निडर स्वतंत्रता सेनानी और सामाजिक सद्भाव के प्रणेता वीर सावरकर
निडर स्वतंत्रता सेनानी और सामाजिक सद्भाव के प्रणेता वीर सावरकर
स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर को सेल्युलर जेल में कैद किया गया था, तब उनके गले में लटके लोहे के बिल्ले पर उनकी सजा 50 वर्ष लिखी गई थी। अपनी क्रूरता के लिए कुख्यात आयरिश जेलर डेविड बैरी ने उन्हें चिढ़ाते हुए कहा, “मिस्टर सावरकर, तुम्हें 50 वर्षों की सजा हुई है। क्या तुम अपने देश की स्वतंत्रता देखने के लिए जिन्दा रहोगे।” सावरकर ने बैरी को उत्तर देते हुए कहा, “मिस्टर बैरी, क्या तुम्हें लगता है कि तुम्हारा शासन 50 वर्षों तक हमारे देश में रह पायेगा?”
ऐसा था वीर सावरकर का आत्मविश्वास।
विनायक दामोदर सावरकर का जन्म 28 मई 1883 को नासिक के पास एक गांव भगूर में हुआ था। उनके माता–पिता, दामोदर पंत और राधाबाई एक मध्यमवर्गीय परिवार से थे। उन्होंने छह वर्ष की आयु में गांव के स्कूल में प्रवेश लिया। विनायक अपने पिता द्वारा महाकाव्य महाभारत, रामायण, गाथा गीत और बखरों में महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी और पेशवाओं पर पढ़े गए अंशों को सुनकर बड़े हुए। इन पाठों ने विनायक के प्रभावशाली मन में धार्मिकता और ऐतिहासिक चेतना की गहरी समझ पैदा की। वह एक उत्साही पाठक थे और किसी भी पुस्तक या समाचार पत्र को कवर से कवर, शुरू के पन्ने से अंत तक पढ़ते थे। सावरकर में जन्मजात कविता की दुर्लभ प्रतिभा थी और उनकी कविताओं को प्रसिद्ध समाचार पत्रों द्वारा तब प्रकाशित किया गया था, जब वे मुश्किल से दस वर्ष के थे।
बचपन से ही, विनायक ने हिन्दू समाज को त्रस्त करने वाली जाति व्यवस्था को निंदनीय पाया। अपने छोटे से तरीके से उन्होंने इन बाधाओं को तोड़ दिया। एक उच्च जाति के ब्राह्मण और उस पर एक जमींदार होने के बावजूद, उनके बचपन के सभी मित्र गरीब पृष्ठभूमि से थे और कथित निचली जातियों के थे। दर्जी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले परशुराम दार्जी और राजाराम दार्जी उनके सबसे अच्छे मित्रों में से थे। एक छोटे लड़के के रूप में भी विनायक लोगों के कष्टों के प्रति बहुत सचेत थे। वह अकाल और प्लेग के कारण हुए दुखों से भावनात्मक रूप से उभरे ही थे। ऐसे वातावरण में, 22 जून 1897 को पूना में चापेकर भाइयों द्वारा दो ब्रिटिश आयुक्तों की हत्या और दामोदरपंत चापेकर की बाद में फांसी ने युवा सावरकर को विचलित कर दिया। उन्होंने देवी दुर्गा के सामने बलिदानी चापेकर के अधूरे मिशन को पूरा करने व अपनी मातृभूमि से अंग्रेजों को खदेड़ने और उन्हें एक बार फिर से स्वतंत्र और महान बनाने का संकल्प लिया। तब से वे अपने जीवन के इस मिशन को फैलाने का पुरजोर प्रयास करते रहे।
स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर एक निडर स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक, लेखक, नाटककार, इतिहासकार, राजनीतिक नेता और दार्शनिक थे। जो लोग उनके राजनीतिक विचारों से असहमत हैं, वे कहते हैं कि सावरकर रूढ़िवादी और प्रतिक्रियावादी थे। चूंकि उनके साहित्य का एक बड़ा हिस्सा मराठी में है, कई क्षेत्रों में उनके विचार और उपलब्धियां महाराष्ट्र के बाहर काफी सीमा तक अज्ञात हैं। सावरकर को बड़े पैमाने पर एक क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी और हिन्दुत्व के प्रतिपादक के रूप में जाना जाता है। यह व्यापक रूप से ज्ञात नहीं है कि वह एक उत्कृष्ट समाज सुधारक भी थे।
रत्नागिरी में हिन्दू सभा के गठन के बाद, सावरकर ने सामाजिक सुधारों के लिए अपना धर्मयुद्ध शुरू किया। उस समय शुद्धि या अस्पृश्यता उन्मूलन जैसे विषय रूढ़िवादी हिन्दुओं के लिए संवेदनशील थे। सावरकर जानते थे कि इन मान्यताओं को जबरन थोपने से सामाजिक तनाव और अशांति पैदा होगी। उनकी दृष्टि में इन सामाजिक समस्याओं को हल करने का एक ही तरीका था– सूक्ष्म, सुविचारित चर्चा से समाज का हृदय परिवर्तन।
उस समय, हिन्दू समाज सात बंधनों से कमजोर हो गया था, अर्थात् स्पर्श–बंदी या अस्पृश्यता, शुद्धि–बंदी या पुन: कन्वर्जन का निषेध, बेटी–बंदी या अंतर्जातीय विवाह का निषेध, रोटी–बंदी या अंतर्जातीय भोजन का निषेध, सिंधु–बंदी या समुद्री यात्रा का निषेध, व्यवसाय–बंदी या अन्य जातियों के पेशे का पालन करना और वेदोक्त–बंदी या वैदिक संस्कार करने का निषेध। चूंकि सावरकर अभी जेल से बाहर आए ही थे और पुलिस उनकी हरकतों व बयानों पर कड़ी नजर रख रही थी। इसलिए उन्होंने निजी तौर पर लोगों के समूहों से भेंट करना शुरू किया और ‘हिन्दू समाज के सात बंधनों‘ पर अपने विचार व्यक्त किए। सावरकर ने अपने भाषणों, लेखन और कार्यों के माध्यम से इन सात बंधनों को तोड़ने का ठोस प्रयास किया।
सावरकर ने हिन्दू समाज को फिर से जोड़ने के अपने विशाल मिशन की शुरुआत रत्नागिरी से की। उन्होंने रत्नागिरी में रहते हुए सामाजिक सुधारों का पूरा धर्मयुद्ध चार गतिविधियों पर टिका दिया: स्पष्ट तार्किक तर्कों के माध्यम से रूढ़िवादी और संशयवादियों को राजी करना; तथाकथित अछूतों में भी प्रचलित ऊँची और नीची जातियों के बारे में बात कर उनके पूर्ण उन्मूलन का आह्वान करना; मुसलमानों व ईसाइयों के बीच उपस्थित अस्पृश्यता की गणना करके सजातीय समाज के मिथक को उजागर करना (और यह स्थापित करना कि कन्वर्जन अस्पृश्यता के लिए कोई रामबाण नहीं था); और अंत में सरल– व्यावहारिक कदमों के माध्यम से उदाहरण प्रस्तुत करना, ताकि सामाजिक सद्भाव बने और जातिगत बाधाएं दूर हों। उनके इन प्रयासों ने हिन्दू समाज को समरसता के लिए एक दिशा प्रदान की।