स्वतंत्रता संग्राम में नानक भील का बलिदान
डॉ. मोहनलाल साहू
स्वतंत्रता संग्राम में नानक भील का बलिदान
जब स्वतन्त्रता की अलख जगाई जा रही थी, तब राजस्थान के जंगलों और पहाड़ियों में रहने वाली भील जनजाति भी इस अलख से अछूती नहीं थी। यहाँ यह कार्य गोविन्द गुरु और मोतीलाल तेजावत कर रहे थे, जिन्हें “जनजाति समाज का संगठक” भी कहा जाता है। वे राज्यों के शोषण व दमनकारी नीतियों के विरुद्ध छोटे–छोटे आन्दोलनों के माध्यम से स्वतन्त्रता के लिए लोगों को जाग्रत कर रहे थे। अंग्रेजों ने फसल या जोत पर लगान लेनाबंद कर भूमि पर लगान वसूलने की परम्परा रियासतों के माध्यम से आरंभ की थी। इस कारण फसल नष्ट होने पर भी किसानों को लगान देना पड़ता था। जागीरदारों–जमींदारों द्वारा चंवरी कर, तलवार बंधाई कर जैसे कई करों तथा बेगार प्रथा के विरोध में बिजोलिया में किसान आंदोलन आरंभ हो चुका था।
बूंदी राज्य में आंदोलन
बूंदी राज्य के किसानों को भी कई प्रकार की लागतें, बेगार व ऊँची दरों पर लगान देना पड़ता था। इनके अलावा स्थाई युद्ध कोष के लिए कर वसूला जाने लगा। त्रस्त किसानों ने बिजोलिया किसान आंदोलन से प्रेरणा लेकर 1922 में बरड़ में आंदोलन आरंभ कर दिया। बरड़ क्षेत्र की सीमाएं बिजोलिया से सटी हुई थीं। राजस्थान सेवा संघ के पंडित नयनूराम आंदोलन का नेतृत्व कर रहेथे। गांधी जी के असहयोग आंदोलन के कारण भी किसानों में सामाजिक व राजनीतिक चेतना उत्पन्न हुई।
बरड़ क्षेत्र के अनेक गांवों में किसानों की सभाएं हुईं। इन सभाओं में ग्रामीण जनों ने खद्दर का उपयोग बढ़ाने, विदेशी कपड़ों का उपयोग रोकने, शराब नहीं पीने व अश्लील गीत न गाने आदि सम्बन्धी निर्णय किए।
सभा करने पर लगायी गई रोक
मई 1922 के अंत में राज्य काउंसिल के दो सदस्यों को किसानों की शिकायतों की जांच हेतु नियुक्त किया गया। उनके साथ पर्याप्त सैन्य दल भी भेजा गया था, जिसमें तोपखाना, घुड़सवार एवं पैदल सेना सम्मिलित थी। कुल मिलाकर 200-250 सैनिकों का लवाजमा उनके साथ था। इन्होंने जगह–जगह अपने कैम्प लगाए तथा वहां लोगों को बुला–बुलाकर यह आदेश सुनाए कि सभा करने पर राज्य की ओर से पाबन्दी है। इस कार्रवाई द्वारा उनका उद्देश्य किसानों को आन्दोलन न करने के लिए आतंकित भी करना था।
तीव्र हुआ प्रतिरोध
किन्तु इन सबका किसानों की आन्दोलनात्मक गतिविधियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। मई 1922 के अन्तिम दिनों में किसानों की सभाओं का आकार भी अधिक बढ़ गया था। 29 मई को लम्बाखोह नामक गांव में एक सभा आयोजित हुई जिसमें लगभग एक हजार किसान सम्मिलित हुए थे। इस सभा में किसानों ने राज्य काउंसिल के सदस्यों के सैनिक अभियान की खिलाफत का निर्णय लिया और तय किया कि सभी स्त्री व पुरूष अगले दिन निमाना जाएंगे जहां सैन्य दल सहित राज्य के उच्च अधिकारी पहुंचे हुए हैं। दूसरे दिन 30 मई, 1922 को निमाना में 4 से 5 हजारके बीच किसान स्त्रियों सहित पहुंचे। बिजोलिया पद्धति पर किसान पंचायत का गठन किया गया। पंचायत की साप्ताहिक बैठकें करने का प्रावधान रखा गया।
भयभीत राज्य द्वारा दमन
किसानों की बढ़ती हुई गतिविधियों से भयभीत होकर राज्य ने किसान दमन को तीव्र कर दिया था। 10 जून, 1922 को डाबी में 18 किसानों को गिरफ्तार कर बूंदी जेल भेज दिया। सैन्य दल के सदस्य अनेक गांवों में ये धमकियां देते हुए घूमे कि यदि किसान (ग्रामीण जन) कोई भी सभा करेंगे तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाएगा। किसानों की गिरफ्तारी का क्रम वहीं नहीं रुका तथा 13 जून, 1922 को राजपुरा, नारौली एवं लम्बाखेह में 17 लोग गिरफ्तार किए गए।
महिलाओं की सहभागिता
रास्ते में 300 महिलाओं के जत्थे ने गिरफ्तार किसानों को मुक्त करवा लिया। राज्य सैन्य दल ने भीड़ को तितर–बितर करने के लिए लाठी एवं भालों का खुलकर प्रयोग किया। इस घटना में काफी महिलाएं घायल हुईं। राजस्थान सेवा संघ ने इस घटना का खुलकर विरोध किया। इस अवसर पर राजस्थान सेवा संघ ने एक परचा प्रकाशित किया जिसका शीर्षक था ‘बूंदी राज्य में स्त्रियों पर अत्याचार।’ इस परचे में महिला आन्दोलनकारियों पर पुलिस के अत्याचारों को उजागर करते हुए इसकी भर्त्सना की गई। राजस्थान सेवा संघ ने इसे लेकर काफी हंगामा खड़ा किया। परिणामतः राज्य ने कुछ छूटें दीं, परन्तु बरड़ क्षेत्र के ग्रामीणों ने राज्य द्वारा घोषित छूटों को अस्वीकार कर दिया तथा राजस्थान सेवा संघ के निर्देश पर आन्दोलन यथावत चलता रहा।
गांव–गांव में सभाएं
14 जुलाई,1922 को बूंदी से 14 मील दूर लोइचा नामक स्थान पर एक सभा हुई, जिसमें 1200 स्त्री, पुरुष एवं बच्चों ने भाग लिया। इस सभा में यह तय किया गया कि वे भारी संख्या में बूंदी महाराजा के समक्ष पहुंचकर मांगों के समर्थन में अपना पक्ष प्रस्तुत करेंगे। इस प्रकार की सभाएं गांव–गांव में चल रही थी। सभी सभाओं में किसानों ने किसी भी स्थिति में अपनी एकजुटता को बनाए रखने की शपथ ली। डाबी एवं गराड़ा में क्रमशः 28 जुलाई व 3 अगस्त,1922 की सभाओं में किसानों ने यह निर्णय किया था कि वे राज्य के आदेशों की अवहेलना करेंगे तथा भुगतान करने परभी राज्य कर्मचारियों को खाद्य सामग्री उपलब्ध नहीं कराएंगे।
अक्टूबर 1922 में बरड़ का किसान आन्दोलन खेराड़ क्षेत्र की ओर बढ़ रहा था। बरून्धन जिले के निवासियों ने राज्य के सुरक्षित घास बीड़ों में चराई हेतु अपने पशु हांक दिए थे तथा उन्होंने स्पष्ट रूप से घोषणा की थी कि जब तक उनकी मांगें नहीं मान ली जातीं, तब तक वे ऐसा अनवरत रूप से करते रहेंगे।
1922 के आरम्भ में जनवरी से मार्च के दौरान रणवीर सिंह नामक जागीरदार ने इस आन्दोलन का सक्रिय समर्थन किया। इनकी उपस्थिति में 12 फरवरी, 1922 को तीरथ नामक गांव में एक सभा आयोजित हुई जिसमें 3 हजार किसान एकत्रित हुए थे। इस सभा में उसने किसानों को कर बन्दी के लिए उत्साहित किया।
13 मार्च, 1922 को पराना नामक गांव में आयोजित एक सभा में निर्णय लिया गया कि गांवों में आन्दोलन के संदर्भ में जांच करने के लिए आने वाले अधिकारियों के साथ केवल पंचायत ही वार्ता करेगी।
इस निर्णय से किसानों की एकता भविष्य के लिए भी सुरक्षित कर दी गई थी। अधिकारियों को भी यह निर्देश दे दिया गया कि वे आन्दोलन के सिलसिले में केवल पंचायत से ही बात करें।
नानक भील द्वारा जागृति
आंदोलन के दौरान गोविन्द गुरु और मोती लाल तेजावत को आदर्श मानने वाला एक साहसी, निर्भीक और जागरूक युवा नानक भील पूर्ण निष्ठा और लगन के साथ क्षेत्र के हर गांव, ढाणीमें झण्डा गीतों के माध्यम से लोगों को जागृत कर स्वराज का संदेश पहुंचा रहा था। आन्दोलन दिनों–दिन मजबूत होता जा रहा था, जिससे किसानों के हौंसले काफी बुलन्द थे।
बलिदान हो गए नानक भील
2 अप्रैल, 1922 को डाबी में आयोजित एक सभा में किसानों ने बगैर सीमा शुल्क दिए खाद्यान्नों को टाले जाने, राजस्व के भुगतान रोकने तथा राज्य कर्मचारियों को खाद्य सामग्री न देने सम्बन्धी निर्णय लिया। इसी बीच किसान सम्मेलन न होने देने के सभी प्रयास विफल होने पर सभा स्थल पर राज्य पुलिस पहुंची तथा इस सभा को रोकने का प्रयास किया। पुलिस के आदेशों की अवहेलना होने पर बूंदी के पुलिस अधीक्षक ने भीड़ पर गोली चलाने के आदेश दे दिए। पुलिस द्वारा किसानों पर की गई गोलीबारी में झण्डा गीत गाते हुए युवा नानक भील के सीने पर तीन गोलियां लगीं और वे बलिदान हो गए।
ग्रामीण जनता ने इस बलिदानी नानक भील की देह को गांव–गांव में घुमाया और प्रत्येक घर से प्राप्त नारियलों से बनी चिता पर लेटाकर अंतिम संस्कार किया। राजस्थान सेवा संघ के दबाव से बूंदी के शासक ने जांच हेतु विशेष आयोग नियुक्त किया।
इस घटना के सम्बन्ध में स्वतंत्रता सेनानी रामनारायण चौधरी ने अपने संस्मरण में लिखा है कि, ‘बूंदी के बरड़ इलाके से समाचार आए कि वहां की सेना ने किसानों और उनकी स्त्रियों तक पर हमला कर दिया है। नानक नामक एक भील मारा गया। गोलियों से घायल कुछ अजमेर भी पहुंचे। इस बार भी मैं और सत्य भक्तजी मौके पर भेजे गए। बरड़ की जनता से हमारा परिचय तो था ही। बिजोलिया से लगे हुए, बूंदी के इस बीहड़ इलाके में हम कई बार जा चुके थे, हरि जी वहां कठोर तपस्या की स्थिति में काम कर चुके थे और पं. नयनूराम जी वहीं से गिरफ्तार होकर बूंदी जेल में पहुंच चुके थे। हम जांच के लिए पहुंचे तो वातावरण बड़ा क्षुब्ध था। राज्य की घुड़सवार सेना ने सत्याग्रही स्त्रियों पर घोड़े दौड़ाकर और भाले चलाकर पाश्विक हमले किए थे। इन बहादुर बहनों ने अपने पुरुषों का साथ देकर बेगार, लाग–बाग और लगान की ज्यादती का विरोध किया था। रिश्वत बूंदी का सबसे बड़ा अभिशाप था। ऊपर से नीचे तक प्राय: सभी राज कर्मचारी जनता को खुले हाथों से लूटते थे। बरड़ की प्रजा ने इसका भी खुला विरोध किया।
नानक भील बन गए प्रेरक
राजस्थान के स्वतंत्रता सेनानी माणिक्य लाल वर्मा ने उसी समय नानक भील की याद में एक गीत ‘अर्जी’ शीर्षक से लिखा। नानक भील न केवल बरड़ बल्कि सम्पूर्ण दक्षिणी राजस्थान के किसान व जनजाति समाज के उत्साह का स्रोत बन गया था। किसान एवं जनजाति समाज को जोश दिलाने के लिए बाद तक माणिक्य लाल वर्मा का यह गीत सभाओं में सुनाया जाता रहा।
नानक भील का बलिदान बेकार नहीं गया। इस आन्दोलन के दबाव में यहाँ के किसानों को कुछ रियायतें प्राप्त हुईं, भ्रष्ट अधिकारियों को दण्डित किया गया तथा राज्य के प्रशासन में सुधारों का सूत्रपात हुआ। इस आन्दोलन ने राज्य के अनेक भ्रष्ट कर्मचारियों व अधिकारियों को दण्डित भी किया था। बूंदी के लालची कर्मचारियों व अधिकारियों की रिश्वतखोरी पर कुछ अंकुश लगा। साथ ही किसानों को बेगार व करों के सम्बन्ध में अनेक छूटें प्रदान की गईं, जो इसी आन्दोलन का परिणाम था। इस आन्दोलन ने बूंदी राज्य में स्वतंत्रता आन्दोलन का मार्ग भी प्रशस्त किया।
लगाई गई प्रतिमा
डाबी के मुख्य चौराहे पर स्थित पार्क में नानक भील की आदमकद प्रतिमा लगाई गई है। यहाँ प्रतिवर्ष नानक भील की स्मृति में ‘आदिवासी विकास मेला’ राज्य सरकार की ओर से आयोजित किया जाता है। राजस्थान के किसान आन्दोलन में ‘बरड़ किसान आंदोलन’ के साथ–साथ ’नानक भील’ का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। ’नानक भील‘ बरड़ का वह भील रत्न है, जिसने अपनी जनजाति की परम्परा का निर्वहन करते हुए बलिदान दिया और जनजाति के वीर योद्धाओं में अपना तथा अपने क्षेत्र का नाम हमेशा के लिए लिखवा दिया। “नानक भील” आज भी क्षेत्र के किसानों के दिलों में जिन्दा है।
(लेखक भारतीय इतिहास संकलन समिति, चित्तौड़ प्रांत केअध्यक्ष हैं)