स्वामी विवेकानंद, जिन्होंने विश्व को सच्चे धर्म का परिचय कराया
नरेन्द्र जैन
शिकागो विश्व धर्म सम्मलेन में अपने प्रखर उद्बोधनों एवं विचारों के कारण स्वामी विवेकानंद ने सबका ध्यान आकर्षित कर लिया। सब ओर उनकी ही चर्चा हो रही थी। अमेरिका के धनाढ्य लोग अतिथि के रूप में स्वामी जी की सेवा करने को लालायित थे। अमेरिका और यूरोप के समाचार पत्रों में स्वामी विवेकानंद के भाषणों की ही चर्चा प्रकाशित हो रही थी। जबकि शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन का उद्देश्य था – सभी धर्मों के बीच ईसाईयत की श्रेष्ठता प्रमाणित करना और ग़ैर-ईसाई धर्मों को हीन प्रमाणित करना। परन्तु धर्मसभा के बाद तो ईसाई धर्म ही हीन प्रमाणित हुआ और स्वामी विवेकानंद के रूप में हिन्दुत्व का सबसे प्रखर स्वर गूंजने लगा।
शिकागो धर्मसभा के माध्यम से वेदांत विचारधारा के विस्तार की भी सुविधा उपलब्ध हुई। उल्लेखनीय है कि हेराल्ड में प्रकाशित टिप्पणी आयोजन के निहित उद्देश्य की निरर्थकता को स्पष्ट कर देती है और स्वामी विवेकानंद एवं हिन्दुत्व को वैश्विक पटल पर महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त होता है। हेराल्ड में लिखा गया कि – “धर्म सभा में विवेकानंद ही निर्विरोध रूप से सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति हैं। उनका भाषण सुनकर हम कह सकते हैं कि शिक्षित जाति में धर्म प्रचारक भेजना कितनी मूर्खता है”। वहीं, न्यूयार्क क्रिटिक ने स्वामी जी के व्यक्तित्व का मूल्यांकन करते हुए लिखा – “वे दैवीय सम्पन्न वक्ता हैं और अपनी निश्छल उक्तियाँ जिस मधुर भाषा के माध्यम से व्यक्त करते हैं, वह उनके गैरिक वसन और बुद्धिदीप्त दृढ़ मुख मंडल की तुलना में कम आकर्षक नहीं”। इंग्लैंड के समाचार पत्रों में छपा कि “वे बुद्ध और ईसा के समान महान आत्मा हैं”।
विश्व धर्म सम्मलेन के मंच से स्वामी विवेकानंद का रोम-रोम हिन्दुत्व बोल रहा था। उनका एक-एक शब्द हिन्दू संस्कृति तथा हृदय वेदांत बोल रहा था। उनके अलौकिक व्यक्तित्व का अमेरिका ने इस प्रकार से दर्शन किया कि वहाँ के समाचार पत्र उनकी प्रशस्ति छाप रहे थे। ईसाई देश अमेरिका के लोगों पर स्वामी जी के विचारों का किस सीमा तक प्रभाव पड़ा, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि भारत में सक्रिय ईसाई मिशनरीज़ को मिलने वाली आर्थिक सहायता आधी हो गई थी। स्वाभाविक है कि स्वामी जी की प्रखरता ने भारत को ईसाई बनाने के अभियान में लगे मिशनरियों के कैंप में हलचल पैदा कर दी थी। जिस अमेरिका और पश्चिम के धन के बल पर उनका यह अभियान चलता हो, यदि वे स्वामी जी के तेजस्वी विचारों को खड़ी फसल पर तुषारापात मानने लगे हों तो इसमें अस्वाभाविक कुछ भी नहीं, परिणामस्वरूप स्वामी जी की आलोचना एवं निंदा का अभियान भी चल पड़ा था। उसमें प्रताप चन्द्र मज़ूमदार सहित कुछ भारत के प्रतिनिधि भी थे, जो ईर्ष्यावश स्वामी जी की आलोचना कर रहे थे। परन्तु ईसाई मिशनरियों ने तो स्वामी जी के विरुद्ध अभियान ही छेड़ दिया था। पादरी ह्यूम, पादरी एचएम मोरे, डॉ. बाग्स, पादरी डॉ. कवेल, पादरी डॉ. गार्डन सहित अन्य विवेकानन्द जी के चरित्र हनन की सीमा तक जाकर विरोध कर रहे थे।
स्वामी विवेकानंद 1896 मध्य तक अमेरिका एवं यूरोपीय देशों में रहे। वहाँ उन्होंने वेदांत के प्रचार-प्रसार के लिये भाषण एवं आध्यात्मिक कक्षाएं लीं। हज़ारों अमेरिकन एवं यूरोपियन को हिन्दू धर्म से प्रभावित किया एवं दीक्षित किया। मार्ग्रेट नोबल से भगिनी निवेदिता सहित सैकड़ों यूरोपीय शिष्य बनकर राम कृष्ण मिशन में जुटे। अमेरिका और यूरोप में स्वामी जी को सब प्रकार की सुविधाएँ और सहयोग प्राप्त होने लगा। परन्तु स्वामी जी वहां सुखपूर्वक जीवन बिताने और अपना प्रभाव जमाने के लिए नहीं गए थे। शिकागो धर्म संसद में सम्मिलित होने का स्वामी जी का हेतु बिल्कुल स्पष्ट था। उनकी इस यात्रा का उद्देश्य व्यक्तिगत प्रतिभा का प्रदर्शन करना क़तई नहीं था। वे देशवासियों की कठोर सच्चाई को जानकर अपनी मातृभूमि की विभिन्नताओं एवं जटिलताओं को समझ रहे थे। उन्होंने 1886 में रामकृष्ण की समाधि के उपरांत 18 महीने तक देशाटन के माध्यम से देशवासियों की सामाजिक, आर्थिक सहित जीवन की कठोर सच्चाई को जाना था। विदेशी दासता से जकड़े अपने देशवासियों को मुक्ति दिलाकर अध्यात्म के दर्शन कराना उनका लक्ष्य था। इसलिये धर्म संसद के बाद सब प्रकार की जय-जयकार और प्रसिद्धि ने उन्हें तनिक भी विचलित नहीं किया। उनका हृदय भारत के लिये द्रवित हो रहा था। इसलिये शिकागो निवासियों द्वारा मिली सब प्रकार की सुविधाएँ, आलीशान महल और राजसी स्वागत, अविश्वसनीय भोग-विलास युक्त वातावरण में खुश होने की बजाय वे दु:खी थे। यद्यपि ख्याति और सम्मान प्राप्त होने पर ध्येय की स्मृति बनाये रखना अधिक कठिन होता है। पहली रात में ही बिस्तर पर लेटे-लेटे भारत की ग़रीबी और अमेरिका की विपुल समृद्धि ने उन्हें उत्पीड़ित किया। उन्हें नींद नहीं आयी। मखमली बिस्तर भी उन्हें काँटे की तरह चुभ रहा था। तकिया आँसुओं से भीग गयी। अंत में वे भावनाओं के वशीभूत हो ज़मीन पर गिर गए। वे चिल्ला उठे – “मैं कैसे यश और नाम की चिंता करूँ, जब मेरी मातृभूमि भयंकर ग़रीबी में आकंठ डूबी हुई? दूसरी ओर लोग यहाँ लाखों रुपये अपनी सुख-सुविधा के लिये खर्च कर रहे हैं। भारत की जनता का भला कौन करेगा? कौन उन्हें रोटी देगा? मैं कैसे उनकी सहायता करूँ?”
चार साल की अमेरिका और यूरोप की यात्रा के बाद भारत के लिये उद्यत स्वामी जी को जब वहाँ के एक युवक ने पूछा – “इतने वर्षों तक समृद्ध देशों में रहने के बाद अब आप भारत जैसे देश के बारे में क्या कहेंगे?” तब उनका उत्तर था- “पहले मुझे भारत से प्यार था और अब उसकी धूलि का एक-एक कण मुझे प्यारा है”। स्वामी जी 15 जनवरी, 1897 को जहाज़ से उतरते ही भारत की मिट्टी में लोट-लोट कर बिलखते हुए रो-रोकर बोले – “विदेशों की भोग भूमि के कारण मुझमें कोई दोष आ गए हों तो धरती माता मुझे क्षमा कर देना”।
स्वामी विवेकानंद विश्व को सच्चे धर्म का परिचय देकर अपनी मातृभूमि पर, अपने लोगों के बीच लौट आए। अपने बंधुओं के उत्थान के लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया। उनके जीवन सन्देश को इस कथन से समझ सकते हैं – “मातृभूमि के लिए मेरे सारे जीवन की भक्ति अर्पित करता हूँ और अगर मुझे सहस्त्र बार भी जन्म ग्रहण करना पड़े, तब उन सहस्त्र जीवन का एक-एक क्षण मेरे देशवासियों का होगा”। देश और देशवासियों के प्रति इस उदात्त भाव का प्रकटीकरण हिन्दू संस्कृति से ओत-प्रोत व्यक्ति ही कर सकता है।
स्वामी विवेकानंद ने भारत के अधःपतन के कारणों को भी गिनाया तो समाज से दुःख-दरिद्रता को दूर करने, उसे सशक्त और आत्मनिर्भर बनाने के लिए रास्ता भी बताया। स्वामी जी बहुत कठोरता से अपने हृदय में झांकने के लिए कहते हैं – “तुम लोग क्या सांस-सांस में महसूस कर रहे हो कि करोड़ों लोग भूख से मर रहे हैं। करोड़ों लोग आधा पेट खाकर दिन गुज़ार रहे हैं। क्या तुम लोग महसूस कर रहे हो कि अज्ञान के काले बादलों ने समग्र भारत को ढक लिया है। क्या इन सब चिंताओं ने तुम्हारी नींद हराम कर दी है?”
उन्होंने कहा कि महान कार्य के लिए तीन बातों की आवश्यकता पड़ती है – 1. आत्मीयता, 2. सोचने-समझने की विचार शक्ति और 3. हृदय की विशालता। आज भी भारत के प्रति प्रेम और सम्मान का भाव रखने वाले, देश की सेवा के लिए संकल्पित लोगों और समाजसेवियों को स्वामी जी के इस पाथेय को ध्यान रखकर कार्य करना चाहिए। जब तक व्यक्ति के पास विचार करने की शक्ति, मन में आत्मीयता और हृदय की विशालता नहीं होगी, वह समाज से दुःख और पीड़ा को चाहकर भी दूर नहीं कर सकता। इसलिए वे कहते हैं – “अपनी दासता त्यागो और अगले 50 वर्ष तक अपनी महान भारतमाता के लिये केवल इसे अपना लक्ष्य साधना स्वीकार करो। बाक़ी सभी देवी-देवताओं की आराधना बाद में करेंगे”। आइए, स्वामी विवेकानंद के आह्वान को स्वीकार करें और मानवता की सेवा करें।