सरसंघचालक श्री सुदर्शन जी : ध्येय के अनुरूप जीवन
श्री कुप्. सी. सुदर्शन जन्म जयंती/ 6 जून
– वीरेंद्र पांडेय
स्वर्गीय सुदर्शन जी ने आपातकाल के अपने 19 माह के बन्दीवास में योगचाप पर नये प्रयोग किये तथा उसके स्वरूप को बिलकुल बदल दिया था। शाखा पर होनेवाले ‘प्रातःस्मरण’ के स्थान पर नये ‘एकात्मता स्तोत्र’ एवं ‘एकात्मता मन्त्र’ को भी उन्होंने प्रचलित कराया। उन्होंने साम्यवाद एवं पश्चिमी जगत के भौतिकवाद से अलग हटकर हिंदू समग्र चिंतन पर आधारित विकासपथ के अन्वेषण को प्रोत्साहित किया।
स्मरण हो रहा है जून 2000 के आस पास सरसंघचालक बनने के बाद श्री सुदर्शन जी काशी प्रवास पर थे, निवेदिता शिक्षण संस्थान में कार्यक्रम था। उन्होंने अपने उदबोधन की शुरुआत बाबा विश्वनाथ को प्रणाम करते हुए कुछ प्रकार की “चना-चबेना गंग जल, जो पुरवे करतार। काशी कबहुं न छाड़िये, विश्वनाथ दरबार” आप सभी बड़े भाग्यवान है जो काशी में वास करते हैं। श्री सुदर्शन जी, बाल्यकाल से ही अद्भुत प्रतिभा संपन्न तथा अनेक विषयों पर गहन अध्ययन वृत्ति रखने वाले तथा कई भाषाओं के मर्मज्ञ, प्रभावी वक्ता, कई पुस्तकों के रचयिता थे।
संघ कार्य में सरसंघचालक की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण होती है। चौथे सरसंघचालक श्री रज्जू भैया को जब लगा कि स्वास्थ्य खराबी के कारण वे अधिक सक्रिय नहीं रह सकते, तो उन्होंने वरिष्ठ कार्यकर्ताओं से परामर्श कर 10 मार्च, 2000 को अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में श्री सुदर्शन जी को यह जिम्मेदारी सौंप दी। नौ वर्ष बाद सुदर्शन जी ने भी इसी परम्परा को निभाते हुए 21 मार्च, 2009 को सरकार्यवाह श्री मोहन भागवत को छठे सरसंघचालक का कार्यभार सौंप दिया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पांचवें सरसंघचालक श्री कुप्.सी. सुदर्शन मूलतः तमिलनाडु और कर्नाटक की सीमा पर बसे कुप्पहल्ली (मैसूर) ग्राम के निवासी थे। उनके पिता श्री सीतारामैया मध्यप्रदेश वन-विभाग में कार्यरत थे। पिता जी नौकरी के कारण अधिकांश समय मध्यप्रदेश रायपुर (वर्तमान छत्तीसगढ़) में रहे। श्री सुदर्शन जी का जन्म भी यहीं हुआ। तीन भाई और एक बहन वाले परिवार में सुदर्शन जी सबसे बड़े थे। रायपुर,दमोह, मंडला तथा चन्द्रपुर में प्रारम्भिक शिक्षा पाकर उन्होंने जबलपुर (सागर विश्वविद्यालय) से 1954 में दूरसंचार(इलेक्ट्रॉनिक्स) विषय में बी.ई की उपाधि ली तथा तब से ही संघ-प्रचारक के नाते राष्ट्रहित में जीवन समर्पित कर दिया। सर्वप्रथम उन्हें रायगढ़ भेजा गया। प्रारम्भिक जिला, विभाग प्रचारक आदि की जिम्मेदारियों को सफलतापूर्वक निभाने के बाद 1964 में वे मध्यभारत के प्रान्त-प्रचारक बने।
मध्य भारत के प्रान्त प्रचारक रहते हुए ही सन 1969 में उन्हें अखिल भारतीय शारीरिक प्रमुख का दायित्व भी दिया गया। सन 1975 में आपातकाल की घोषणा हुई और पहले ही दिन इंदौर में उन को गिरफ्तार कर लिया गया। पूरे उन्नीस माह उन्होंने कारावास में बिताये। आपातकाल समाप्ति के पश्चात सन 1977 में उन्हें पूर्वांचल (असम, बंगाल सहित पूर्वोत्तर राज्यों ) का क्षेत्र प्रचारक बनाया गया। क्षेत्र प्रचारक के रूप में उन्होंने वहाँ के समाज में सहज रूप से संवाद करने के लिए असमिया, बंगला भाषाओँ पर प्रभुत्व प्राप्त किया तथा पूर्वोत्तर राज्यों के जनजातियों की अलग अलग भाषाओँ का भी पर्याप्त ज्ञान प्राप्त किया। कन्नड़, बंगला, असमिया, हिंदी, इंग्लिश, मराठी, इत्यादि कई भाषाओँ में उन्हें धाराप्रवाह बोलते हुए देखना यहां कई लोगों के लिए एक आश्चर्य तथा सुखद अनुभूति का विषय होता था।
संघ कार्य में उन्होंने निष्ठा और प्रामाणिकता की ही तरह गुणवत्ता को भी महत्व दिया। शाखा हो या प्रशिक्षण वर्ग, वे घंटों शारीरिक और मानसिक श्रम करते थे। संघ के वे इकलौते ऐसे ज़्येष्ठ कार्यकर्ता रहे हैं जिन्होंने शारीरिक और बौद्धिक दोनों कार्यों के प्रमुख का दायित्व वहन किया। वे बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न थे। उन्हें संघ-क्षेत्र में जो भी दायित्व दिया गया, उसमें अपनी नवीन सोच के आधार पर उन्होंने नये-नये प्रयोग किये। 1969 से 1971 तक उन पर अखिल भारतीय शारीरिक प्रमुख का दायित्व था। इस दौरान नियुद्ध, आसन, तथा खेल को संघ शिक्षा वर्गों के शारीरिक पाठ्यक्रम में स्थान मिला। आपातकाल के अपने 19 माह के बन्दीवास में उन्होंने योगचाप पर नये प्रयोग किये तथा उसके स्वरूप को बिलकुल बदल डाला। योगचाप की लय और ताल के साथ होने वाले संगीतमय व्यायाम से 15 मिनट में ही शरीर का प्रत्येक जोड़ आनन्द एवं नवस्फूर्ति का अनुभव करता है।
1979 में वे अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख बने। शाखा पर बौद्धिक विभाग की ओर से होने वाले दैनिक कार्यक्रम (गीत, सुभाषित, अमृतवचन) साप्ताहिक कार्यक्रम (चर्चा, कहानी, प्रार्थना अभ्यास), मासिक कार्यक्रम (बौद्धिक वर्ग, समाचार समीक्षा, जिज्ञासा समाधान, गीत, सुभाषित, एकात्मता स्तोत्र आदि की व्याख्या) तथा शाखा के अतिरिक्त समय में होने वाली मासिक श्रेणी बैठकों को सुव्यवस्थित स्वरूप 1979 से 1990 के कालखंड में ही मिला। शाखा पर होनेवाले ‘प्रातःस्मरण’ के स्थान पर नये ‘एकात्मता स्तोत्र’ एवं ‘एकात्मता मन्त्र’ को भी उन्होंने प्रचलित कराया। 1990 में उन्हें सह सरकार्यवाह की जिम्मेदारी दी गयी।
उनके सरसंघचालक दायित्व के 9 वर्ष के कार्यकाल में संघ के 75 वर्ष की पूर्ति के निमित्त राष्ट्र जागरण अभियान, द्वितीय सरसंघचालक श्री. गुरूजी की जन्मशती, आदि कई अभियानों के माध्यम से संघ कार्य का विस्तार हुआ। ग्राम विकास के कार्य, स्वदेशी तंत्रज्ञान, प्रज्ञा प्रवाह, राष्ट्रीय मुस्लिम एकता मंच, आदि का गठन तथा साम्यवाद एवं पश्चिमी जगत के भौतिकवाद से अलग हटकर हिंदू समग्र चिंतनपर आधारीत विकासपथ के अन्वेषण को उन्होंने प्रोत्साहित किया।
संयोग है कि 15 सितम्बर, 2012 को अपने जन्म-स्थान रायपुर में ही उनका देहांत हुआ। श्री सुदर्शन जी एक स्वयंसेवक के रूप में देश-समाज और मानवता की सेवा की। पुनर्जन्म में हिन्दुओं का अकाट्य विश्वास है। इसलिए अपनी धर्म के प्रति निष्ठा, हिन्दू जीवन पद्धति के प्रति अटूट श्रद्धा, मानवता की सेवा का व्रत और संघ की प्रतीज्ञा उन्हें बार-बार हमारे बीच लायेगी।
“अडिग तुम्हारी निष्ठा उर में, लक्ष्य प्राप्ति की तड़पन मन में ।
तन मन धन सब अर्पित कर दी, संघ मार्ग के दुष्कर रण में।।”