विरासत (लघुकथा)
शुभम वैष्णव
चुनाव नजदीक आ गए थे। सभी राजनीतिक दलों में टिकट बांटने पर मंथन चल रहा था। नेता भी अपनी अपनी तरह से टिकट की जुगाड़ में थे। तभी एक पुराने नेताजी से उनके किसी समर्थक ने कहा – मुझे तो पता चला है कि इस बार आपको टिकट नहीं मिलेगा। इस पर नेताजी बोले हमने तो अपनी आधी जिंदगी सत्ता सुख भोगते हुए जनता की सेवा में लगा दी। हमें टिकट का क्या करना। फिर सिर पर हाथ फेरते हुए बोले अब तो बस बेटे की चिंता है।
कहीं आपका इरादा अपने बेटे को टिकट दिलवाने का तो नहीं है समर्थक ने धीरे से पूछा।
प्रयास तो यही कर रहे हैं – जैसे तैसे, ले देकर टिकट का जुगाड़ हो जाए। वैसे अधिक चिंता की बात नहीं है कोई ना कोई दल टिकट दे ही देगा। अपनी जाति बिरादरी में आज भी हमारा प्रभुत्व है। यदि अपनी पार्टी टिकट नहीं देगी तो हम पार्टी ही बदल लेंगे। हर पिता अपनी विरासत अपने बेटे को सौंप कर जाता है, हमें भी आखिरकार अपनी राजनीतिक विरासत अपने बेटे के हाथों में ही सौंपनी है। वैसे भी वह ज्यादा पढ़ लिख नहीं सका, टिकट मिल गया तो जनता की सेवा करेगा। यूं भी हमारी तो उम्र हो चली है बेटा सैटल हो जाए यही चिंता है। फिर बाप की विरासत बेटा नहीं संभालेगा तो कौन संभालेगा, नेताजी ने हंसते हुए कहा।