1857 की क्रांति सैन्य विद्रोह नहीं बल्कि स्वतंत्रता का एक सुनियोजित प्रयास था

1857 की क्रांति सैन्य विद्रोह नहीं बल्कि स्वतंत्रता का एक सुनियोजित प्रयास था

रवि कुमार

1857 की क्रांति सैन्य विद्रोह नहीं बल्कि स्वतंत्रता का एक सुनियोजित प्रयास था1857 की क्रांति सैन्य विद्रोह नहीं बल्कि स्वतंत्रता का एक सुनियोजित प्रयास था

भारत की स्वतंत्रता की चर्चा जब होती है तो ध्यान आता है उन क्रान्तिकारियों का, जिन्होंने स्वतंत्रता की बलि वेदी पर अपने प्राणों को न्योछावर कर दिया। किसी भी समूह से, चाहे विद्यार्थी हो या आचार्य, अभिभावक हो या सामान्य व्यक्ति, जब यह कहा जाता है कि कौन-कौन क्रांतिकारी हुए, उनके नाम बताओ तो सामने वाला समूह अधिकतम 15-20 नाम बहुत प्रयास कर बता पाता है। पांच खण्डों में एक क्रांतिकारी कोश प्रकाशित हुआ है, जिसका शीर्षक है – ‘1800 क्रांतिकारियों का जीवन परिचय’, लेखक – श्रीकृष्ण सदन।

हम सब ये भी नहीं जानते होंगे कि भारत की स्वतंत्रता के लिए एक 7 वर्ष की आयु के रघुनाथ पांडुरंग (1946, महाराष्ट्र) नामक बालक ने, 13 वर्ष की आयु में मैना (1857, ग्वालियर) नामक बालिका ने, 12 वर्ष की आयु में बिशन सिंह कूका (1872, मलेरकोटला-पंजाब) नामक बालक ने भी अपना बलिदान दिया था। इन क्रांतिकारियों के बलिदान की एक गाथा है 1857 की, जिसे स्वतंत्रता संग्राम का पहला बड़ा देशव्यापी प्रयास कहा जाता है।

1857 की क्रांति के विषय में पाठ्यपुस्तकों में कितना पढ़ाया जाता है? आठवीं कक्षा की सामाजिक विज्ञान की पुस्तक में एक पाठ आता था, 1857 की क्रांति क्यों हुई, उसकी प्रमुख घटनाएं, उसमें किस-किस ने भाग लिया और उसकी विफलता के कारण। इतनी बड़ी क्रांति और बस चार बातें! इतिहास में तो यह कहकर इस विषय को छिपाया गया कि यह एक सैनिक विद्रोह मात्र था।

क्या थी 1857 क्रांति?

1857 की क्रांति का बीजारोपण 1854 में होता है। रंगों बापूजी गुप्ते महाराष्ट्र में सतारा के राजा प्रताप सिंह के कार्य से और अजीमुल्ला खां नाना साहब पेशवा के वकील उनके राज्य के कार्य से लंदन गए हुए थे। वहां पर रंगों बापूजी गुप्ते और अजीमुल्ला खां इन दोनों की भेंट होती है और इस क्रांति का बीजारोपण दोनों की वार्ता में होता है। वापस भारत आकर दोनों अपने राजाओं से चर्चा करते हैं और यह चर्चा उस समय के उन अनेक राजाओं के साथ भी होती है जो चाहते थे कि भारत स्वतंत्र होना चाहिए। कानपुर के निकट गंगा नदी के किनारे बिठूर के राजमहल (ब्रह्मावर्त घाट) में नाना साहब पेशवा, तात्या टोपे, रानी लक्ष्मी बाई, रंगोंजी बापू, अजीमुल्ला खां आदि अनेक क्रांतिकारी एक मास तक बैठकर क्रांति की योजना बनाते हैं। 1856 के प्रारम्भ में गुप्त रूप से एक युद्ध संगठन की योजना रचना होती है और देशभर में इसकी अनेक शाखाएं खोली जाती हैं। नाना साहब पेशवा के बिठूर (ब्रह्मावर्त) का राजमहल और बहादुरशाह जफर के दिल्ली के दीवाने-ए-आम में क्रांति युद्ध की चर्चाएं अग्नि की ज्वालाओं की तरह धधकने लगती हैं।

एक साथ पूरे देश में क्रांति का दिवस 31 मई, 1857 निश्चित हुआ। इसी दिन का चयन क्यों हुआ? मई मास में ग्रीष्म ऋतु रहती है। अधिकांश अंग्रेज अधिकारी उस समय पर्वतीय क्षेत्र में चले जाते हैं। इस समय युद्ध होगा तो अंग्रेज अधिकारी युद्ध में लम्बे समय तक टिक नहीं पाएँगे। 31 मई, 1857 को रविवार था। रविवार को सैनिक छावनियों में अवकाश रहता है। रविवार के दिन एक साथ क्रांति होगी तो सेना को सम्भलने में समय लगेगा। हमें ज्ञात है कि मार्च 1857 बैरकपुर छावनी (बंगाल) में दो अंग्रेज अधिकारियों को गोली मारकर मृत्युदंड देने के कारण मंगल पाण्डेय को अप्रैल 1857 में फांसी दी गई थी और 10 मई 1857 को मेरठ छावनी के भारतीय सैनिकों ने क्रांति प्रारम्भ कर दी थी। परन्तु पूर्व निश्चित दिवस 31 मई, 1857 ही था।

पूरे देश में एक साथ क्रांति होनी है तो सब स्थानों पर सूचना कैसे होगी? इसके लिए चार माध्यमों का विचार किया गया। पहला रक्त कमल। रक्त कमल प्रत्येक छावनी में गुप्त रूप से जाता था और वहां के भारतीय सैनिक जो क्रांति में भाग लेना चाहते थे, उस रक्त कमल को छू लेते थे और क्रांति में भाग लेने का संकल्प लेते थे। दूसरा माध्यम था रोटी – पूरे गांव के सामने गांव का मुखिया एक रोटी जो दूसरे गांव से बन कर आई हुई होती थी, खा लेता था और पूरा गांव संकल्प लेता था कि क्रांति में हमने भाग लेना है। फिर उस गांव के प्रत्येक घर से आटा लेकर एक रोटी बनती थी, वह रोटी अगले गांव तक जाती थी। यह इस बात का संकेत होता था कि पिछले गांव ने भी क्रांति में भाग लेने का संकल्प लिया है। तीसरा माध्यम, 1854-57 के मध्य जितने भी कुम्भ-अर्धकुंभ-मेले आदि भरे गए, नाना साहब पेशवा के नेतृत्व व मार्गदर्शन में वहां आए लोगों से संकल्प दिलाया जाता था कि देश की स्वतंत्रता के लिए क्रांति में भाग लेना है और चौथा, देशभर के विभिन्न राजाओं से मंत्रणा कर उन्हें क्रांति में भाग लेने की सहमति का कार्य भी नानासाहब पेशवा द्वारा होता था।

उस समय कोई तार व्यवस्था नहीं थी, कोई टेलीफोन नहीं था, कोई रेडियो स्टेशन नहीं था, कोई देश व्यापी समाचार पत्र-पत्रिका नहीं थी, कोई इंटरनेट/सोशल मीडिया नहीं था। उपर्युक्त चार माध्यमों से ही पूरे देश भर में सूचना हुई और सूचना तंत्र इतना सशक्त और गोपनीय था कि अंग्रेजों को इसकी भनक तक नहीं लगी।

1857 की क्रांति के प्रमुख केंद्र – मेरठ, दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, झाँसी, सतारा, अम्बाला, वर्तमान हरियाणा (पंजाब), बिठुर, बैरकपुर, अलीगढ़, नसीराबाद, बरेली, बनारस, इलाहाबाद, ग्वालियर, इंदौर, कलकत्ता, गया, पटना, जगदीशपुर, कालपी, कोल्हापुर, नागपुर, जबलपुर, हैदराबाद, जोहरापुर, कोमलदुर्ग, सावंतवाडी, शंकरपुर, रायबरेली, फ़ैजाबाद, फरुखाबाद, संभलपुर, मथुरा, गढ़मंडला, रायपुर, मंदसौर, सागर, मालाबार आदि, ये कुछ प्रमुख स्थान हैं। इन्हें देखकर यह स्पष्ट होता है कि 1857 की क्रांति देशव्यापी थी और सुनियोजित थी।

दिल्ली का सम्राट बहादुरशाह जफर एक कवि भी था। उनकी लिखी काव्य पंक्तियों में क्रांति की बातें स्पष्ट झलकती हैं। उन्होंने एक गजल की रचना की थी, जिसमें स्वतः यह प्रश्न किया था –

“दमदमे में दम नहीं अब ख़ैर मांगो जान की.

ऐ ज़फर! ठंडी हुई शमशीर हिंदुस्तान की.”

उन्होंने इस प्रश्न का उत्तर भी इन शब्दों में दिया –

“ग़ज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की.

तख़्त ऐ लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की.”

लंदन में 10 मई, 1908 को 1857 की क्रांति की वर्षगांठ का आयोजन किया गया। इस अवसर के लिए सावरकर ने ‘O Martyrs’ (ऐ शहीदों) शीर्षक से अंग्रेजी में चार पृष्ठ लम्बे पैम्पलेट की रचना की, जिसका इंडिया हॉउस कार्यक्रम में तथा यूरोप व भारत में बड़े पैमाने पर वितरण किया गया। इस पैम्पलेट की काव्यमयी ओजमयी भाषा 1857 के बलिदानियों के माध्यम से भावी क्रांति का आह्वान थी।

सावरकर ने लिखा – “10 मई, 1857 को शुरू हुआ युद्ध 10 मई, 1908 को समाप्त नहीं हुआ है, वह तब तक नहीं रुकेगा जब तक उस लक्ष्य को पूरा करने वाली कोई अगली 10 मई आएगी। ओ महान शहीदों! अपने पुत्रों के इस पवित्र संघर्ष में अपनी प्रेरणादायी उपस्थिति से हमारी सहायता करो। हमारे प्राणों में भी जादू का वह मन्त्र फूंक दो, जिसने तुमको एकता के सूत्र में गूँथ दिया था।” इस पैम्पलेट द्वारा सावरकर ने 1857 की क्रांति को एक मामूली सिपाही विद्रोह से बाहर निकालकर एक सुनियोजित स्वातंत्र्य संग्राम के आसन पर प्रतिष्ठित कर दिया।

वास्तव में 1857 की क्रांति न कोई सामान्य सिपाही विद्रोह था, न ही कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया स्वरूप घटनाक्रम। भारत माता को स्वतंत्र करवाने के लिए हमारे पूर्वजों द्वारा एक सुनियोजित स्वातन्त्र्य संग्राम, जिसके प्रतिसाद स्वरूप 90 वर्ष बाद 1947 में हम स्वतंत्र हुए। बाद के 90 वर्षों में वीर सावरकर, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, सुभाष चन्द्र बोस सरीखे अनेकानेक भारतीय क्रांतिकारियों व स्वतंत्रता सेनानियों का प्रेरणा स्रोत बना 1857 का स्वातंत्र्य समर। नमन है 1857 के स्वातन्त्र्य समर के योजनाकारों और बलिदानियों को!

सन्दर्भ

1857 का स्वातंत्र्य समर – विनायक दामोदर सावरकर

स्वतंत्रता संग्राम के बाल बलिदानी – गोपाल महेश्वरी

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