हिंदू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम एवं भारतीय परम्पराएं

हिंदू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम एवं भारतीय परम्पराएं

डॉ. दर्शना जैन

हिंदू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम एवं भारतीय परम्पराएंहिंदू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम एवं भारतीय परम्पराएं

भारतीय कानून में हिंदू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम के अनुसार यदि पिता की मृत्यु 9 सितंबर 2005 से पहले हो गई हो तो बेटी को पिता की संपत्ति पर अधिकार नहीं था, इस फैसले को संशोधित करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 12 अगस्त 2020 को फैसला सुनाया की पिता की मृत्यु कभी भी हुई हो, इससे कोई लेना-देना नहीं है। बेटी के जन्म लेते ही बेटी अपने पिता की संपत्ति में बेटे के बराबर हकदार है।

इसी परिप्रेक्ष्य में देखें तो ज्ञात होगा कि प्राचीन काल में बेटी को बेटे के बराबर का दर्जा दिया गया था, परंतु जैसे ही अंग्रेजी शासन की नींव भारत में रखी गई और 1860 को लॉर्ड मैकाले ने भारतीय कानून की रचना की, तो उसने अंग्रेजी शासन के लाभ के लिए पिता की संपत्ति पर केवल बेटे का अधिकार रहेगा, बेटी या पत्नी का इसमें कोई अधिकार नहीं होगा, ऐसा कानून लागू किया। इस कारण से जिस धनिक वर्ग की बेटियां थी, बेटे नहीं थे, उनकी संपत्ति पर अंग्रेजी शासन जबरन कब्जा कर लेता था। यही शासन प्रणाली भारत में स्वतंत्रता के पश्चात वर्ष 8 सितंबर 2005 तक लागू रही। वर्तमान में देश की सर्वोच्च न्यायालय ने इस कानून को पूर्णता लागू कर दिया। इसी संदर्भ में जैन कानून (लेखक बैरिस्टर चंपतराय) में स्त्रियों को पूर्ण अधिकार दिए जाने पर विशेष जोर दिया है, जैनों के अनुसार जब तक कन्या विवाहित नहीं होती, तब तक उसके पिता की संपत्ति पर पुत्र के बराबर अधिकार रहता है, विवाह होने पर पिता की सहमति से अधिकार रहता है। इसी प्रकार पति की मृत्यु के बाद पत्नी का संपूर्ण अधिकार रहता है, वह जो चाहे कर सकती है। इसी की पुष्टि के तौर पर प्राकृत साहित्य पर स्त्री को जहाँ सर्वगुण संपन्न बताया गया है, वहीं स्त्री पुरुष के समान संपत्ति पर भी पूर्ण अधिकारिणी होती है, चाहे वह पिता की संपत्ति हो अथवा पति की संपत्ति हो। पति के व्यसनी होने पर पत्नी द्वारा उसे बहिष्कृत करने का अधिकार भी प्राप्त है।

11वीं शताब्दी के मुनि श्रीचंद्र कृत कहकोसु ग्रंथ में 25वीं संधि के कडवक संख्या 11 से 21 तक के कत्थक में कहा है – कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर में सोमदत्त नामक ब्राह्मण रहता था, उसकी पत्नी सोमिल्ला के मरण के पश्चात मुनि के उपदेश से वह वैराग्य को प्राप्त हुआ, अपनी पुत्री को अपने मित्र सेठ के पास छोड़कर कि इसका विवाह योग्यवर से कर देना कहकर दीक्षित हो गया। कुछ समय पश्चात ऋषभदास भी पुत्री सोमा को मित्र सुमति को सौंप कर और यह कहकर कि मिथ्यात्व को नाश करने वाले ब्राह्मण को यह कन्या विवाहित करना और समाधि पूर्वक स्वर्ग में देव हुआ। एक दिन जुआ से युक्त, व्यसनी रुद्रदत्त ब्राह्मण को कुछ जुआरियों ने सोमा को विवाहने की शर्त रखी और उसने वह शर्त स्वीकार कर ली और कहा – यदि वह उससे विवाह नहीं कर पाया तो अग्नि में प्रवेश कर लेगा, यह कहकर वह दूसरे देश को चला गया। वहां से किसी मुनि के समीप ब्रह्मचारी बन कर रहा और एक दिन अपने देश लौट आया और ऋषभदास के मंदिर में ठहरा। वहॉं अपने परिचय स्वरूप काल्पनिक कथा कह सुनाई, इससे प्रभावित होकर उस सेठ सुमति ने रुद्रदत्त को मिथ्यात्व का नाश करने वाला जानकर अपनी पुत्री दे दी। विवाह के पश्चात वह पुनः व्यसनी होकर जुआरियों के सम्मुख गया और शर्त जीतने की खुशी मनाई। कुछ दिनों में सोमा को बात पता चलने पर उसने पिता के द्वारा दी गई संपत्ति से उसको बेदखल कर दिया और उसका बहिष्कार किया। अपनी संपत्ति से उसने जैन मंदिर पाठशाला, धर्मशालाएँ, चतुर्विध संघ का सम्मान आदि बहुत से शुभ कार्य किए। इस कथा से यह पता चलता है कि पिता के द्वारा दी गई संपत्ति में कन्या का अधिकार है, उसके पति का नहीं, पति अपनी पत्नी की सहमति से उसका उपयोग कर सकता है। पति के व्यसनी होने पर पत्नी द्वारा उसे संपत्ति आदि से बहिष्कृत किया जा सकता है। जिस प्रकार सुप्रीम कोर्ट ने कन्या का संपत्ति पर पुत्र के समान तथा पुत्र ना होने पर पुत्री का पिता की संपत्ति पर अधिकार माना है, उसी प्रकार जैन कानून और प्राकृत साहित्य पुत्री का संपत्ति में पूर्ण अधिकार मानता रहा है।

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