तालिबान, ‘डिस्टमेंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व’ और विवेकानंद का विश्व बंधुत्व
11 सितंबर/ विश्वबंधुत्व दिवस/
निखिल यादव
तालिबानी मानसिकता और ‘डिस्मेंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व’ का षड्यंत्र रचने वालों को एक बार फिर से स्वामी विवेकानंद और हिंदू धर्म के विश्वबंधुत्व के दर्शन को सुनना और पढ़ना चाहिए।
आज जब पूरी दुनिया इस्लामिक आतंक के पर्याय तालिबान के अपने ही लोगों पर अमानवीय शोषण के समाचारों से स्तब्ध है, उस दौर में भारत के महान योगी स्वामी विवेकानंद के विश्व को दिए गए हिंदू धर्म के संदेश सामयिक हो जाते हैं। इसी दौर में जब मानवता को बचाने के लिए हिंदू धर्म का दर्शन एकमात्र मार्ग बचा है, उस समय दुर्भाग्य के मारे दुनिया के थके हारे और तिरस्कृत वामपंथी तथा हिंदूफोबिक कट्टरपंथी डिस्मेंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व (dismantling global hindutva) के नाम पर कुचक्र रच रहे हैं। इन कुचक्रों के बीच महान भारतीय योगी और विचारक स्वामी विवेकानंद का 11 सितम्बर, 1893 को विश्व धर्म महासभा में दिया गया भाषण फिर से याद करना सामयिक होगा, जिसमें उन्होंने कहा था, “मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व अनुभव करता हूँ, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी है। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते बल्कि, हम सभी धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं।”
इस धर्म सभा में जहां एक तरफ दुनिया भर से आए यहूदी, इस्लाम, बौद्ध, ताओ, कनफ्यूशियम, शिन्तो, पारसी, कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेंट इत्यादि धर्मों के अनेकों प्रतिनिधि अपने धर्म को श्रेष्ठ स्थापित करने के लिए यहाँ आए थे, वहीं दूसरी तरफ स्वामीजी के सबको स्वीकार करने वाले सन्देश ने वहां उपस्थित सभी मनुष्यों को चिंतन में डाल दिया था। स्वामीजी आगे कहते हैं कि, “मुझे गर्व है कि मैं उस देश से हूँ जिसने सभी धर्मों और सभी देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को अपने यहां शरण दी। मुझे आपको यह बताते हुए गर्व होता है कि हमने अपने वक्ष में यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट अंश को स्थान दिया था, जिन्होंने दक्षिण भारत में आकर उसी वर्ष शरण ली थी, जिस वर्ष उनका पवित्र मंदिर रोमन हमलावरों ने तहस- नहस कर दिया था। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूँ जिसने पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और लगातार अब भी उनकी मदद कर रहा है।”
स्वामी विवेकानंद के इस भाषण के साथ-साथ अफगानिस्तान से हवाई जहाज के पंखों पर लटककर सुरक्षित जगहों पर जाने का प्रयास कर रहे अफगानियों के चित्रों को याद कीजिए। अफगानिस्तान में मार दिए गए और भगा दिए गए हिंदुओं, सिखों और बौद्धों पर शोषण की घटनाएं तो बहुत सामान्य सी बात हैं, लेकिन अपने मत को मानने वालों के भीतर भी इतनी असुरक्षा की भावना भर दी गई है कि उन्हें हवाई जहाज के पंखों से गिरकर मरना मंजूर है, लेकिन कथित तौर पर इस्लामिक शरियत के अनुसार कानून का राज स्थापित करने वाले तालिबान के शासन में रहना स्वीकार नहीं है। भला यह कैसा शासन है जो कथित तौर पर इस्लामिक शरिया के अनुसार होते हुए भी लोग अफगानिस्तान की सरहदों को पार कर भागना चाहते हैं। और दुनिया की तथाकथित महाशक्तियां हैं कि उस तथाकथित कानून के राज के सामने नतमस्तक हैं। ये महाशक्तियां लोगों को मरते हुए, भागते हुए, बिलखते हुए और गोली खाते हुए देखने को विवश हैं।
फिर से स्वामी विवेकानंद का वह भाषण याद करने की आवश्यकता है, जिसमें 11 से 27 सितम्बर, 1893 तक चले विश्व धर्म महासभा में उन्होंने पहली बार विश्व के सामने पंथ, सम्प्रदाय, जाति, रंग, प्रान्त जैसे संकीर्ण और संकुचित बंधुत्व से भिन्न एक नवीन बंधुत्व ”विश्वबंधुत्व” का सन्देश दिया था। यह विश्वबंधुत्व का संदेश सनातन धर्म के ग्रंथों का सार है। पूरे विश्व को यह चिंतन करना चाहिए कि इस्लाम का उम्माह और सनातन हिंदू धर्म के विश्वबंधुत्व दर्शन में से विश्व कल्याण का सच्चा साधन क्या है।
महाभारतकालीन गांधार जो आज का अफगानिस्तान है वहां वर्षों से जीवनयापन कर रहे हिन्दू ,बौद्ध और अन्य पंथों पर मुस्लिम आक्रांताओ ने प्रहार करना शुरू किया तो अन्य मुसलमानों को लगा कि यह तो मुसलमानों और अन्य पंथों के बीच की लड़ाई है, इसमें वे सब सुरक्षित हैं। उस समय हिन्दुओं और बौद्धों को चुन-चुन कर मारा जाने लगा। उनकी बहुतायत जनसंख्या धीरे धीरे कम होने लगी। 1970 में वर्षों का शोषण और यातना सहकर भी जो सात लाख हिन्दू और सिख लोग वहां बचे थे उनकी संख्या आज सात हजार से भी कम रह गई है। इससे हम अनुमान लगा सकते हैं कि गैर-मुस्लिम के लिए वहां कैसी स्थिति होगी।
अफगानिस्तान में गैर-मुस्लिम जनसंख्या तो खत्म होने की कगार पर है। लेकिन क्रूरता अब भी रुकी नहीं है। पहले जो मुस्लिम गैर-मुस्लिम के प्रति घृणा रखता था, आज वह अपने ही साथी मुस्लिम के प्रति रखता है। इसका मूल कारण सिर्फ घृणा का भाव है। आज एक मुस्लिम दूसरे मुस्लिम को ही मार रहा है। इसीलिए हमको यह समझना होगा की वर्षों पहले गैर-मुसलमानों के विरुद्ध जो नफ़रत और घृणा का बीज बोया था, आज बीज रोपने वालों को भी खोखला कर रहा है। जिसने उस समय आवाज़ नहीं उठाई, आज उसे भी नुकसान झेलना पड़ रहा है। परिस्थितियां इतनी भयावह हो गई हैं कि एक दूसरे को स्वीकार करना तो दूर की बात है, सहन करने का भी भाव खत्म हो गया है।
आज की घोर असहिष्णु परिस्थितियों और उदार सनातन हिंदू धर्म पर आक्षेप लगाने वालों को स्वामीजी के 128 वर्ष पूर्व दिए हुए उस सन्देश को याद करने की आवश्यकता है जो संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा देता है। आज का सत्य यही है कि सनातन हिंदू धर्म का उदारवाद और सबको समाहित करने का दर्शन ही धरती पर मानवता को बचा सकता है।
(लेखक विवेकानंद केंद्र के उत्तर प्रान्त के युवा प्रमुख हैं और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं)