्रू भाषा आना / समझना आवश्यक है, कारण इन क्षेत्रों में नए शोध, हिब्रू भाषा में ही हो रहे हैं।

इज़राइल एक छोटा सा देश है, इसलिए उसे यह सब करना आसान हुआ, ऐसा कोई कह सकता है। किन्तु भारत जैसे विशालकाय देश को अलग प्रकार की रचना कर के, नए भारत के विकास के लिए, ‘स्व’ पर आधारित, अनेक परियोजनाएं खड़ी करना संभव था।

किन्तु ऐसा हुआ नहीं।

क्योंकि हमने शासन की बागडोर सौंपी थी ऐसे लोगों के हाथों मे, जिनकी रीढ़ की हड्डी ही गायब थी..!

अंग्रेजों द्वारा बर्बाद की गई सभी व्यवस्थाएं फिर से खड़ी करनी थीं। उन्होंने डेढ़ सौ से ज्यादा वर्षों से, भारतीय मानसिकता पर जो औपनिवेशिकता का आवरण चढ़ाया था, उसे कुरेदकर निकालना आवश्यक था। उसके लिए आवश्यकता थी, इस देश की मिट्टी से ‘कनैक्ट’ होने वाला शिक्षा विभाग और इस विभाग का नेतृत्व करने वाले, इस देश की सांस्कृतिक विरासत से जुड़े शिक्षा मंत्री की।
लेकिन स्वतंत्र भारत में हमारे पहले शिक्षा मंत्री कौन थे?

मौलाना अबुल कलाम आजाद…

मुस्लिम लीग के जिन्ना को टक्कर देने के लिए काँग्रेस द्वारा खड़ा किया हुआ ‘पोस्टर बॉय’। पूर्ण रूप से मुस्लिम मानसिकता और मुस्लिम संस्कारों में विकसित हुआ नेतृत्व..! असली नाम – मोहिउद्दीन अहमद। इनके पुरखे बाबर के साथ आक्रांता के रुप मे भारत में आए थे। मूलतः अफगानिस्तान के हेरात प्रांत के। 1857 के क्रांति युद्ध के दौरान, इनके पिता, भागकर मक्का पहुंचे। बाद में वहां की स्थानीय महिला से विवाह किया। मौलाना साहब का जन्म भी मक्का का। मुस्लिम पद्धति से मदरसों में इनकी शिक्षा हुई। अल-हिलाल और अल-बलाघ, इन दो उर्दू सप्ताहिकों के संस्थापक संपादक। खिलाफत आंदोलन के प्रमुख समर्थक। अलीगढ़ के ‘जामिया मिलिया इस्लामिया’ के संस्थापक सदस्य।

और स्वतंत्रता मिलने के बाद, ग्यारह वर्ष तक भारत के शिक्षा मंत्री..!

जिनका भारतीय संस्कृति से, आचार – विचारों से, इस धरोहर से कोई संबंध नहीं, और यदि है तो केवल ऊपरी, सतही संपर्क, ऐसे व्यक्ति के हाथों हमने स्वतंत्रता के पश्चात ग्यारह महत्वपूर्ण वर्षों तक शिक्षा मंत्रालय सौंपा..!

इससे, अंग्रेजों ने जो उपनिवेशिक मानसिकता भारतीयों के मन में ठूंस – ठूंस कर भरी थी, उसे दूर करने के प्रयास हुए ही नहीं। साथ ही शिक्षा का प्रवाह इस देश की संस्कृति से, इस देश की ज्ञान परंपरा से, इस देश की धरोहर से जोड़ने का प्रयास भी नहीं हुआ।

इस देश के पहले वित्त मंत्री कौन थे?

1946 से 1947, इस अंतरिम सरकार में वित्त मंत्री थे, मुस्लिम लीग के लियाकत अली खान, जो बाद में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने। लेकिन स्वतंत्रता के बाद, प्रथम वित्त मंत्री बने, आर. के. षण्मुख चेट्टी। पूर्व में कोचीन रियासत के दीवान रह चुके चेट्टी, अत्यंत होशियार और कर्तव्य परायण थे। जस्टिस पार्टी के माध्यम से वे इस सरकार में शामिल हुए थे। लेकिन उनके नेहरू के साथ मतभेद थे। जैसे तैसे एक वर्ष उन्होंने वित्त मंत्री के रूप में काम सम्भाला और 17 अगस्त, 1948 को उन्हें इस्तीफा देने के लिए विवश किया गया।

उनके बाद कमान सम्हाली जॉन मथाई ने। वे भी दो वर्ष से ज्यादा नहीं टिक पाये। इस्तीफा देकर वे टाटा सन्स में निदेशक पद पर वापस चले गए। उनके बाद आए चिंतामणराव देशमुख। अत्यंत प्रतिभाशाली देशमुख, अच्छी तरह से काम कर रहे थे। किन्तु ‘संयुक्त महाराष्ट्र’ के विषय में, नेहरू की मनमानी कार्य पद्धति और नीति के विरोध में उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। उनकी जगह पर आए, नेहरू के प्रिय टी टी कृष्णम्माचारी। उन्हें एक ही वर्ष में, भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण त्यागपत्र देना पड़ा। उनके बाद अगले डेढ़ वर्ष तक जवाहरलाल नेहरू ने ही वित्त मंत्री का पद संभाला।

देश के सशक्त पुनर्निर्माण के लिए आवश्यकता थी, स्पष्ट और मजबूत वित्तीय नीति की। नेहरू ने उसका मज़ाक बनाया। सोवियत रशिया की आर्थिक नीति से प्रभावित नेहरू ने भारत की अर्थ व्यवस्था को चौपट कर के रख दिया। एक भी वित्त मंत्री को स्वतंत्र रूप से काम नहीं करने दिया, उलटे उन पर अपनी राय थोपने का प्रयास किया।

देश पर होने वाले दूरगामी परिणाम, भविष्य के बारे में दूरदृष्टि, भविष्य की योजनाएं…. इन सब का नेहरू से कोई संबंध भी था? सारी दुनिया को स्वच्छ और साफ दृष्टि से दिख रहा था कि चीन, तिब्बत पर कब्जा करने वाला है। पर नेहरू को वह नहीं दिख सका। तिब्बत के बाद चीन, भारत पर आक्रमण करेगा, ऐसा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी और वीर सावरकर से लेकर सेना के वरिष्ठ अधिकारी भी बता रहे थे। परंतु तब भी नेहरू को वह नहीं दिख सका.. वह नेहरू द्रष्टा…?

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात स्थापित प्रथम राष्ट्रीय मंत्रिमंडल में उद्योग मंत्री थे, डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी। वे हिन्दू महासभा से कोटे से मंत्रिमंडल में शामिल हुए थे। श्यामाप्रसाद जी स्वदेशी के प्रबल समर्थक थे। उनकी साफ और स्पष्ट राय थी कि भारत का नवनिर्माण करना है, तो सरकारी और गैर सरकारी, सभी संसाधनों का उपयोग किया जाना चाहिए। किन्तु नेहरू के दिमाग में सोवियत रशिया का सरकारी मॉडल बिलकुल फिट बैठा था। इसलिए डॉक्टर मुखर्जी के, नेहरू जी से मतभेद होने लगे। डॉ. मुखर्जी ने बिहार के सिंद्री में एक उर्वरक कारख़ाने के निर्माण की योजना बनाई। बिहार में कोयले के अकूत भंडार को देखते हुए उन्होंने, यह उर्वरक कारख़ाना कोयला आधारित बनाने का निर्णय लिया। किन्तु पेट्रो – केमिकल आयात करने वाली एक खूब बड़ी लॉबी, नेहरू जी की सहायता से, इस प्रस्ताव का विरोध कर रही थी। नेहरू जी के स्वतः प्रधानमंत्री होने के कारण स्वाभाविकतः इस लॉबी की जीत हुई। अंततः डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने 6 अप्रैल 1950 को मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया।

उर्वरक का वह कारख़ाना आज भी सिंद्री में खड़ा है। किन्तु यह चल रहा है, खाड़ी देशों से आयात किए गए पेट्रो – केमिकल्स पर। हमारा देश आज बड़ी मात्रा में इस परियोजना पर विदेशी मुद्रा खर्च कर रहा है।

डॉ. मुखर्जी और अनेक अन्य राष्ट्रीय नेताओं की सलाह को नजरअंदाज कर के नेहरू ने रशियन आर्थिक मॉडल अपनाया। इसके कारण, अत्यंत अनुकूल अवसर सामने होते हुए भी हम ज्यादा प्रगति / विकास नहीं कर सके। दूसरे विश्व युद्ध में बेचिराख हुए जर्मनी, जापान, फ्रांस जैसे देश हमसे बहुत आगे निकल गए। आखिरकार, जब देश को सोना गिरवी रखने की बारी आई, तब 1992 में, पहले की आर्थिक नीति पर पूर्णतः यू टर्न मारते हुए हमने मुक्त अर्थव्यवस्था स्वीकार की।

हम सब का दुर्भाग्य था, कि हमने देश ऐसे लोगों के हाथों में सौंपा, जिनकी रीढ़ की हड्डी ही गायब थी..!

लंदन से प्रकाशित ‘द गार्जियन’ दैनिक समाचार पत्र ने, वर्ष 2014 में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव पर संपादकीय लिखा है। रविवार, 18 मई 2014 को लिखे इस संपादकीय के वाक्य हैं, “Today, 18th May 2014, may well go down in history as the day when Britain finally left India.” इसी में आगे लिखा है, “India under the Congress party was in many ways a continuation of the British Raj by other means.”

संक्षेप में, अंग्रेजों का चलाया हुआ ‘विनाशपर्व’ समाप्त होने के लिए वर्ष 2014 की प्रतीक्षा करनी पड़ी..!

(‘विनाशपर्व’ पुस्तक के अंश)
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