सिन्ध के बिना हिन्द अधूरा
प्रहलाद सबनानी
जैसा कि सर्वविदित है कि प्राचीन भारत का इतिहास बहुत वैभवशाली रहा है। भारत माता को सही मायने में “सोने की चिड़िया” कहा जाता था। इस संदर्भ में भारत की ख्याति पूरे विश्व में फैली हुई थी। इसके चलते भारत माता को लूटने और इसकी धरा पर कब्जा करने के उद्देश्य से पश्चिम के रेगिस्तानी इलाकों से आने वाले मजहबी हमलावरों का वार सबसे पहले सिन्ध की वीरभूमि को ही झेलना पड़ता था। अविभाजित भारत में सिन्ध प्रांत को अपनी भौगोलिक स्थिति के चलते किसी जमाने में भारत का द्वार भी माना जाता था। इसी कारण से सिंध प्रांत ने अरब देशों से भारत पर होने वाले आक्रांताओं के वार भी सबसे अधिक सहे हैं। सिन्ध के रास्ते ही आक्रांता भारत में आते थे। सिन्ध की पावन भूमि वैदिक संस्कृति एवं प्राचीन सभ्यता का केंद्र रही है। सिन्ध की पावन धरा पर कई ऋषि, मुनियों एवं संत महात्माओं ने जन्म लिया है। सिन्धी समुदाय को भगवान राम के वंशज के रूप में भी माना जाता है। महाभारत काल में जिस राजा जयद्रथ का उल्लेख है वो सिन्धी समुदाय का ही था।
आज के बलोचिस्तान, ईरान, कराची और पूरे सिन्धु क्षेत्र के राजा थे दाहिरसेन। उन्हें सिन्ध का अंतिम हिन्दू शासक माना जाता है। उन्होंने ही सिन्ध राज्य की सीमाओं का कन्नौज, कंधार, कश्मीर और कच्छ तक विस्तार किया था। दाहिरसेन जन्म 663 ईसवी में हुआ था और 16 जून 712 ईसवी को इस महान भारत भूमि की रक्षा करते हुए उन्होंने बलिदान दे दिया था। दाहिरसेन, जिन्होंने युद्धभूमि में लड़ते हुए न केवल अपनी प्राणाहुति दी बल्कि उनके बलिदान होने के बाद उनकी पत्नी, बहन और दोनों पुत्रियों ने भी अपना बलिदान देकर भारत में एक नयी परम्परा का सूत्रपात किया था। राजा दाहिरसेन एक प्रजावत्सल राजा थे। गौरक्षक के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। सिन्ध राज्य के वैभव की कहानियां सुनकर ईरान के शासक हज्जाम ने 712 ईसवी में अपने सेनापति मोहम्मद बिन कासिम को एक विशाल सेना देकर सिन्ध पर हमला करने के लिए भेजा। कासिम ने देवल के किले पर कई आक्रमण किए पर राजा दाहिरसेन और उनके हिन्दू वीरों ने हर बार उसे पीछे धकेल दिया। कई बार हारने के बावजूद अंततः मोहम्मद बिन कासिम ने अंतिम हिन्दू राजा दाहिरसेन को विश्वासघात कर हरा दिया, जिसके बाद सिन्ध को अल-हिलाज के खलीफा द्वारा अपने राज्य में शामिल कर लिया गया और खलीफा के प्रतिनिधियों द्वारा सिन्ध में शासन प्रशासन चलाया गया। इस्लामिक आक्रमणकारियों ने पूरे क्षेत्र में तलवार की नोक पर लगातार हिन्दू धर्मावलम्बियों का कन्वर्जन किया और इस क्षेत्र में इस्लाम को फैलाया।
समय के साथ साथ सिन्ध पर शासन करने वाले शासक भी बदलते रहे एवं एक समय सिन्ध की राजधानी थट्टा पर अत्याचारी, दुराचारी एवं कट्टर इस्लामिक आक्रमणकारी मिरखशाह का शासन स्थापित हो गया। उसने सिन्ध एवं इसके आसपास के क्षेत्र में इस्लाम को फैलाने के लिए वहां के निवासियों का नरसंहार करना शुरू किया। मिरख शाह जिन सलाहकारों और मित्रों से घिरा हुआ था, उन्होंने उसे सलाह दी थी कि यदि वह इस क्षेत्र में इस्लाम फैलाएगा तो उसको मौत के बाद जन्नत या सर्वोच्च आनंद प्राप्त होगा। इस सलाह को सुनकर मिरख शाह ने उस क्षेत्र के हिंदुओं के पंच प्रतिनिधियों को बुलाया और उन्हें आदेश दिया कि इस्लाम को गले लगाओ या मरने की तैयारी करो। मिरखशाह की धमकी से डरे हिंदुओं ने इस पर विचार करने को कुछ समय मांगा, जिस पर मिरखशाह ने उन्हें 40 दिन का समय दे दिया।
अपने सामने मौत और धर्म पर आए संकट को देखते हुए सिन्धी हिन्दुओं ने नदी (जल) के देवता श्री वरुण देव भगवान की ओर रुख किया। चालीस दिनों तक हिन्दुओं ने तपस्या की। उन्होंने ना बाल कटवाए और ना ही भोजन किया। इस दौरान उपवास कर केवल ईश्वर की स्तुति और प्रार्थना करते रहे। इस प्रार्थना के बाद भगवान झूलेलाल का अवतरण इस धरा पर हुआ। भगवान झूलेलाल ने अपने चमत्कारिक जन्म और जीवन से न सिर्फ सिन्धियों के जान-माल की रक्षा की बल्कि हिन्दू धर्म को भी बचाए रखा। मिरख शाह जैसे न जाने कितने इस्लामिक कट्टरपंथी आए और मतांतरण का खूनी खेल खेला, लेकिन भगवान झूलेलाल के कारण सिन्ध में उस दौर में मुस्लिम आक्रांताओं के कहर पर अंकुश लगा रहा।
यदि भारत के प्राचीन अर्थतंत्र का अध्ययन किया जाए तो ध्यान आता है कि प्राचीन भारत की अर्थव्यस्था बहुत समृद्ध थी। इसमें सिन्ध क्षेत्र का प्रमुख योगदान था। ब्रिटिश आर्थिक इतिहास लेखक एंगस मेडिसन एवं अन्य कई अनुसंधान शोधपत्रों के अनुसार ईसा के पूर्व की 15 शताब्दियों तक वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत का हिस्सा 35-40 प्रतिशत बना रहा। ईस्वी वर्ष 1 से सन 1500 तक भारत विश्व का सबसे धनी देश था। एंगस मेडिसन के अनुसार, मुगलकालीन आर्थिक गतिरोध के बाद भी 1700 ईस्वी में वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत का योगदान 24.4 प्रतिशत था। ब्रिटिश औपनिवेशिक शोषण के दौर में यह घटकर 1950 में मात्र 4.2 प्रतिशत रह गया था। भारत से कृषि उत्पादों, मसालों एवं कपड़े आदि के निर्यात से विदेशी मुद्रा के रूप में सोना प्राप्त होता था। अतः भारत में सोने के अथाह भंडार जमा हो गए थे। भारत से होने वाला विदेशी व्यापार भी सामान्यतः सिन्ध स्थित बंदरगाहों के माध्यम से होता था।
मुगलों एवं अंग्रेजों के शासनकाल में भारत में हिन्दुओं को विभिन्न जाति, धर्म, पंथ एवं सम्प्रदाय में अलग अलग बांटने की पुरजोर कोशिश की गई थी, ताकि भारत एक राष्ट्र के रूप में उभर नहीं सके। इसके लिए अंग्रेजों ने तीन सूत्रीय कार्यक्रम पर कार्य किया। (1) हिन्दू सोसायटी का गैर राष्ट्रीयकरण अर्थात भारतीय नागरिकों को राष्ट्रवाद की भावना से भटकाना; (2) हिन्दू सोसायटी का गैर सामाजीकरण अर्थात भारतीय नागरिकों को विभिन्न समाजों के बीच बांटना; एवं (3) हिन्दू सोसायटी का गैर हिंदुत्ववादीकरण अर्थात भारतीय नागरिकों को महान भारतीय सनातन हिंदू संस्कृति से दूर ले जाना। परंतु, सिन्ध क्षेत्र के हिन्दू सिन्धुओं पर इन बातों का बहुत कम असर हुआ था, इसी के चलते वर्ष 1947 में भारत के विभाजन के समय लाखों की संख्या में सिन्धियों ने भारत को अपनी माता मानते हुए भारत के विभिन्न राज्यों में अपना घर बसा लिया और अपनी महान भारतीय संस्कृति को अपनाए रखना उचित समझा। हालांकि सिन्ध के हिन्दुओं के उस समय के सबसे बुरे दौर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सभी की बहुत सार्थक सहायता की थी। भारत के विभाजन के समय श्री गोलवलकर “गुरु जी” ने सिन्ध क्षेत्र में पहुंचकर स्वयंसेवकों को आदेश दिया था कि देश का विभाजन होने की स्थिति में सभी हिन्दुओं को भारत लाने में पूर्ण सहायता की जाएगी। तब तक कोई भी स्वयंसेवक इस क्षेत्र को न छोड़े जब तक समस्त हिन्दू सिन्धी भारत की ओर प्रस्थान नहीं कर लेते। उस समय सिन्ध क्षेत्र में 75 प्रचारक एवं 450 पूर्णकालिक कार्यकर्ता सेवारत थे। इस प्रकार उस समय के कठिन दौर में संघ ने हिन्दू सिन्धियों की पूर्ण सहायता की थी।
चूंकि पूर्व में सिन्ध भारत माता का अभिन्न अंग रहा है, अतः आज भारतीय सिन्धियों में इस बात की टीस लगातार उभरती रहती है कि सिन्ध को पुनः भारत माता के आंगन में शामिल हो जाना चाहिए। सिन्ध की पवित्र धरा पर कई ऋषियों, मुनियों एवं महात्माओं ने जन्म लिया है, सिन्ध की पावन भूमि वैदिक संस्कृति एवं प्राचीन सभ्यता का केंद्र रही है। भारत को आर्थिक शक्ति बनाए रखने में भी सिन्ध क्षेत्र का बड़ा योगदान रहा है। अतः आज अखंड भारत को मूर्त रूप देने हेतु सिन्ध प्रांत के भारत में विलय हेतु गम्भीर प्रयास प्रारम्भ किए जाने चाहिए।