शादीस्थान : सनातन संस्कृति पर कुठाराघात (फिल्म समीक्षा)

शादीस्थान : सनातन संस्कृति पर कुठाराघात (फिल्म समीक्षा)

अरुण सिंह

शादीस्थान : सनातन संस्कृति पर कुठाराघात (फिल्म समीक्षा)

फिल्म “शादीस्थान” देखी। किसी भी दृष्टि से मुझे फिल्म का एजेंडा ठीक नहीं लगा। वस्तुत: यह सनातन संस्कृति के विरुद्ध चल रहे षडयंत्र का ही हिस्सा है। इन नंग – धड़ंग, नशेड़ी, व्यभिचारी, अपरिपक्व नौजवानों को किस दृष्टि से भारत की संस्कृति, परिवार संस्था शोषणकारी लगती है? क्या एक मध्यमवर्गीय पिता अपनी पुत्री के लिए परवाह नहीं कर सकता? यदि सामाजिक और पारिवारिक ढांचा इतना ही शोषणकारी और घुटन पैदा करने वाला है, तो सदियों से चली आने वाली यह संस्था टूट क्यों नहीं गई? यह अब भी कायम है, क्योंकि इसमें मूल्य निहित हैं। और फिर आधुनिकता क्या है? हिप्पी जीवन शैली, गांजा और शराब, व्यभिचार, कर्कश शोर जिसे संगीत का नाम दिया जाता है? भारत के महानगरों में इस तरह का जीवन जीने वाले नौजवान आए दिन आत्महत्या करते हैं, तब ये आधुनिक, क्रांतिकारी विचार उन्हें बचा नहीं पाते। पिता और पुत्री के संबंधों को इस फिल्म में ठीक स्थान नहीं दिया गया है। पिता पारिवारिक दायित्वों का निर्वाह करता है, तो वह परिवार के अन्य सदस्यों का शोषण कैसे हो गया? क्या इस प्रक्रिया में वह कष्ट नहीं सहता? क्या यह परिवार के लिए उसका त्याग नहीं? क्या पारिवारिक जीवन संभोग और शारीरिक अंतरंगता तक ही सीमित है? जीवन का हर पहलू पितृसत्तात्मक विचार के ढांचे में नहीं ढाला जा सकता।

भारतीय समाज में लड़कियों का भागकर विवाह करना विवादास्पद पहलू रहा है। और इस प्रसंग में लड़की के माता, पिता और भाई आदि द्वारा विरोध करने पर उन्हें व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हत्यारा बता दिया जाता है? अल्पवय में विवाह उचित नहीं है, परन्तु क्या नशाखोरी और व्यभिचार ठीक है? क्या जीवन की कुंठाओं का शमन इसी में है? वस्तुत: यह तो कुंठा और विद्रूपण का प्रसारण है। साशा जिस तरह अपने विचारों और जीवन शैली को सार्वभौमिक सिद्ध करना चाहती है और दूसरों पर थोपना चाहती है, वह उसकी सीमित और कुंठित मानसिकता का परिचायक है। 17-18 वर्ष की लड़की आरसी कुछ ही घंटों में उसे अपना आदर्श मान लेती है, यह बहुत ही हास्यास्पद लगता है।

स्वघोषित संगीतकारों का यह समूह स्वयं को इतना ज्ञानी और अनुभवी समझने लगता है कि परिवार की इकाई को हेय मानता है। यहां हेय परिवार की इकाई मात्र नहीं, पूरी सनातन संस्कृति है। क्योंकि ख्वाजा के दरबार में तो उनकी आस्था और विश्वास जाग उठते हैं। फिल्म के लेखक- निर्देशक ने बहुत चालाक बनने का प्रयास किया है। जो माता – पिता अधेड़ उम्र तक सनातन संस्कृति को दृढ़ विश्वास और समर्पण के साथ निर्वहन करते आ रहे हैं, वे कुछ ही घंटों में “भाड़ में जाए समाज” कैसे कह सकते हैं? जबकि आरसी की मां के जीवन में कोई कुंठा नहीं है। वह अपने पति की तरह पारिवारिक दायित्वों में संतुष्ट और प्रसन्न है। और फिर, पूर्ण संतुष्टि तो इन नौजवानों के जीवन में भी नहीं है, पर इन्हें समस्या गृहस्थ आश्रम की पारम्परिक व्यवस्था से है। इन्हें हिन्दू नाम भी अच्छे नहीं लगते। अधिकतर इनके नाम भी ईसाई और इस्लामी रखे गए हैं।

स्वच्छंद जीवन शैली वाले युवा गुजरात की सीमा आते ही शराब की बोतलें गाड़ी से बाहर फेंक देते हैं, अर्थात् वे “लॉ ऑफ द लैंड” का बड़ी चतुराई से पालन करते हैं। खतरा पुरानी पीढ़ी और सनातन संस्कृति को नहीं है, खतरा उन्हीं को है जो स्वतंत्रता और आधुनिकता के नाम पर आक्रांता संस्कृतियों के चंगुल में फंस चुके हैं। उन्हें लगता है कि वे आधुनिक हैं, पर ऐसा नहीं है। भीतर झांक कर देखेंगे तो पाएंगे, या तो वे ईसाई हैं या फिर मोमिन।

अजमेर दरगाह में प्रवेश करते ही साशा की आंखों से टेसू बह निकलते हैं। असल में दकियानूसी यह परिवार नहीं है, इसे ऐसा दिखाया गया है। दकियानूसी और पूर्वाग्रही तो ये युवा संगीतकार हैं, जो आधुनिकता और पूंजीवादी संस्कृति की आड़ में सनातन व्यवस्था को धता बताते हैं। अभिनेत्री कीर्ति कुलहरी कुछ माह पहले राजस्थान स्थित अपने पैतृक गांव में आई थीं। यहां उन्होंने साड़ी पहनी हुई थी और परिवार और संबंधियों के साथ पारंपरिक भोजन भी किया। तो फिर क्या यह हिप्पी (पाश्चात्य जंगली शैली) जीवन केवल पर्दे के लिए होता है? इतना ढोंग क्यों करते हैं? शायद कुंठा होने लगती है हिप्पी जीवन से भी।

Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *