तीर्थंकरों की क्यारी के एक सुगंधित पुष्प आचार्यश्री विद्यासागर
विजय मनोहर तिवारी
तीर्थंकरों की क्यारी के एक सुगंधित पुष्प
इंदौर में वर्षों पहले व्यतीत हुआ वह पल मेरे जीवन के अविस्मरणीय पलों में से है, जो अब तक स्मृति में ठहरा हुआ है। आचार्यश्री विद्यासागर कुछ समय से गोम्मटगिरि में विराजित थे और मुझे देश भर से आए उनके अनुयायियों के बीच जाने, उन्हें सुनने और लिखने का अवसर मिला था। तब मैं इंदौर से प्रकाशित प्रतिष्ठित हिन्दी दैनिक “नई दुनिया’ में था। आचार्यश्री का वहाँ आना, शहर का सबसे बड़ा समाचार था। जिस दिन आचार्य इंदौर से विदा ले रहे थे, मुझे संदेश आया कि मुझे भी रहना है। एमजी रोड के एक परिसर में मंच सजा था। हजारों लोग उन्हें विदा देने आए थे। भारी चहल पहल थी। सड़कों पर सैलाब सा आया हुआ था।
वह एक अत्यंत भावुक प्रसंग था। इंदौर और मालवा के लोग आचार्यश्री के दर्शन के लिए हर ओर से उमड़ पड़े थे और ऐसा पहली बार नहीं हुआ था। वे अपने प्रवास में कहीं भी हों या चातुर्मास के लिए ठहरे हों, विदाई का प्रसंग हर जगह ऐसा ही रहता आया था। मैं जब वहाँ पहुंचा तो उनके अभिनंदन और अपने लिए आशीर्वाद की आकांक्षा के साथ श्रीफल लेकर मंच पर चढ़ा। वे सामने लकड़ी के एक ठोस सिंहासन नुमा आसन पर अपना दाहिना हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में किए विराजमान थे। मैंने अपना परिचय उन्हें दिया था। उनके चेहरे पर हमेशा की तरह बालसुलभ मुस्कान थी। उनकी आँखें बिल्कुल अबोध बालक सी निर्दोष और निश्छल थीं। मैंने श्रीफल उनके चरणों में रखा और नम आँखों से अपना सिर झुका लिया था। मुक्त हृदय से वे आशीष दे रहे थे। किसी कैमरामैन ने कहीं से फोटो खींच ली। मेरे पुराने एलबम में वह तस्वीर आज भी सुरक्षित है और जब भी देखता हूँ तो अपना सौभाग्य मानता हूँ कि एक ऐसे महापुरुष के आभामंडल में मुझे आने का अवसर मिला, लाखों लोग जिनके निकट आने की प्रतीक्षा वर्षों करते थे। उनकी वाणी को सुनने और अपने टूटे-फूटे शब्दों में समाचार के रूप में लिखने का अवसर मुझे मिला था।
एक कन्नड़ भाषी परिवार में जन्मा विद्याधर नाम का साधारण बालक एक दिन आचार्य के ऊँचे स्तर तक अपनी जीवन यात्रा ले जाएगा, किसने कल्पना की थी। एक रोचक संस्मरण में मैंने उनके बाल्यकाल का यह प्रसंग पढ़ा था। कर्नाटक के जिस गाँव में उनका परिवार था, अपने प्रसिद्ध भूदान आंदोलन के दौरान विनोबा भावे एक बार वहाँ आए थे। अपने मित्रों के साथ विद्याधर भी साइकल से विनोबाजी के दर्शन के लिए चले गए। मित्र तो वहीं कहीं सर्कस देखकर वहाँ हो लिए विद्याधर के चरण विनोबाजी की ओर चल पड़े। गाँव लौटे तो श्रीमानजी बिल्कुल ही बदले हुए थे। स्कूल जाना बंद कर दिया। डाँट पड़ी तो अपना निर्णय सुनाया-हमारी लौकिक शिक्षा जितनी होनी थी, हो चुकी। विनाबाजी दूसरों के लिए अपना जीवन लगा रहे हैं तो उनकी भांति मैं भी दूसरों के लिए कुछ करूंगा। विद्याधर के बड़े भाई महावीर अष्टगे जब यह संस्मरण सुनाते तो लगता कि किसी के भी जीवन में कौन सा पल निर्णायक मोड़ सिद्ध हो जाए, कहा नहीं जा सकता। विद्याधर की आयु तब तेरह या चौदह वर्ष रही होगी और लाखों भूमिहीनों के लिए एक भूखंड दान में निकले एक गाँधीवादी संत को दूर से देख-सुनकर वह अपने भविष्य की दिशा को दृष्टि में साफ करके घर लौटा था। महावीर अष्टगे बाद में आचार्यश्री विद्यासागर के ही हाथों से दीक्षित मुनि उत्कृष्ट सागर के रूप में पहचाने गए।
भूदान आंदोलन के दिनों में विनोबा भावे ने देश भर में लगभग 80 हजार किलोमीटर की पदयात्रा की थी। लेकिन जैन परंपरा में दीक्षा लेने के बाद विद्याधर से विद्यासागर बने उस ग्रामीण बालक ने 56 साल में सवा लाख किलोमीटर से अधिक भारत नाप दिया। वे जहाँ से भी गुजरे, जहाँ भी चातुर्मास किए, उनकी स्मृतियाँ अमिट हैं। लोगों ने उनकी स्मृतियों को कलेजे से लगाकर सहेजा हुआ है।
भारत में सनातन कुछ और नहीं, मनुष्य के जीवन को सुगंधित बनाने वाले विचारों की एक विशाल पुष्पवाटिका है। पीढ़ियों तक मनीषियों द्वारा विकसित मनुष्यता की एक ऐसी प्रयोगशाला, जिसमें मनुष्य को देवत्व की ओर अग्रसर करने के महान और सफल प्रयोग हुए हैं। एक हरा-भरा उद्यान, जहाँ हर प्रकार के विचारों को फलने, फूलने और खिलने के अवसर भारत की सहिष्णु परंपरा ने दिए हैं। अनगिन दक्ष मालियों ने इस उद्यान की सुंदरता बढ़ाने में अपनी आयु खपा दी हैं। 24 तीर्थंकरों ने इस विशाल भूभाग को अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ सौंपा है। मैं कहूँगा कि सनातन के उद्यान में तीर्थंकरों की सजाई हुई क्यारी में एक महकता हुआ पुष्प ही थे आचार्यश्री विद्यासागर।
जैन परंपरा भारत के सनातन छत्र में एक अनूठा आरंभ है, जिसमें प्रवेश करने के लिए बहुत कुछ अपेक्षित है। अगर मनुष्य का जन्म किसी महान उद्देश्य के लिए है और वह उसे पा सकता है तो तीर्थंकरों ने सर्वाधिक कठिन मार्ग चुने। हम अपने व्याख्यानों और लेखों में बहुत सरलता से त्याग और तप जैसे शब्दों का उपयोग करते हैं। किंतु असल में त्याग और तप क्या होता है और उसकी घनीभूत प्रतीति कैसी होती है, इसका कोई स्वाद हमें ज्ञात नहीं है। हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि त्याग के चरम पर जाकर जब किसी की देह से वस्त्र भी विदा हो जाते हैं तो उस क्षण उसकी चेतना में क्या घटा हुआ होता है और क्या जुड़ा हुआ होता है? वस्त्र का अंतिम टुकड़ा भी देह से गिर जाए, इस सीमा का त्याग और वह अंतिम नहीं है। वह तो एक तपस्वी के जीवन की नई यात्रा का शुभारंभ है, जो आयुपर्यंत चलनी है। अब एक निर्वस्त्र देह अपने सम्मुख प्रतिपल आने वाली प्रतिकूल परिस्थितियों में ऐसी ही असुरक्षित रहेगी। वह एक स्थान पर ठहरेगी नहीं, निरंतर यात्रा में रहेगी। उसे अपने आहार के कठोर नियम स्वयं तय करने होंगे। शीत, ग्रीष्म और वर्षा से विचलित हुए बिना उसकी चेतना किसी और स्तर पर स्थिर और निरंतर ऊर्ध्वगामी रहेगी।
आचार्यश्री विद्यासागर ने अपने आहार में तेल, चीनी, नमक दशकों पहले जिस क्षण छोड़ा होगा, अब जीवन भर जिव्हा स्वाद का स्पर्श नहीं कर पाएगी। त्याग का यह स्तर जैन परंपरा को भारत के सनातन छत्र पर चमकती एक लंबी और गहरी रेखा खींचता है, संसार में जिसकी टक्कर का कोई दूसरा विचार कभी नहीं हुआ। वे जीवन पर हरी सब्जी, फल, दही, मेवे, अंग्रेजी दवाएँ नहीं लिए। दिन में एक बार हथेली पर लिए गए शेष भोजन के सीमित ग्रास और अंजुलि भर जल। बस। शयन के लिए चटाई, तकिया और चादर तक का त्याग। यह अकल्पनीय है। रोंगटे खड़े करने वाला है। विशेष रूप से तब जब आप दूर वनों में अपने आश्रमों में ही जीवनयापन न कर रहे हों। आपको इसी समाज में सबके बीच, सबके सुख-दुख के साथ रहने और निरंतर भ्रमण की अनिवार्यता हो। ऐसी परिस्थिति में किसी भी महापुरुष के समक्ष हम केवल हतप्रभ होकर करबद्ध प्रणाम की मुद्रा में साक्षी बन सकते हैं। यह हमारी सहनसीमा और विचारवृत्त के परे का त्याग है। आचार्यश्री विद्यासागर महान तीर्थंकरों के बताए इसी सर्वाधिक कठिन मार्ग पर वीरतापूर्वक चले।
आचार्यश्री हमारे समय के ऐसे ही तपस्वी थे, जिन्होंने वैचारिक रूप से भारत को भारत होने के अर्थ दिए। उनके प्रवचनों में सर्वप्रथम श्रेष्ठ भारतीय बनने की देशनाएँ हैं और ये ऐसे सूत्र हैं, जिनसे श्रेष्ठ मनुष्य होने की यात्रा आरंभ होती है। वे कहते थे-भारत को भारत कहिए, इंडिया मत कहिए। शाकाहार को अपनाइए, गोवंश की रक्षा कीजिए। हिंदी को अपनाइए, स्वदेशी पर जीवन टिकाइए। समाज में जो संपन्न हैं, दो गरीब बच्चों को गोद लेकर पढ़ाने का जिम्मा ले लें। दूसरों से ईष्र्या करने की बजाए स्वयं आगे बढ़ने में अपनी ऊर्जा लगाएँ और अंत में अहिंसा और जीयो और जीने दो का अमर संदेश।
मैं समझता हूँ इन संक्षिप्त वाक्यों में भारत की हजारों वर्षों की साधना का सार समा गया है। अगर जीवन में इन सीखों को ही अपना लिया जाए तो हम कल्पना कर सकते हैं कि एक भारतीय होने के अर्थ पूरे हो जाते हैं। आचार्यश्री विद्यासागर जीवन भर अपनी यात्राओं में भारत के कोने-कोने में गए। उनकी सभाओं में भारत का यही अमृत छलकता रहा। वे उस जैन समाज की शिखर विभूति थे, जो भारत में संख्या बल में अल्प होकर भी अर्थव्यवस्था की एक मजबूत धुरी बना हुआ है। उसे किसी से कुछ नहीं चाहिए। उसे किसी विशेषाधिकार की अपेक्षा नहीं है।
साहसी सिख और धैर्यवान पारसियों की भांति भारत का वास्तविक अल्पसंख्यक समूह होने के बावजूद एक पराक्रमी और पुरुषार्थी समाज, जिसने भारतीय लोकतंत्र को मजबूत बनाने में अपनी व्यावसायिक दक्षता का भरपूर सदुपयोग किया है। वह देश को चलाने वाला एक आर्थिक शक्तिसंपन्न प्रेरक मानव समूह है, जिसका नेतृत्व आचार्यश्री विद्यासागर जैसे महापुरुषों ने किया। उन्होंने जैन समाज की असीमित शक्ति को समाज के हर वर्ग के हित में सक्रिय किया और सेवा के अनेक प्रकल्प देश भर में लगातार चलाए। वे जहाँ भी गए, जहाँ भी रुके, किसी न किसी मानव सेवा प्रकल्प की एक ईंट रखकर विशाल भवन खड़ा करने का उत्तरदायित्व समाज के कंधों पर रखकर ही आगे निकले। वे कभी कुछ नहीं भूले। जब भी उनसे मिलने दूसरे राज्यों के लोग आते, वे हरेक प्रकल्प के समाचार पूछते और आगे के चार काम और थमा देते। कहीं रुकना नहीं, कहीं थमना नहीं, अपने जीवन का प्रत्येक क्षण और अपनी सामर्थ्य में देने योग्य धन का हर हिस्सा मानव मात्र के कल्याण में लगते ही रहना चाहिए। यह उनके लिए ऐसा अनंत यज्ञ था, जिसकी कोई कोई पूर्णाहुति नहीं है। इसमें समाज के हर व्यक्ति की आहुति लगनी ही है।
और हमने देखा कि अपने आचार्य के हर आदेश के प्रति नतमस्तक, कृतज्ञ और वचन के पक्के जैनियों ने भी कहीं कोई कसर नहीं छोड़ी। आचार्य का एक संकेत ही काफी था और हम देखते हैं कि वे सारे प्रकल्प देश भर में प्राणों की तरह धड़क रहे हैं। गोसेवा से लेकर स्वरोजगार, शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य, पानी से लेकर पर्यावरण तक, समूचे समाज की शक्ति को सकारात्मक दिशा में प्रवाहित करने का आचार्य का पुरुषार्थ शब्दों के परे है। वे हमारे समय में हमारे बीच तीर्थंकरों की क्यारी में पुष्पित हुए एक ऐसे ही पुष्प थे, जो भारत के वायुमंडल में अपनी सुवास छोड़कर अभी-अभी महासमाधि में चला गया है।