सोशल मीडिया के इस दौर में ‘फैक्ट’ और ‘फिक्शन’ एक ही घाट पर पानी पीते हैं
प्रो. संजय द्विवेदी
भारत में एक लाख से अधिक समाचार पत्र और पत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं, अलग-अलग भाषाओं में प्रतिदिन 17 हजार से अधिक समाचार पत्रों का प्रकाशन होता है और इनकी 10 करोड़ प्रतियां हर रोज छपती हैं। भारत में 24 घंटे न्यूज़ दिखाने वाले चैनलों की संख्या 400 से अधिक है। 56 करोड़ यूजर्स के साथ भारत सोशल मीडिया के मामले में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बाजार है। इस मामले में चीन पहले नंबर पर है। यानि कभी समाचार पत्रों के माध्यम से, कभी न्यूज़ चैनलों के माध्यम से, तो कभी सोशल मीडिया के माध्यम से भारत के लोग हर समय सूचनाओं से घिरे रहते हैं और इन्हीं सूचनाओं के आधार पर आप यह तय करते हैं कि देश किस दिशा में जा रहा है। लेकिन सूचनाओं के अंबार के बीच आज सबसे बड़ी चुनौती है ‘फेक न्यूज़’। कोरोना काल में बढ़े डिजिटल समय की चुनौती बहुत बड़ी है।
वास्तव में फेक न्यूज़ एक तरीके से पीत पत्रकारिता का ही नया स्वरुप है, जिसमें किसी के पक्ष में दुष्प्रचार करना और झूठी ख़बरें फैलाना जैसे काम शामिल हैं। इस तरह के समाचारों से किसी व्यक्ति या संस्था की छवि को नुकसान पहुंचाने के प्रयास किए जाते हैं। आज डिजिटल मीडिया में फेक न्यूज़ की भरमार है, जिसके कारण लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की विश्वसनीयता भी खतरे में दिखाई दे रही है। सूचना क्रांति के निरंतर प्रसार और सोशल मीडिया जैसी नई तकनीकों के आने से सूचनाओं के कई स्रोत लोगों को उपलब्ध हो गए हैं। पहले सूचनाएं एक निर्धारित प्रक्रिया से होकर ही लोगों तक पहुंचती थीं। उनके पीछे सीमित लोग थे, जो कायदे और कानून से चलते थे। लेकिन तकनीक ने सब कुछ बदल दिया। आज हर व्यक्ति प्रकाशक है। तकनीक ने यह सुविधा सबको दे दी है।
वर्ष 2019 में माइक्रोसॉफ्ट की एक सर्वे रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में इंटरनेट उपभोक्ताओं को फर्जी समाचारों का सबसे अधिक सामना करना पड़ता है। दुनिया के 22 देशों में किए सर्वेक्षण के बाद तैयार रिपोर्ट में कहा गया कि 64 प्रतिशत भारतीयों को फर्जी समाचारों का सामना करना पड़ रहा है और यह चिंता की बात इसलिए है क्योंकि वैश्विक स्तर पर यह आंकड़ा 57 प्रतिशत का है। इस रिपोर्ट की सबसे अहम बात यह भी है कि फर्जी समाचारों के प्रचार-प्रसार में परिवार या दोस्तों की भी अहम भूमिका होती है। भारत धीरे-धीरे इंटरनेट और स्मार्टफोन्स के सबसे बड़े बाजार के तौर पर विकसित हो रहा है। अमेरिका की कंपनी सिस्को के अनुसार, वर्ष 2021 के अंत तक भारत में स्मार्टफोन उपयोग करने वालों की संख्या दोगुनी होकर लगभग 83 करोड़ तक पहुंचने की संभावना है। इसके अलावा वर्ष 2022 तक भारत में इंटरनेट डाटा की खपत आज की तिलना में पांच गुना अधिक बढ़ने की संभावना है। भारत में फेसबुक उपयोग करने वालों की संख्या लगभग 30 करोड़, जबकि WhatsApp उपयोग करने वालों की संख्या लगभग 20 करोड़ है. Twitter के उपभोक्ताओं की संख्या भी बढ़ कर तीन करोड़ से अधिक हो गई है। इन तीनों के लिए भारत सबसे बड़ा बाजार है और इन्हीं तीनों माध्यमों से फेक न्यूज़ का सबसे अधिक ज्यादा प्रचार हो रहा है।
फेक न्यूज़ कोई नई चीज नहीं है। गुमराह करने के लिए गलत सूचनाएं फैलाने की रणनीति बहुत पुरानी है, जो समय के साथ साइकोलॉजिकल ऑपरेशंस में बदल गई है। यह एक तरह का माइंड गेम है, जिसमें दुश्मन के दिमाग और उसकी लीडरशिप को निशाना बनाया जाता है। हालांकि, सारी फेक न्यूज़ सोच-समझकर नहीं फैलाई जातीं, ना ही वे साइंटिफिक होती हैं, अचानक कई ऐसी झूठी खबरें आ जाती हैं, जिनके असर का अनुमान तक नहीं होता। इनका उद्देश्य भ्रम फैलाना, विरोध को बढ़ावा देना, कुछ वर्गों के विरुद्ध घृणा भड़काना, राजनीतिक बदला या निजी दुश्मनी हो सकता है। मिलिट्री ऑपरेशंस को लेकर भी ऐसी कई फेक न्यूज़ आती रहती हैं, जिनसे राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा हो सकता है। सोशल मीडिया पर फेक न्यूज़ के प्रसार के लिए वीडियो फॉर्मेट का सबसे अधिक सहारा लिया जाता है। छोटे क्लिप बनाकर व्हाट्सऐप के जरिये फेक न्यूज़ को आसानी से सर्कुलेट किया जा सकता है। फेक न्यूज़ के लिए व्हाट्सऐप सबसे बदनाम भी है। इस पर वीडियो मैसेज पोस्ट करते वक्त अक्सर लिखा जाता है कि जैसे मिला, वैसे ही आगे बढ़ा दिया यानि ‘फॉरवर्डेड एज़ रिसीव्ड’। इससे पोस्ट डालने वाले का अपराधबोध कम होता है, लेकिन उसके ऐसा करने से फेक न्यूज़ की आग तेजी से फैलती है। भारत के विरुद्ध दुष्प्रचार की पाकिस्तान की रणनीति का सबूत एक हालिया फेक न्यूज़ है। दो मिनट के एक वीडियो से भारतीय मुसलमानों को गुमराह करने की कोशिश की गई। इसमें बताया गया कि 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध से पहले भारतीय सेना में एक मुस्लिम रेजिमेंट थी, जिसने पाकिस्तान से युद्ध करने से इनकार कर दिया था। वीडियो में दावा किया गया कि इस रेजिमेंट को बाद में भंग कर दिया गया और उसके बाद भारत की तरफ से किसी भी मुस्लिम को बॉर्डर पर लड़ने की अनुमति नहीं दी गई है। इस फेक वीडियो के साथ 2010 में पाकिस्तानी मीडिया का एक आर्टिकल भी दिखता है, जिसमें भारतीय सेना में मुसलमानों की कम संख्या पर सवाल खड़ा किया गया है। इसमें कहा गया है कि इसे गलत साबित करने वाले आंकड़े कभी पेश नहीं किए गए। राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए फेक न्यूज़ इसी तरह से खतरा पैदा करती है।
सोशल मीडिया के इस दौर में ‘फैक्ट’ और ‘फिक्शन’ एक ही घाट पर पानी पीते हैं। इसे सोशल मीडिया का दूसरा अवतार कह सकते हैं, जिसे तकनीकी भाषा में सोशल मीडिया ‘टू पॉइंट ओ’ (2.O) कहा जा सकता है। अमेरिका के मशहूर लेखक निकोलस कार ने अपनी किताब ‘द शैलोज’ में लिखा है कि इंटरनेट के उपयोग के कारण हम अपने दिमाग का प्रयोग बहुत कम करने लगे हैं, क्योंकि हर सामग्री इंटरनेट पर उपलब्ध है। इस वजह से तार्किक विश्लेषण करने की हमारी क्षमता भी घट रही है और हम चीजों पर आसानी से विश्वास भी करने लगे हैं। आप देखिए कि जब किसी सुनियोजित अभियान के अंतर्गत एक के बाद एक फेक न्यूज़ हमें भेजी जाती है, तो एकाध बार अनदेखा करने के बाद आखिरकार हम उन्हें सच मानने ही लगते हैं। मीडिया कंपनी बजफीड की तरफ से फेसबुक के छह बड़े पेजों की एक हजार पोस्ट का सर्वे किया गया। इस सर्वे में यह पता चला कि जिन पेजों पर सच्ची खबरों का अनुपात सबसे कम था, उन्हें सबसे ज्यादा लाइक, शेयर और कमेंट प्राप्त हुए थे। इन पेजों पर 38 प्रतिशत खबरें या तो सच और झूठ का मिश्रण थीं या फिर पूरी तरह झूठ थीं। इसलिए हमें बेहद सावधान रहने की आवश्यकता है।
संकट का समय हमेशा से ही ऐसा दौर माना जाता रहा है, जब अफवाहों और षड्यंत्र के सिद्धांतों का बोलबाला होता है। लोगों के पास पुख्ता जानकारियां कम होती हैं और भय एवं आशंकाएं बहुत ज्यादा। ऐसे में वे कई तथ्यहीन चीजों पर विश्वास करने के लिए तैयार हो जाते हैं और यह सब हमें कोरोना महामारी के दौरान देखने को मिला है। इस दौर में अकेला कोरोना ही लोगों को नहीं डरा रहा है, बल्कि फेक न्यूज़ भी लोगों को परेशान कर रही है। लॉकडाउन के दौरान लोग घरों में बंद थे और वे अपना काफी समय इंटरनेट की विभिन्न वेबसाइटों, खासकर सोशल मीडिया पर व्यतीत कर रहे थे। इस संदर्भ में अक्तूबर में आई एक रिपोर्ट हमें यह बताती है कि लॉकडाउन के बाद से देश के लोग अब सोशल मीडिया पर 87 प्रतिशत अधिक समय बिता रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार, पहले लोग सोशल मीडिया पर प्रतिदिन औसतन 150 मिनट का समय बिताते थे, लेकिन अब यह समय बढ़कर 280 मिनट प्रतिदिन हो गया है। इसमें से लोग ज्यादातर समय फेसबुक, व्हाट्सऐप और ट्विटर पर बिताते हैं।
फेक न्यूज़ पर मलेशिया, फिलीपींस और थाइलैंड की तरह सख्त नियम बनाने की आवश्यकता है। मलेशिया के कानून के अनुसार फेक न्यूज़ की वजह से अगर मलेशिया या मलेशियाई नागरिकों को नुकसान होता है, तो इसे फैलाने वाले पर लगभग 1 लाख 23 हजार अमेरिकी डॉलर यानि लगभग 90 लाख रुपये का जुर्माना और छह साल की सजा हो सकती है। फिलीपींस में गलत जानकारी फैलाने वालों को 20 साल तक की कैद की सजा का प्रावधान करने की तैयारी चल रही है। थाइलैंड में साइबर सिक्योरिटी लॉ कार्य करता है, जिसके अंतर्गत गलत सूचना फैलाने पर 7 साल तक की कैद की सजा हो सकती है। याद रखिए सच में झूठ की मिलावट अगर नमक के बराबर भी होती है, तो वो सच नहीं रहता, उसका स्वाद किरकिरा हो जाता है।