आपद्धर्म और विधि-निषेध
नीलू शेखावत
आपद्धर्म और विधि-निषेध
कुरुदेश भारत के उत्तर पूर्व में अत्यंत समृद्ध एवं वैभवशाली महाजनपद हुआ करता था। वनराजि की इस भूमि पर अपार अनुकंपा थी। नागरिक धन-धान्य से परिपुष्ट तथा नदियाँ जल से परिपूर्ण थीं। यहाँ संपदा के साथ-साथ हाथियों की भी बहुतायत हुआ करती थी, जो किसी राज्य के शक्तिशाली होने का प्रमाण था। किंतु एक बार इस राज्य पर दैव कुपित हुआ। अत्यधिक ओला वृष्टि से वनस्पतियाँ नष्ट हो गईं। धरती ने अन्न उपजाना बंद कर दिया। लोगों के घरों में बचाकर रखा हुआ अन्न भी समय के साथ समाप्त होने लगा। हर तरफ दुर्भिक्ष की दारुण छाया विस्तारित होने लगी। अन्न के बिना मनुष्य की प्राण रक्षा कठिन हो चली।
उसी राज्य के किसी इभ्य (हाथियों को पालने वालों का स्थान) ग्राम में चाक्रायण उषस्ति नाम के ऋषि भी अपनी अल्पवयस्का पत्नी के साथ निवास करते थे। अन्न का संकट ऋषि दंपति के समक्ष भी उपस्थित हुआ। भूख से व्याकुल होकर वे यत्र-तत्र भटकने लगे किंतु कहीं भी अन्न का कण नहीं मिल पाया। पति-पत्नी दोनों अलग-अलग दिशाओं में भिक्षाटन के लिए निकले।
उदरपूर्ति की आशा से ऋषि किसी हाथीवान के घर पहुंचे। संयोग से वह व्यक्ति भोजन ही कर रहा था। ऋषि ने भोजन की याचना की। परन्तु हाथीवान तब तक थाली में रखी उड़द को जूठा कर चुका था। वह बोला- “मैं आपको भिक्षा अवश्य देता किंतु मेरे पास यह इतनी सी उड़द ही है और इसे भी मैंने जूठा कर दिया है। जूठा अन्न देने से मुझे पाप लगेगा।”
ऋषि बोले – “मैं क्षुधा पीड़ित हूँ। मेरे प्राण व्याकुल हुए जा रहे हैं। तुम्हारे पास जैसा भी अन्न है, कृपा करके दे दो, जिससे मेरी प्राण रक्षा हो सके।”
हाथीवान ने बची हुई उड़द उन्हें दे दी। ऋषि कुछ अन्न खाकर बचा हुआ पत्नी के लिए ले जाने को उद्यत हुए तो उसने जल ग्रहण करने का भी आग्रह किया।
ऋषि बोले- “मैं यह जल ग्रहण नहीं करूँगा क्योंकि इसे तुमने जूठा किया है।”
हाथीवान हँसते हुए बोला- “वह जो जूठा अन्न ग्रहण किया उसका क्या? न खिदेतेऽप्युच्छिष्टा” (किं न खिदेते कुल्माषा अप्युच्छिष्टा)
उषस्ति ने कहा- “तुम्हारा तर्क उचित है, किंतु इस जूठे अन्न को खाये बिना मैं जीवित नहीं रह सकता था। इसका कहीं कोई विकल्प नहीं था, जबकि जल तो अभी भी प्रकृति द्वारा यथेच्छ सुलभ है।”
अभिप्राय यही कि ज्ञानावस्था को प्राप्त, विद्या और यश से संपन्न विभूति, जो विधि-निषेध से परे हैं, उन्हें भी आपद्धर्म में ही, जब अन्य अनिंध्य उपायों की संभावना शून्य हो, निषिद्ध कर्म में प्रवृत्त होना चाहिए। विधि का व्यतिक्रम जीवन रक्षा का कोई वैध उपाय न होने पर ही किया जाना चाहिए। ज्ञान के अभिमानवश नियत कर्म की अवहेलना करने की अनुमति ज्ञानी को भी नहीं।
भगवान श्री कृष्ण ने भी गीता में इस ओर संकेत किया है-
नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः॥ 18.7
नियत शास्त्रानुकूल कर्म का त्याग उचित नहीं है। मोह के कारण अज्ञानतावश उसका त्याग कर देना तामस त्याग कहा गया है।