शिवलिंग क्या है..?
प्रशांत पोळ
वर्ष 2022 की मई में जब काशी के ज्ञानव्यापी में सर्वे हुआ तो वहां शिवलिंग पाया गया। इस समाचार पर देश में जहां अधिकांश स्थानों पर आनंदोत्सव हुआ, तो कुछ ऐसे भी थे, जिन्होंने शिवलिंग को लेकर भद्दे कमेंट किए, मजाक उड़ाया। शिवलिंग को पूजने वाले हिन्दुओं को जंगली और दकियानूसी कहा। असदुद्दीन ओवेसी की पार्टी AIMIM के प्रवक्ता दानिश कुरैशी ने अत्यंत आपत्तिजनक और वीभत्स पोस्ट लिखी, जिसके कारण उन्हें गिरफ्तार भी होना पड़ा।
इन सब विवादों के बीच में मैं सोच रहा था, ‘प्रगत हिन्दू समाज किसी देवता के लिंग की पूजा कैसे कर सकता है? हमारा धर्म तो प्राचीन काल से वैज्ञानिक मान्यताओं पर कसा गया है। यहां पर तो प्रत्येक कृति के पीछे कार्य कारण भाव है, विज्ञान है, तर्क है। फिर लिंग की पूजा क्यों?
यह भी कहा जाता है कि शिवलिंग जिस पर रखा जाता है वह देवी पार्वती की योनि है। शिवलिंग मिलन का संकेत देता है। यह तर्क भी गले नहीं उतरता। हिन्दू धर्म प्रतीकात्मक (symbolic) रूप से चीजों को देखता है। इसी धर्म में भगवान शंकर को सृष्टि के विनाश का प्रतीक माना गया है। शिव-शक्ति मिलन तो सृजन का प्रतिमान है। अतः शिव-पार्वती के मिलन का यह तर्क भी गलत सिद्ध होता है।
फिर शिवलिंग वास्तव में क्या है?
पढ़ते पढ़ते अचानक स्वामी विवेकानंदजी द्वारा अगस्त 1900 में पेरिस की ‘धर्म इतिहास परिषद’ में दिया हुआ भाषण हाथ लगा। इस परिषद में जर्मन विद्वान गुस्ताव ओपर्ट ने अपने प्रारंभिक भाषण में शिवलिंग – शालिग्राम को लिंग होने के रूप में प्रस्तुत किया था। स्वामीजी ने अपने भाषण में इस सिद्धांत का पुरजोर खंडन किया। इस प्रकार की सोच को उन्होंने मूर्खता कहा।
शिवलिंग की उत्पत्ति के बारे में उन्होंने अथर्ववेद के यूपस्तंभ के श्लोक का संदर्भ दिया। इस श्लोक मे एक अनादि अनंत स्तंभ का वर्णन है। यह स्तंभ या स्कंभ याने ब्रह्म..! जिस प्रकार यज्ञ की अग्नि, अग्निशिखा, धूम (धुआं), भस्म, सोमलता और यज्ञकाष्ठ वहन करने वाला वृषभ (बैल) महादेव श्री शंकर की पिंगल जटा, नीलकंठ, अंगकान्ति और नंदी में परिणीत हुए हैं, उसी प्रकार यूपस्तंभ भी श्री शंकर में लीन होकर उसी का प्रतीक बना है। पूजा के लिये पात्र हुआ है।
अथर्ववेद के 10 वें कांड के 7 वें सूक्त का 35 वां श्लोक है –
_स्कम्भो दाधार द्यावापृथिवी उभे इमे स्कम्भो दाधारोर्वन्तरिक्षम् ।_
_स्कम्भो दाधार प्रदिशः षडुर्वीः स्कम्भ इदं विश्वं भुवनमा विवेश ।।_
अर्थात ‘स्तंभ ने स्वर्ग, धरती और धरती के वातावरण को थाम रखा है। स्तंभ ने 6 दिशाओं को थाम रखा है और यह स्तंभ ही संपूर्ण ब्रह्मांड में फैला हुआ है।’
इसका अर्थ यह है कि भगवान शंकर को हम जिस रूप में पूजते हैं, वह ब्रम्हाण्ड का प्रतीक है। अर्थात असीम ऊर्जा, असीम शक्ति का प्रतिमान है। यह ऊर्जा, यह शक्ति चाहे तो हमारे लिए जीवनदायिनी हो सकती है, या संपूर्ण विनाश का कारण भी बन सकती है। ऋग्वेद के नारदीय सूक्त में, 10 वें मण्डल के 129 वें सूक्त में लिखा है – ‘शिवलिंग का संबंध ब्रम्हांड की उत्पत्ति के साथ है।’
हिन्दू धर्म ने इस शक्ति की प्रतीक के रूप में आराधना की, पूजन किया, जिसे बाद में शिवलिंग कहा गया। यहां ‘लिंग’ या ‘लिंगम’ शब्द मानवी लिंग से अभिप्रेत नहीं है। संस्कृत में ‘लिंग’ या ‘लिंगम’ का अर्थ होता है – चिन्ह। बड़े आकार के गोलाकार स्तंभ के रूप में भगवान शंकर की आराधना होने लगी। प्राचीन मंदिरों में बड़े और भव्य आकार में शिवलिंग मिलते हैं। आंध्र प्रदेश के काकीनाडा से 28 किलोमीटर दूरी पर स्थित द्रक्षरामम शिवमंदिर में साढ़े आठ फिट ऊंचा भव्य शिवलिंग स्थापित है। इस मंदिर का जीर्णोद्धार नौवीं शताब्दी में हुआ ऐसे शिलालेख इस मंदिर में मिलते हैं, अर्थात यह मंदिर उससे भी प्राचीन होगा।
इस मंदिर के बनने के लगभग दो सौ वर्षों के बाद भोपाल के राजा भोज ने, भोजपुर में एक शिवमंदिर बनवाया। इस मंदिर में 18 फीट ऊंचा तथा साढ़े सात फिट व्यास का भव्य शिवलिंग स्थापित है।
छत्तीसगढ़ के बिल्कुल बीच में स्थित, केशकाल घाटी के मध्य में, गढधनोरा में भी एक विशाल शिवलिंग स्थापित है, जो पांचवीं – छठवीं शताब्दी का है। ये मात्र कुछ उदाहरण हैं। ऐसे भव्य शिवलिंग अनेक प्राचीन मंदिरों में हैं।
इसीलिए काशी के ज्ञानव्यापी में जब भव्य शिवलिंग मिला तो आश्चर्य होने की बात नहीं थी। इस्लामी आक्रांता आने से पहले समूचे भरत खंड में (कंधार, पेशावर से लेकर फिलीपिन्स और इंडोनेशिया तक) भगवान श्री शंकर को बड़े, विशाल शिवलिंग के रूप में ही पूजा जाता था। अभी कुछ महीने पहले वियतनाम तथा इंडोनेशिया में 1100 -1200 वर्ष पुराने विशालकाय शिवलिंग मिले हैं। यह इसी बात का प्रमाण है।
किंतु इस्लामी आक्रांता आने के बाद सब कुछ बदल गया।
बड़े और विशाल शिवलिंगों की पूजा मंदिरों में करना संभव नहीं था। इस्लामी आक्रमण होते थे तो अन्य देवताओं के विग्रह (मूर्तियां) तो पुजारी / पंडित उठाकर कहीं छिपा देते थे। किंतु ऊर्जा के प्रतीक इन विशाल शिवलिंगों को कहीं छुपाना संभव ही नहीं था। इसलिये ग्यारहवीं – बारहवीं शताब्दी के बाद शिवलिंग छोटे आकार में बनने लगे और घरों में उनकी पूजा आराधना होने लगी। फिर मंदिरों में भी, तुलना में, छोटे आकार के शिवलिंग स्थापित किये जाने लगे। इनका आकार पुरुषों के लिंग से मिलता था और नाम तो था ही! मूलतः संस्कृत में लिंग का अर्थ होता है प्रतीक या चिन्ह। किंतु बाद में यह अर्थ भुला दिया गया। और ब्रह्म / ब्रम्हांड का प्रतीक माने जाने वाले ऊर्जा के स्रोत शिवलिंग का विकृत अर्थ प्रचलन में आ गया।
शिवलिंग का अर्थ तो हम संस्कृत से समझ सकते हैं। शायद प्रतीकों को भी कुछ सीमा तक जान सकते हैं। किंतु शिवलिंग की, शिवमंदिरों की, ज्योतिर्लिंगों की, गूढ़ता समझना कठिन है।
प्राचीन काल के शिवलिंग का आकार और आधुनिक समय के एटॉमिक रिएक्टर का आकार एक जैसा क्यूं? दक्षिण ध्रुव (अंटार्टिका) से निकलने वाली बिना बाधा की सीधी रेखा 12 ज्योतिर्लिंगों के श्लोक में वर्णित पहले ज्योतिर्लिंग, सौराष्ट्र के सोमनाथ पर ही क्यूं पड़ती है? पंचमहाभूतों के बने पांच महादेव मंदिरों में से तीन मंदिर एक सीधी रेखा पर कैसे बने हैं?
ये सभी प्रश्न अनुत्तरित हैं।
भगवान शिव के रूप में ब्रह्म और ब्रम्हांड का प्रतीक हमारे पुरखों ने हमारे सामने रखा। किंतु हम दुर्भागी उसे पुरुष लिंग के स्वरूप में समझकर पूजते रहे। लगभग सवा सौ वर्ष पहले पेरिस से स्वामी विवेकानंद ने भी बुलंदी के साथ इस विकृति का खंडन किया। यूपस्तंभ को समझाया। किंतु हम बावले, हम मूरख, फिर भी नहीं समझे।
अब जब भी आप भगवान शंकर के मंदिर में जायेंगे और शिवलिंग के सामने नतमस्तक होंगे तो विश्वास रखिए आप ब्रह्म के स्वरूप के सामने, अक्षत ऊर्जा के प्रतीक के सामने, विज्ञान की कसौटी पर कसे हुए हिन्दू धर्म के अनुयायी के रूप में शीश झुका रहे हैं..! आप कालजयी, वैज्ञानिक, सनातन संस्कृति के संवाहक हैं।