समाज के आचरण में देशभक्ति के निर्माण का साधन बनें स्वयंसेवक – भैयाजी जोशी

समाज के आचरण में देशभक्ति के निर्माण का साधन बनें स्वयंसेवक - भैयाजी जोशी

समाज के आचरण में देशभक्ति के निर्माण का साधन बनें स्वयंसेवक - भैयाजी जोशी

उदयपुर, 01 अप्रैल। देशभक्ति सिर्फ विचार-विमर्श और बुद्धि के विलास का विषय नहीं है। यह आचरण का विषय है। व्यक्ति के आचरण में जब देशहित का भाव निहित होगा, तब देशभक्ति के आचरण से ओतप्रोत समाज का निर्माण होगा और आज समाज में इसी परिवर्तन की आवश्यकता है। स्वयंसेवक अपने जीवन की ऊर्जा को इस परिवर्तन का साधन बनाएं। देशभक्ति के आचरण से प्रतिबद्ध शक्ति ही देश के उत्थान का मार्ग प्रशस्त करती है।

यह आह्वान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सरकार्यवाह तथा अखिल भारतीय कार्यकारिणी सदस्य सुरेश भैया जी जोशी ने शुक्रवार को उदयपुर में हिरण मगरी स्थिति विद्या निकेतन सेक्टर-4 में आयोजित उदयपुर महानगर के वर्ष प्रतिपदा उत्सव पर किया। उन्होंने युगाब्ध 5124 के आरंभ के अवसर पर श्रीमद भगवद गीता का उद्धरण प्रस्तुत करते हुए कहा कि भगवान कृष्ण कहते हैं कि उन्हें सर्वाधिक प्रिय वह नहीं है जो धर्म समझता है, वह भी नहीं है जो धर्म को समझाना जानता है, बल्कि सर्वाधिक प्रिय वह है जो धर्म को अपने आचरण में धारण करता है। उन्होंने कहा कि धर्म को सुनना-समझना आसान है, लेकिन उसे स्वीकार कर जीवन में उतारना आसान नहीं है।

सुनने-समझने वाले भी यह कह देते हैं कि यह हमारे लिए नहीं है। उन्हें धर्म-देश की रक्षा के लिए छत्रपति शिवाजी तो चाहिए, लेकिन वे यह नहीं चाहते कि शिवाजी उन्हीं के घर में तैयार हों। उन्होंने स्वयंसेवकों से नवसंवत्सर पर यही संकल्प लेने का आह्वान किया कि राष्ट्र के प्रति अपने धर्म को सुनें, समझें और उसे स्वीकार कर आचरण का हिस्सा बनाएं और ऐसे ही व्यक्तियों का निर्माण भी करें। राष्ट्रधर्म को आचरण में धारण करने वाला समाज हमारी संस्कृति को सुरक्षित और समृद्ध रखने में सक्षम होगा।

उन्होंने कहा कि हिन्दू चिंतन में अधिकार शब्द का कोई स्थान नहीं है। हिन्दू चिंतन संस्कार, आचरण, करणीय कार्य और कर्तव्य की बात करता है। यह चिंतन हमें मैं से निकालकर हम की ओर ले जाता है। मैं से हम होते ही हरेक की पीड़ा हमारी पीड़ा होती है। अठारह पुराण के बाद भी महर्षि वेदव्यास ने संदेश दिया कि परोपकार ही पुण्य है और परपीड़ा ही पाप है। हमारे कारण किसी को पीड़ा हो, यही पाप है। हर व्यक्ति में यही भाव हो, हर हिन्दू में यही भाव हो, हिन्दू समाज ऐसा ही हो, संघ के संस्थापक डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार का भी यही संकल्प था। इसी संकल्प के साथ जब उन्होंने संघकार्य शुरू किया तब भी उन्होंने ‘मैं’ के भाव से बचने के लिए यह कहा कि वे कोई नया कार्य नहीं करने जा रहे।

यह कार्य देश के अनेकानेक साधु-संतों ने किया है, विदेशी आक्रांताओं के समय देश की रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग करने वालों ने किया है, तभी यह देश बचा है। यही कारण है कि उन्हें युगदृष्टा भी कहा जाता है। हम आज, कल, परसों या अगले कुछ वर्षों तक के बारे में सोचकर कार्य करते हैं, लेकिन संस्कृति और समाज के भूत को ध्यान में रखकर भविष्य की आवश्यकता को देखकर आज क्या करना है, उस दृष्टि को जानते हैं, वे ही युगदृष्टा कहलाते हैं।

पूर्व सरकार्यवाह ने संघ की प्रार्थना का उल्लेख करते हुए कहा कि संघ की प्रार्थना में हम यही मांगते हैं, सुशीलता, ज्ञान, चारित्र्य, समर्पण, भाव की शुद्धता। अच्छा दिखना, मधुर व्यवहार, अच्छा बोलना यह सभी शुद्धता का प्रकटीकरण है, लेकिन यह सभी के साथ समान हो, ऐसा तभी संभव है जब शुद्धता के भाव अंतःकरण तक हों। अंतःकरण की शुद्धता से वैचारिक प्रतिबद्धता का विकास होता है। वैचारिक प्रतिबद्धता वाला समाज परिस्थितियों की प्रतिकूलता और अनुकूलता में भी दृढ़ रहता है।

इससे पूर्व, मुख्यवक्ता सहित संघ के विभाग संघचालक हेमेन्द्र श्रीमाली, महानगर संघचालक गोविन्द अग्रवाल ने संघ के संस्थापक डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार के चित्र पर पुष्प अर्पित किए और आद्यसरसंघचालक प्रणाम हुआ।

आद्यसरसंघचालक प्रणाम के समय घोष दल ने केशवः रचना का वादन किया और ध्वजारोहण के समय घोषदल ने ध्वजारोपणम रचना का वादन किया। इसके बाद ध्वजप्रणाम के साथ घोष दल ने भी ध्वजप्रणाम रचना का वादन किया। कार्यक्रम में अवतरण व काव्यगीत की भी प्रस्तुति हुई। प्रार्थना के बाद घोष दल के ध्वजावतरण रचना के वादन के साथ ध्वजावतरण हुआ।

 

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