हिंदुओं के वीर संगठनों की धार कैसे कुंद हो गई?
क्रांतिवीर
भारत में मतांतरण का आसान लक्ष्य है हिंदू समाज। इसका कारण है हिंदू धर्मावलंबियों का अपनी समृद्ध संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान आधारित परंपराओं के प्रति उनके भीतर घुसे तथाकथित सेकुलरिज्म के वायरस के कारण घोर उदासीनता। लेकिन आज इस कारण पर चर्चा करने के बजाय मतांतरण के बढ़ते मामलों पर बात करते हैं। और बात करते हैं कि क्यों राजनैतिक नेतृत्व इन अराष्ट्रीय गतिविधियों के प्रति घोर उदासीन बना हुआ है। उसकी क्या सियासी मजबूरियां हैं। क्या वह जानबूझकर इन घटनाओं को अनदेखा कर रहा है? क्या हिंदू समाज को कमजोर करने में ही उसे अपनी सियासत नजर आ रही है?
उत्तरप्रदेश में हाल ही में पुलिस ने अवैध मतांतरण के मामले में एक बड़े गिरोह का भंडाफोड़ करते हुए दो लोगों को गिरफ्तार किया है। उत्तरप्रदेश एटीएस ने कड़ी कार्रवाई करते हुए आरोपी मोहम्मद उमर गौतम और मुफ्ती काजी जहांगीर कासमी को पकड़ लिया है। दुर्भाग्य से उमर गौतम कुछ वर्ष पहले ही हिंदू से मतांतरित होकर मुसलमान हुआ है। उत्तरप्रदेश की योगी सरकार ने आरोपियों के विरुद्ध राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (एनएसए) लगा दिया गया है। इन पर जो कार्रवाई होनी है, जरूर होगी।
लेकिन इस घटना के एक सबसे महत्वपूर्ण पहलू पर बात करना आवश्यक है। केंद्रीय महिला और बाल कल्याण मंत्रालय में सांकेतिक भाषा विशेषज्ञ इरफान ख्वाजा खान की मतांतरण में संलिप्तता इंटेलीजेंस की क्षमताओं पर सवाल खड़ा करती है। सरकार के महत्वपूर्ण विभाग में बैठा व्यक्ति न जाने कितने वर्षों से सरकारी दस्तावेजों की मदद से गूंगे और बहरे नाबालिग बच्चों का डाटा मतांतरण में लगे जिहादी प्रवृत्ति के लोगों को उपलब्ध करवाता रहा और इंटेलीजेंस सोता रहा। सवाल यह भी है कि क्या वाकई इंटेलीजेंस को उसकी हरकतों के बारे में पता नहीं था या किसी दबाव में उसने इमरान पर कोई कार्रवाई करने की आवश्यकता नहीं समझी। कितने आश्चर्य की बात है कि उसी व्यक्ति को सांकेतिक भाषा के लिए प्रधानमंत्री के साथ मंच साझा करवाया जाता है। क्या यह सच है कि प्रधानमंत्री कार्यालय को इमरान की हरकतों को बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं था?
गाजियाबाद के डासना देवी शिव शक्ति धाम के महंत और अखिल भारतीय संत परिषद के राष्ट्रीय संयोजक स्वामी यति नरसिंहानंद सरस्वती के इन आरोपों में – कि इरफान जफर सरेशवाला का खास आदमी है, तो यह समीकरण बहुत खतरनाक हैं। और हिंदू समाज के विरुद्ध सोची समझी साजिश है। यति के आरोप हैं कि तब्लीगी जमात का प्रमुख मोहम्मद साद भी जफर की मेहरबानी के कारण ही अब तक पुलिस की गिरफ्त से दूर है। दिल्ली दंगों में भी उसकी भूमिका के बारे में कुछ तथ्य निकले हैं। क्या यह संभव है कि पुलिस के हाथ इतने छोटे पड़ जाएं कि वह मोहम्मद साद सरीखे व्यक्ति को नहीं पकड़ पाए। जमातियों के कोरोना फैलाने और इमारत खाली नहीं करने पर उन्हें समझाने के लिए यदि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जैसे व्यक्ति को मैदान में उतरना पड़ता है तो साद की शख्सियत कोई छोटी-मोटी नहीं मानी जा सकती। लेकिन ऐसा लगता है कि मौलाना साद जैसे व्यक्ति अपने उच्च लिंक के कारण निश्चिंत हैं। माना जाता है कि जफर सरेशवाला के लिंक बहुत ऊंचे दर्जे के हैं। इसलिए यति के इन आरोपों में निश्चिय ही दम है कि अब मतांतरण करने वाले गिरोह का रहस्य कभी नहीं खुल पाएगा। जिस तरह तब्लीगी जमात का प्रमुख मोहम्मद साद आंखों के सामने होते हुए भी आज तक पकड़ से बाहर है। इन घटनाक्रमों को देखकर यति के आरोपों में विश्वास नहीं करने का कोई कारण नजर नहीं आता है।
इनसे भी महत्वपूर्ण और नोटिस करने वाला तथ्य यह है कि हिंदू समाज के वीर संगठन कैसे कमजोर कर दिए गये। एक समय था जब हिंदू समाज में वीरोचित तरीके से प्रतिकार करने के लिए विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और हिंदू वाहिनी जैसे संगठन हिंदू समाज पर हो रहे अत्याचारों का तेजी से प्रतिकार करते थे और अहिंदू समुदाय के दुराग्रही लोग उनसे डरते थे। यही कारण था कि गोधरा मामले के बाद गुजरात में हिंदुओं के विरुद्ध कोई बड़ा षड्यंत्र नहीं हुआ। लेकिन जैसे-जैसे हिंदू समाज के वीर संगठनों की ताकत कम हुई, हिंदू समाज अहिंदू समुदाय के अत्याचारों का शिकार होता गया। पश्चिम बंगाल इसका सबसे ताजा उदाहरण है। सनातन समाज के लोगों पर टीएमसी के गुंडों की खुली गुंडागर्दी का खुला प्रतिकार करने वाला आज वहां कोई नहीं है। यह सच है कि सियासी लोगों से कभी भी हिंदू समाज का झंडा बुलंद नहीं होता। समाज का झंडा उसके मजबूत और आक्रामक संगठनों की वजह से ऊंचा होता है। आज हिंदू समाज अपने वीर संगठनों की आक्रामकता में कमी का अनुभव कर रहा है।