सज्जन कुमार पर निर्णय आने में क्यों लगे 40 वर्ष?

सज्जन कुमार पर निर्णय आने में क्यों लगे 40 वर्ष?

बलबीर पुंज

सज्जन कुमार पर निर्णय आने में क्यों लगे 40 वर्ष?सज्जन कुमार पर निर्णय आने में क्यों लगे 40 वर्ष?

एक बहुत ही महत्वपूर्ण समाचार, जो भारतीय सत्ता-अधिष्ठान, राजनीति और न्यायिक-व्यवस्था की बखिया उधेड़ता है— उसे ज्यादातर समाचार पत्रों ने अंदर के पन्नों में बहुत ही सीमित शब्दों में समेट दिया। गत दिनों वर्ष 1984 के दिल्ली सिख नरसंहार से जुड़े एक और मामले में कांग्रेस के पूर्व सांसद सज्जन कुमार को विशेष अदालत द्वारा दोषी ठहराया गया। यह निर्णय देश में सेकुलरवाद के भद्दे चेहरे को भी रेखांकित करता है। दोहरा हत्याकांड 1 नवंबर 1984 को हुआ। प्राथमिकी सात वर्ष बाद अक्टूबर 1991 में दर्ज हुई। अदालत का निर्णय अपराध के 40 वर्ष बाद 12 फरवरी 2025 को आया। अब सजा तय करने पर सुनवाई चल रही है। इस मामले में जो एक मुख्य गवाह 14 वर्षीय बच्ची थी, जिसने अपने पिता-भाई के कातिल को पत्रिका में तस्वीर छपने के बाद पहचान लिया था— वह न्याय की प्रतीक्षा करते-करते आज 54 वर्ष की प्रौढ़ महिला हो चुकी है। 

जिस मामले में पूर्व कांग्रेसी नेता सज्जन कुमार को दोषी ठहराया गया है, वह चार दशक पहले दिल्ली स्थित सरस्वती नगर में पिता-पुत्र की नृशंस हत्या से जुड़ा है। जिंदा जला दिए गए जसवंत सिंह की पत्नी ने अपने पति और बेटे तरुणदीप की हत्या का पूरा मंजर अदालत में बयां किया था। सज्जन पर अब तक 7 मासूमों की हत्याओं का दोष सिद्ध हो चुका है। दिल्ली कैंट की पालम कॉलोनी में भी 1-2 नवंबर 1984 को पांच लोगों को मार डाला था। इस मामले में वर्ष 2018 में सज्जन को दिल्ली उच्च न्यायालय ने दोषी ठहराते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई थी, जिसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई है। 

यह भारतीय राजनीति की विडंबना है कि उपरोक्त दोनों ही नृशंस घटनाओं के समय सज्जन कुमार दिल्ली में कांग्रेस के प्रभावशाली लोकसभा सांसद थे। हत्यारोपी होने के बाद भी सज्जन न केवल दिसंबर 2018 तक कांग्रेस के प्राथमिक सदस्य रहे, बल्कि बतौर लोकसभा सदस्य 1991-96 और 2004-09 के बीच संसद में कांग्रेस का प्रतिनिधित्व भी किया। वर्ष 2009 के आम चुनाव में भी कांग्रेस ने सज्जन के साथ सिख नरसंहार के अन्य आरोपी जगदीश टाइटलर को दिल्ली से अपना प्रत्याशी बनाया था। परंतु इस प्रकरण पर एक आक्रोशित सिख पत्रकार द्वारा तत्कालीन गृहमंत्री पी.चिदंबरम पर जूता फेंकने के बाद पार्टी ने दोनों का टिकट काट दिया। तब सज्जन की जगह उनके भाई रमेश कुमार ने कांग्रेस की टिकट पर सफलतापूर्वक चुनाव लड़ा था। 

वास्तव में, देश में इस प्रकार की घटनाओं के दोहराव के लिए वे छद्म-सेकुलवादी जिम्मेदार हैं, जो प्रत्येक घटनाओं को अपने संकीर्ण वैचारिक-राजनीतिक दृष्टिकोण से देखते हैं और तथ्यों को तोड़-मरोड़कर उस पर प्रतिक्रिया देते हैं। 27 फरवरी 2002 को गोधरा रेलवे स्टेशन पर जिहादियों ने भजन-कीर्तन कर रहे 59 कारसेवकों को ट्रेन में जिंदा जला दिया। इस घिनौनी घटना के बाद गुजरात में दंगे भड़क गए। वर्ष 2004-05 में रेलमंत्री रहते हुए राष्ट्रीय जनता दल के मुखिया लालू प्रसाद यादव ने एक समिति के माध्यम से गोधरा कांड को सिर्फ दुर्घटना बताया, जिसे अदालत ने निरस्त कर दिया। कालांतर में न्यायालय ने मामले में हाजी बिल्ला, रज्जाक सहित 31 को दोषी पाया। 

इसी तरह वर्ष 2008 में मुंबई पर भयावह 26/11 आतंकवादी हमला हुआ, जिसमें 29 विदेशी सहित 166 निरपराध मारे गए थे। जिहादी कसाब के बाद अमेरिका में आतंकवादी डेविड हेडली और तहव्वुर राणा के जीवित पकड़े जाने के बाद अक्टूबर 2009 तक पूरी तरह स्पष्ट हो चुका था कि यह पाकिस्तानी षड्यंत्र है। लेकिन दिसंबर 2010 में कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने मनगढ़ंत तथ्यों और बेबुनियाद आरोपों से भरी पुस्तक ‘26/11- आर.एस.एस. की साजिश’ का विमोचन करके राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कटघरे में खड़ा कर दिया। यह घटनाक्रम संप्रगकाल (2004-14) में जनित फर्जी-मिथ्या ‘हिंदू/भगवा आतंकवाद’ सिद्धांत का सह-उत्पाद था। 

झूठ की इसी फैक्टरी ने अब 1984 के सिख नरसंहार में आरएसएस को घसीटा है। स्वघोषित ‘सेकुलरवादी’ और वामपंथी केंचुली पहने स्वयंभू ‘उदारवादी’ यह नैरेटिव बनाने का प्रयास कर रहे हैं कि चार दशक पहले ‘कांग्रेस ने आरएसएस के समर्थन’ से सिखों का कत्लेआम किया था। इस खोखले दावे को प्रख्यात सिख विद्वान और लेखक दिवंगत खुशवंत सिंह का पुराना लेख एकाएक ध्वस्त कर देता है। 26 नवंबर 1989 को ‘द इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया’ पत्रिका में प्रकाशित अपने आलेख में खुशवंतजी ने लिखा था, “…जब कांग्रेस-आई के नेतृत्व वाले गुंडे सिखों की हत्या और लूटपाट में लगे हुए थे, तब सिखों की सहायता के लिए केवल बीजेपी और आरएसएस के सदस्य आगे आए। अटल बिहारी वाजपेयी अस्वस्थ होने के बाद भी सिखों की टैक्सियों को जलाने वाले गुंडों का सामना कर रहे थे।” इस प्रकार के ढेरों प्रमाण हैं। 

वास्तव में, 1984 के सिख नरसंहार की जड़ें औपनिवेशिक षड़्यंत्र में मिलती हैं। इसमें तब अंग्रेजों ने अपने अधिकारी मैक्स आर्थर मैकॉलीफ (1838-1913) को हिंदू-सिख के बीच नाखून-मांस जैसे संबंधों में कड़वाहट घोलने का दायित्व सौंपा था। मैकॉलीफ का एक मुख्य उद्देश्य सिख बनकर सिखों को अंग्रेजों के प्रति विद्रोह करने से भी रोकना था। इस कुप्रपंच ने प्रारंभिक सफलता के बाद अगस्त 1947 आते-आते दम तोड़ दिया। स्वाधीनता के बाद इसी मृत ‘खालिस्तान’ विचार को 1977-78 में तत्कालीन कांग्रेसी नेतृत्व ने अपने क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ और पंजाब में अकाली-जनता दल गठजोड़ से सत्ता हथियाने हेतु पुनर्जीवित किया, जिसका लाभ आज भी पाकिस्तान उठा रहा है। इस प्रपंच का उल्लेख गैर-राजनीतिक, पूर्व आईपीएस अधिकारी, भारतीय खुफिया एजेंसी ‘रिसर्च एंड एनालिसिस विंग’ (रॉ) में वर्षों जुड़े रहने के बाद सेवानिवृत हुए और कांग्रेस के दिग्गज नेता दिवंगत सरदार स्वर्ण सिंह के दामाद गुरबख्श सिंह सिधू ने अपनी पुस्तक ‘द खालिस्तान कांस्पीरेसी’ में किया है। इस पुस्तक में किए गए खुलासे का उल्लेख मैंने 18 जुलाई 2024 को इसी कॉलम में ‘क्या पंजाब ने अपनी गलतियों से सीखा’ शीर्षक से किया था। 

जघन्य हत्याकांडों में सज्जन कुमार की दोषसिद्धि कई सुलगते प्रश्नों को जन्म देती है। किसी मामले में 40 वर्ष बाद अदालती निर्णय आना, क्या भारतीय न्याय तंत्र के मुंह पर तमाचा नहीं? क्या यह हमारे लोकतंत्र के लिए शर्मनाक नहीं कि सज्जन कुमार जैसे व्यक्तियों को स्वयंभू सेकुलर दल सम्मान-पहचान देते रहे? क्या यह भारतीय सत्ता-अधिष्ठान की सबसे कमजोर कड़ी को रेखांकित नहीं करता? 

(स्तंभकार ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या’ और ‘नैरेटिव का मायाजाल’ पुस्तक के लेखक हैं)

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