वीर सावरकर की ऐतिहासिक छलांग और दो आजीवन कारावास
भाग चार
अनन्य
सावरकर ने कर्जन वाइली की हत्या के बाद, पेरिस छोड़ने का निर्णय किया, ताकि क्रान्ति कार्य को इंग्लैण्ड में सुचारु रूप से सम्भाला जा सके। उनके भारत आने पर पहले ही रोक लगा दी गई थी, इसीलिए उन्होंने क्रांति को फिर से शुरू करने के लिए लंदन वापस जाने का निर्णय लिया।
सावरकर लंदन एक ट्रेन से गए। जैसे ही वह स्टेशन पर उतरे, पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और ब्रिक्सटन जेल भेज दिया। लेकिन सावरकर की वीरता से विश्व भी हैरान था। जिस जहाज में सावरकर को वापस भारतीय भूमि पर भेजा जा रहा था, 8 जुलाई 1910 को जब वह फ्रांस के मार्सेलिस बंदरगाह के पास था, तो उन्होंने एक साहसिक निर्णय लेकर जहाज के सुरक्षाकर्मी से शौच जाने की अनुमति मांगी और शौचालय से समुद्र की ओर खुलने वाले रोशनदान से समुद्र में छलांग लगा दी।
बहुत देर होने पर सुरक्षाकर्मी ने जब समुद्र की ओर देखा, तो वे तैरते हुए फ्रांस के तट की ओर बढ़ रहे थे। ब्रिटिश सैनिकों ने गोलीबारी करते हुए एक छोटी नौका लेकर उनका पीछा किया; पर सावरकर उनकी चिन्ता न करते हुए तेजी से तैरते हुए किनारे पर पहुंच गये और स्वयं को फ्रांसीसी पुलिस के हवाले कर वहां राजनीतिक शरण मांगी। अंतर्राष्ट्रीय कानून का जानकार होने के कारण उन्हें मालूम था कि उन्होंने फ्रांस में कोई अपराध नहीं किया है, इसलिए फ्रांस की पुलिस उन्हें गिरफ्तार तो कर सकती है; पर किसी अन्य देश की पुलिस को नहीं सौंप सकती। उन्होंने फ्रांस के तट पर पहुंच कर स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया। लेकिन दुर्भाग्य से फ्रांस की पुलिस दबाव में आ गई और उसने सावरकर को ब्रिटिश सैनिकों को सौंप दिया। उन्हें कठोर पहरे में वापस जहाज पर ले जाकर हथकड़ी और बेड़ियों में कस दिया गया। मुंबई पहुंच कर उन पर मुकदमा चलाया गया।
भारत में विनायक सावरकर के मुकदमे में कोई जूरी नहीं थी और उन्हें अपील करने के अधिकार से भी वंचित कर दिया गया था। अंग्रेजों ने उन पर क्राउन के विरुद्ध युद्ध छेड़ने, जैक्सन की हत्या और देशद्रोह करने का आरोप लगाया। अंग्रेजों में सावरकर की उपस्थिति का ऐसा डर था कि उन्हें एक नहीं अपितु दो दो आजीवन कालापानी की सजा सुनाई गई।
अपने प्रयास में असफल होने पर भी वीर सावरकर की इस छलांग का ऐतिहासिक महत्व है। इससे भारत की परतंत्रता वैश्विक चर्चा का विषय बन गयी। फ्रांस की इस कार्यवाही की उनकी संसद के साथ ही विश्व भर में निंदा हुई और फ्रांस के राष्ट्रपति को त्यागपत्र देना पड़ा। हेग स्थित अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में भी इसकी चर्चा हुई और ब्रिटिश कार्यवाही की निंदा की गयी। सावरकर की लोकप्रियता इतनी थी कि चीन से लेकर मिस्र तक, उनके साहसिक कार्यों के समाचार और चित्रों की मांग रहती थी।