हिंदू फोबिया भारत को खंडित कर तालिबान का जिहादी परचम लहराने की दिशा में एक गंभीर प्रयास

हिंदू फोबिया भारत को खंडित कर तालिबान का जिहादी परचम लहराने की दिशा में एक गंभीर प्रयास

बलबीर पुंज

हिंदू फोबिया भारत को खंडित कर तालिबान का जिहादी परचम लहराने की दिशा में एक गंभीर प्रयास

ऐसा प्रतीत होता है कि विश्व में “हिंदू फोबिया“ चरम पर पहुंच गया है। शायद इसका कारण हालिया वर्षों के उस घटनाक्रम में छिपा है, जिसमें भारत की वर्तमान मोदी सरकार के नेतृत्व में सीमा पर चीन के अतिक्रमण, कश्मीर में पाकिस्तान प्रायोजित इस्लामी आतंकवाद, भारत-विरोधी शक्तियों और देश को भीतर से कमजोर (विकास में बाधा डालने सहित) करने वाले विदेशी वित्तपोषित एनजीओ पर लगाम कसी जा रही है। हिंदू फोबिया और भारत से घृणा अब पर्यायवाची बन चुके हैं। कोविड-19 विषाणु को लेकर अंतर्राष्ट्रीय मीडिया की रिपोर्टिंग और लगभग 50 अमेरिकी विश्वविद्यालयों में 10-12 सितंबर को आयोजित होने वाला तीन दिवसीय विकृत ‘डिसमैंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व सम्मेलन (dismantling global hindutva meet) इसका प्रमाण है।

पाठकों को स्मरण होगा कि कोरोना की दूसरी लहर में जब भारत में प्रतिदिन 2-4 लाख संक्रमण और 3-4 हजार मौत के मामले सामने आ रहे थे, तब कैसे अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने भ्रामक तथ्यों, मरीजों की काल्पनिक संख्या, अस्पतालों में ऑक्सीजन, दवाओं, वैक्सीन की कमी, श्मशान-घाट में जलती चिताओं और रोते-बिलखते परिजनों की तस्वीरों को विनाश/प्रलय की संज्ञा देकर इसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों, चुनावी रैलियों और कुंभ मेले को जिम्मेदार ठहराया था।

इस पृष्ठभूमि में विश्व में कोरोना की वर्तमान स्थिति क्या है? विगत कुछ दिनों से अमेरिका, जिसकी जनसंख्या 33 करोड़ है और जो स्वयं को विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक-सामरिक शक्ति कहता है- वहां प्रतिदिन औसतन डेढ़ लाख या अधिक कोविड-19 के मामले (संक्रमित और मौत सहित) सामने आ रहे है। परिणामस्वरूप वहां अस्पतालों में संक्रमित मरीजों की संख्या न केवल बढ़ गई, साथ ही बिस्तर और ऑक्सीजन की किल्लत संबंधित शिकायतें भी आने लगी हैं। विश्व के किसी देश में सर्वाधिक मामले अमेरिका में, 4 करोड़ से अधिक सामने आए हैं तो सबसे अधिक 6.5 लाख संक्रमितों की मौत भी यहीं हुई है। इस पृष्ठभूमि में जिस अमेरिकी और पश्चिमी मीडिया ने दुर्भावना से प्रेरित होकर भारत में कोरोना प्रलय की भविष्यवाणी की थी, वह भारत में रिकॉर्ड तोड़ टीकाकरण और अमेरिका की कोविड-19 से बिगड़ी स्थिति पर सुविधाजनक चुप्पी साधे बैठा है। क्यों?

बात यदि 138 करोड़ की जनसंख्या वाले भारत को करें तो बीते कुछ समय से देश में दैनिक मामले (मौत सहित) नियंत्रित हैं। भारत में चीनी कोरोना वायरस का पहला मामला वामपंथी शासित केरल में 27 जनवरी 2020 को तब आया था, जब एक महिला कोविड-19 विषाणु के उत्केंद्र चीनी नगर वुहान से थ्रिसुर लौटी थी। कैसा संयोग है कि आज उसी केरल में प्रतिदिन सामने आ रहे मामले का अनुपात राष्ट्रीय औसत का 60-70 प्रतिशत है।

अब यह संकीर्ण मानसिकता की पराकाष्ठा है, जो “स्वतंत्र पत्रकारिता“ और “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता“ के पैरोकार- दूसरी लहर के लिए पवित्र कुंभ मेले को जिम्मेदार ठहराते हुए भाजपा शासित राज्यों- विशेषकर उत्तर प्रदेश की स्थिति को “विनाशकारी- कुस्वोप्न“ और केरल में वामपंथी सरकार के तत्कालीन कोविड-19 प्रबंधन को आदर्श बता रहे थे।

वैश्विक वाम-उदारवादी वर्ग द्वारा भारत और यहां की मूल हिंदू संस्कृति को तिरस्कृत-अपमानित करने के तार धनवान जॉर्ज सोरोस से भी जुड़ते है, जिनकी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से वैचारिक-राजनीतिक घृणा जगजाहिर है। अपने कई गैर-सरकारी संगठनों (ओपन सोसायटी सहित) के माध्यम से सोरोस जहां दर्जनों भारत विरोधी स्वयंसेवी संस्थाओं और व्यक्ति-विशेषों का वित्तपोषण कर रहे है तो “मीडिया डेवलपमेंट इन्वेस्टमेंट फंड’’ (एमडीआईएफ) के जरिए हिंदुओं और सनातन संस्कृति के प्रति घृणित नैरेटिव स्थापित करने हेतु प्रभावशाली वैश्विक मीडिया संस्थानों (अधिकांश वामपंथी) को वित्तीय सहायता (अनुदान) उपलब्ध करा रहे हैं। यह अकेली संस्था 1996 से लेकर 31 दिसंबर 2020 तक “स्वतंत्र पत्रकारिता” के नाम पर लगभग 240 मिलियन डॉलर अर्थात 1753 करोड़ रुपये से अधिक व्यय कर चुकी है।

बात यदि हिंदू फोबिया के प्रतीक “डिस्मैंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व“ की करें तो इसमें वह हिंदू-विरोधी अमेरिकी इतिहासकार और प्रोफेसर ऑड्री टुश्के भी शामिल हैं, जिन्होंने अपनी पुस्तक “औरंगजेब : द मैन एंड मिथ“ में क्रूर मुगल औरंगजेब को शांति प्रिय और मंदिरों का रक्षक बताया है। वास्तव में यह विकृत आयोजन वामपंथी-जिहादी- चर्च के गठजोड़ का विषैला परिणाम है। वेटिकन और रोमन कैथोलिक चर्च यूरोप-अमेरिका की भांति एशिया के ईंसाईकरण की घोषित योजना हेतु “हीथन/पेगन” हिंदू बहुल भारत में सदियों से मतांतरण में लिप्त हैं। “काफिर-कुफ्र” चिंतन में सभी गैर-इस्लामी संस्कृतियां (कालजयी हिंदू सभ्यता सहित) “झूठी“ हैं और उनसे निपटने हेतु प्रत्येक अनुयायी का कर्त्तव्य, संबंधित मजहबी साहित्य-वांग्मय में निर्धारित है। ऐसे ही वामपंथी रक्तबीज अपने प्रेरक कार्ल मार्क्स के प्रत्येक विचार (“मजहब अफीम है” सहित) को अंतिम सत्य मानकर आगे बढ़ा रहे हैं।

वास्तव में, संकीर्ण “ही वाद“ से बंधे होने के कारण अब्राहिमक चिंतन (“काफिर-कुफ्र“ अवधारणा हित) और वामपंथ ने वैश्विक मानवता को सर्वाधिक आघात पहुंचाया है। जहां चीन, सोवियत संघ, कंबोडिया आदि ’वर्ग-संघर्ष’, “सर्वहारा“ और “जन-क्रांति“ जनित समाजवाद ने असहमति, लोकतंत्र और मानवाधिकारों का गला घोटा, तो वहीं इस्लामी विस्तारवाद ने न केवल स्थानीय संस्कृति और उसके प्रतीकों (मंदिर सहित) को धूल-धूसरित कर दिया, साथ ही असंख्य लोगों को इस्लाम के नाम पर या तो मौत के घाट उतार दिया या फिर उनका तलवार के बल पर मतांतरण कर दिया। इस दंश को भारतीय उपमहाद्वीप सहित शेष विश्व आज भी झेल रहा है। क्या इस पृष्ठभूमि में आज तक वैश्विक ‘‘डिस्मैंटलिंग ग्लोबल जिहाद“ या “डिस्मैंटलिंग ग्लोबल रेडिकल इस्लाम“ सम्मेलन का आयोजन हुआ?

हाल ही में वामपंथियों और इस्लामी कट्टरपंथियों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की तुलना जिहादी संगठन तालिबान से की है। यहां “उल्टा चोर कोतवाल को डांटे“ मुहावरा सटीक चरितार्थ होता है। भारत में यदि कभी तालिबानी व्यवस्था आई, तब यकीन मानिए इसका मार्ग प्रशस्त करने में जिहादियों के साथ-साथ वामपंथी, स्वघोषित उदारवादी- प्रगतिशीलवादी आगे होंगे और देश में उस तालिबानी कुनबे का सशक्त विरोध निर्विवाद रूप से संघ करेगा, जिसका प्रेरणास्रोत हिंदुत्व ही है। सच तो यह है कि हिंदुत्व की सलामती में ही बहुलतावाद, लोकतंत्र, पंथनिरपेक्षता जैसे मूल्यों की सुरक्षा निहित है।

“डिस्मैंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व“ का उद्देश्य ही विश्व के इस भू-भाग में हिंदुओं को कमजोर या समाप्त करना है। इस भूखंड में जहां भी कालांतर में हिंदुओं का हृास हुआ, वहां मूल उदारवादी समाज के स्थान पर मजहबी अधिनायकवाद ने जगह ले ली। अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश- इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। कश्मीर में भी इसका कुप्रयास दशकों से चल रहा है। सच तो यह है कि वैश्विक हिंदू फोबिया खंडित भारत में तालिबान का जिहादी परचम लहराने की दिशा में एक गंभीर प्रयास है।

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