होली पर गोकाष्ठ की बढ़ती मांग

होली पर गोकाष्ठ की बढ़ती मांग

होली पर गोकाष्ठ की बढ़ती मांगहोली पर गोकाष्ठ की बढ़ती मांग

हिन्दू धर्म में सकारात्मक पहल का सदैव स्वागत होता आया है। एक समय था जब होलिका दहन के लिए लकड़ियों का प्रयोग होता था। जनसंख्या कम थी और जंगलों की बहुतायत। फरवरी माह में की जाने वाली वृक्षों की छंटाई से खूब लकड़ी निकलती थी, जिसका घरेलू कामों में भी उपयोग होता था और होलिका में भी। लेकिन धीरे धीरे जंगल सिमटते गए और शहरीकरण बढ़ता गया। ऐसी परिस्थिति में होलिका दहन से लेकर अंतिम संस्कार तक में गोकाष्ठ को बढ़ावा मिला। आज स्थिति यह है कि गोकाष्ठ की मांग पूरी नहीं हो पा रही है। लोग होली पर गोशालाओं के चक्कर काट रहे हैं। जहॉं जितना गोकाष्ठ उपलब्ध है, उठाया जा रहा है। बड़ी गोशालाएं मांग की आपूर्ति करने में लगी हैं। जयपुर की श्री पिंजरापोल गोशाला में पिछले सात वर्षों से गोकाष्ठ तैयार किया जा रहा है। यहॉं से दो सौ टन गोकाष्ठ गुजरात भेजा जा रहा है। जयपुर में पांच सौ स्थानों पर होलिका दहन के लिए गोकाष्ठ की बुकिंग हो चुकी है, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु के चेन्नई से भी ऑर्डर बुक हैं। यहॉं से दस राज्यों में गोकाष्ठ भेजा जाएगा। जयपुर में सौ से अधिक स्वयं सहायता समूहों ने लगभग 2000 टन गोकाष्ठ बनाई है, जिसमें से 70 प्रतिशत बिक चुकी है। रेलवे स्टेशन स्थित सावर्जनिक गोशाला, अलवर सेवाधाम में भी गोकाष्ठ बन रही है और यहॉं से राज्य के अन्य जिलों में भी भेजी जा रही है। भीलवाड़ा जिले की माधव गोशाला सहित अन्य गोशालाओं में गाय के गोबर से लकड़ी, कंडे, बड़बुलियों की माला व हवन टिकिया तैयार कराई जा रही है। यहां लगभग 55 आयोजन समितियों ने विभिन्न गोशालाओं में कंडों की बुकिंग कराई है। 

राजस्थान के अनेक जिलों से ऐसे ही समाचार आ रहे हैं, जहॉं लोग पर्यावरण संरक्षण को ध्यान में रखते हुए गोकाष्ठ से सजी होलिका को प्राथमिकता दे रहे हैं।

गोकाष्ठ की विशेषताएं

गोकाष्ठ लकड़ी की तुलना में अधिक सस्ती और हल्की होती है। इसलिए इसका उपयोग करने में सरलता रहती है। गोकाष्ठ के उपयोग से एक ओर जहॉं लकड़ी की बचत होती है, वहीं दूसरी ओर गोशालाओं की आर्थिक स्थिति को मजबूती मिलती है। लोग गोसंरक्षण के लिए प्रेरित होते हैं। गोकाष्ठ को जलाने में लकड़ी की तुलना में कम कार्बन-डाइ-ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। गाय का गोबर हमेशा से पवित्र माना गया है। पहले घर का आंगन लीपने से लेकर पूजा के स्थान तक को पूजा से पहले गाय के गोबर से लीपा जाता था। बढ़ती मांग के चलते गोशालाओं ने गोकाष्ठ  का उत्पादन तेज कर दिया है।

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