वेब सीरीज – तांडव (समीक्षा)
डॉ. अरुण सिंह
अली अब्बास ज़फ़र की “तांडव” ने बहुत ही भौंडा तांडव किया है। उद्देश्य तो बहुत बड़ा था, पर सफल नहीं हो पाए। राजनीतिक ड्रामा की आड़ में हिन्दू मान्यताओं, आस्था, देवताओं और पद्धति पर क्रूर प्रहार करने का प्रयास है, परन्तु यह प्रहार तो नकली पटाखे की तरह फुस्स निकला। निर्देशक महोदय पस्त हो गए, क्योंकि इस बार वे जनता के हाथ आ गए हैं। नाटकीय मंचन में भगवान शंकर को वामपंथी बना दिया गया है और भगवान राम से प्रतिस्पर्धा करवाई गई है। यहाँ राम हिन्दू हैं और भोलेनाथ वामपंथी। राम सत्ता में हैं और शंकर आज़ादी चाहते हैं। मोहम्मद जीशान अय्यूब, जो स्वघोषित वामपंथी हैं, शंकर बने हैं। प्रधानमंत्री देवकीनंदन सैनिकों का उपहास बनाते हैं। वे सत्ताधारी, सामंतवादी होने का दावा करते हैं, ऐसा निर्देशक बताना चाहता है। समरप्रताप (सैफ अली खान) का निजी सहायक गुरपाल मूंगा धारण की हुई अंगूठी पर सिगरेट बुझाता है। यह भारतीय ज्योतिष के प्रति वामपंथी कुंठा की प्रतिक्रिया है।
“सदियों के अत्याचारों” वाले झूठे विमर्श की पुनरावृत्ति अब प्रभावी नहीं रही, फिर भी मिथक को जारी रखने का प्रयास किया गया है। भ्रष्ट पुलिस निरीक्षक जाखड़ अधर्म का नाश करने के लिए कहता है। विचित्र विडंबना यह भी है कि भगवान राम का मखौल भी उड़ाया जाता है और समर प्रताप महान बनने के लिए स्वयं की तुलना भी राम से ही करता है। वीएनयू विश्वविद्यालय है या कॉलेज, निर्देशक महोदय यह तय नहीं कर पाए। कोई पात्र यूनिवर्सिटी कहता है, और कोई कॉलेज। पोलिटिकल ड्रामा है, पर विपक्ष का तो अस्तित्व ही नहीं है। बस 5-10 पात्र ही पूरे भारत के नेता बने हुए हैं। कहानी के नाम पर केवल सनसनीखेज घटनाक्रम है। देखा जाए तो यह वेबसीरीज के नाम पर बनावटी, अपरिपक्व, शोधरहित और अत्यंत ही भौंडा प्रदर्शन है। अपेक्षा है ज़फर अगली बार मोहम्मद साहब पर भी इस प्रकार का कोई दृश्य रखें अपनी फ़िल्म में।