बाबासाहेब के विचारों को तिलांजलि देकर भारत-विरोधी शक्तियों की कठपुतली बन गए हैं स्वयंभू अंबेडकरवादी
बलबीर पुंज
बाबासाहेब के विचारों को तिलांजलि देकर भारत-विरोधी शक्तियों की कठपुतली बन गए हैं स्वयंभू अंबेडकरवादी
स्वतंत्रता के बाद भारतीय राजनीति में कांग्रेस के घटते प्रभाव और संविधान निर्माता डॉक्टर भीमराव रामजी अंबेडकर (1891-1956) की बढ़ती लोकप्रियता के बीच क्या कोई संबंध है? बाबासाहेब से घृणा करने वाले कौन थे और वे किसके सबसे निकट थे? 20वीं सदी के सबसे बड़े भारतीय समाज सुधारक डॉ.अंबेडकर को उनके जीवन के अंतिम पड़ाव में राजनीतिक हाशिए पर किसने धकेला? ऐसे कई सवाल है, जो हालिया घटनाक्रम, विशेषकर सत्तारूढ़ भाजपा और विपक्षी दल कांग्रेस के बीच राजनीतिक खींचतान (झड़प सहित) के कारण एकाएक प्रासंगिक हो गए हैं।
डॉ.अंबेडकर— बदलाव, तर्कशीलता और सामाजिक न्याय का प्रतीक हैं। परंतु उनकी विरासत को हड़पने के प्रयास में कांग्रेस राजनीतिक-वैचारिक भंवर में फंस गई है। पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा डॉ. अंबेडकर का तिरस्कार (1952 का चुनाव सहित) सर्वविदित और सार्वजनिक है। उन्होंने बाबासाहेब को खलनायक के रूप में प्रस्तुत करने और भारतीय सार्वजनिक जीवन से उनके योगदान को मिटाने का हरसंभव प्रयास किया। उदाहरण के तौर पर प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू ने 1955 में स्वयं को भारत रत्न देने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई, जबकि डॉ. अंबेडकर को इस सम्मान के लिए 35 वर्ष प्रतीक्षा करनी पड़ी। इस कालखंड में अधिकांश समय कांग्रेस की ही सरकार थी। वर्ष 1990 में तत्कालीन वी.पी. सिंह के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार, जिसे तब भाजपा और वामपंथी दलों का बाहरी समर्थन प्राप्त था— उसने इस ऐतिहासिक कलंक को मिटाया। उस समय सरकार ने संसद के केंद्रीय कक्ष में बाबासाहेब का चित्र भी स्थापित किया।
वास्तव में, डॉ. अंबेडकर और हिंदुत्व आंदोलन एक-दूसरे का पर्याय है। बाबासाहेब ‘हिंदुत्व’ शब्द का प्रयोग करने वाले पहले लोगों में से एक थे। वर्ष 1916 में उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय के कार्यक्रम में एक दस्तावेज प्रस्तुत किया था, जिसके अनुसार, “यह संस्कृति की एकता ही है, जो समानता का आधार है। मैं कहता हूं कि कोई भी देश, भारतीय उपमहाद्वीप की सांस्कृतिक एकता का सामना नहीं कर सकता। इसमें न केवल भौगोलिक एकता है, बल्कि इससे भी कहीं अधिक गहरी और बुनियादी एकजुटता है— जो पूरे देश को एक छोर से लेकर दूसरे तक जोड़ती है।” वर्ष 1927 में मंदिर प्रवेश के मुद्दे पर डॉ. अंबेडकर ने बयान जारी करते हुए कहा था, “…हिंदुत्व जितना स्पृश्य हिंदुओं का है, उतना ही अछूत हिंदुओं का भी है। हिंदुत्व के विकास और गौरव में वाल्मीकि, व्याधगीता, चोखामेला और रोहिदास जैसे अछूतों का योगदान उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि वशिष्ठ जैसे ब्राह्मणों, कृष्ण जैसे क्षत्रियों, हर्ष जैसे वैश्यों और तुकाराम जैसे शूद्रों का रहा है।”
वीर सावरकर के प्रति कांग्रेस की हीन-भावना किसी से छिपी नहीं है। सच तो यह है कि सावरकर और डॉ. अंबेडकर— दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कई अवसरों पर सावरकर द्वारा किए गए सामाजिक सुधारों की डॉ. अंबेडकर मुखर सराहना कर चुके थे। वर्ष 1933 में अपनी पत्रिका जनता के विशेष अंक में बाबासाहेब ने सावरकर की प्रशंसा करते हुए अनुसूचित जाति-उत्थान में उनके योगदान को गौतम बुद्ध के योगदान जितना निर्णायक और महान बताया था। वीर सावरकर का डॉ. अंबेडकर के प्रति नजरिया कैसा था, इस पर डॉ. अंबेडकर के जीवनीकार धनंजय कीर ने अपनी पुस्तक में लिखा था: “वह एक नेता जो निडरता और पूरी ईमानदारी से डॉ. अंबेडकर के संघर्ष का समर्थन करते थे, वे सावरकर थे।”
डॉ. अंबेडकर अन्य हिंदू नेताओं जैसे स्वामी श्रद्धानंद के भी बड़े प्रशंसक थे और वंचितों के उत्थान में उनके योगदानों की मुखर सराहना भी करते थे। स्वामी श्रद्धानंद का मानना था कि जातिवाद का अंत, हिंदू एकता के लिए आवश्यक शर्त है। डॉ. अंबेडकर ने स्वामी श्रद्धानंद को “अछूतों के सबसे महान और ईमानदार समर्थक” के रूप में वर्णित किया था, जिनकी 1926 में एक जिहादी ने निर्मम हत्या कर दी थी। डॉ. अंबेडकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भी संपर्क में रहे। वर्ष 1939 में उन्हें पुणे में एक आरएसएस प्रशिक्षण शिविर में औपचारिक रूप से आमंत्रित किया गया था, जहां उन्होंने संघ संस्थापक डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार से भी भेंट की थी। तब डॉ. अंबेडकर यह देखकर संतुष्ट हुए थे कि शाखा में जातिवाद के आधार पर कोई भेदभाव नहीं है। इसी तरह वर्ष 1949 में संघ के दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर (गुरुजी) ने दिल्ली में डॉ. अंबेडकर से भेंट की थी और गांधीजी की नृशंस हत्या के बाद कांग्रेस सरकार द्वारा लगाए गए प्रतिबंध को हटाने में सहायता करने पर आभार व्यक्त किया था। यही नहीं, 1954 के उपचुनाव में तत्कालीन युवा संघ प्रचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी, डॉ. अंबेडकर के चुनावी एजेंट थे। अपनी किताब ‘डॉ.अंबेडकर और सामाजिक क्रांति की यात्रा’ में ठेंगड़ी ने इस अनुभव को साझा किया था।
अन्य राष्ट्रवादियों की भांति डॉ. अंबेडकर भी साम्यवाद को भारतीय लोकतंत्र और बहुलतावाद के लिए खतरा मानते थे। कन्वर्जन के मुद्दे पर भी डॉ. अंबेडकर और हिंदुत्व नेताओं का दृष्टिकोण समान था। इस विषय पर बाबासाहेब का विचार था, “कन्वर्जन से देश पर क्या परिणाम होंगे, यह ध्यान में रखना बहुत आवश्यक है। इस्लाम या ईसाई में मतांतरण अछूत वर्गों को राष्ट्रीयकरण से वंचित कर देगा। यदि वे इस्लाम में परिवर्तित होते हैं, तो मुसलमानों की संख्या दोगुनी हो जाएगी और मुस्लिम प्रभुत्व का खतरा भी वास्तविक होगा। यदि वे ईसाइयत में कन्वर्ट होते हैं, तो ईसाइयों की संख्यात्मक शक्ति पांच से छह करोड़ हो जाएगी और इससे ब्रितानी राज को सहायता मिलेगी।”
वास्तव में, डॉ. अंबेडकर की पाकिस्तान, इस्लाम, आर्य आक्रमण सिद्धांत और जनजातियों की स्थिति आदि विषयों पर राय, उन्हें और हिंदुत्व समर्थकों को एकसूत्र में बांधती है। हिंदू समाज में व्याप्त कुरीतियों से डॉ. अंबेडकर असंतुष्ट थे। लेकिन वे इसके लिए अब्राहमिक मजहबों को विकल्प नहीं मानते थे। अपनी मृत्यु से ठीक 53 दिन पहले, 14 अक्टूबर 1956 को उन्होंने अपने अनुयायियों के साथ बौद्ध परंपरा को स्वीकार किया। उन्होंने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि वे चाहते थे कि उनके लोग सनातन संस्कृति कभी नहीं छोड़ें और उसकी बहुलतावादी-उदारवादी जीवनमूल्यों की छत्रछाया में रहें। यह दुर्भाग्य है कि स्वयंभू अंबेडरवादियों और डॉ. अंबेडकर के नाम पर राजनीति करने वाले कुछ समूह बाबासाहेब के विचारों को तिलांजलि देकर भारत-विरोधी (इंजीलवादी-औपनिवेशिक-जिहादी सहित) शक्तियों की कठपुतली बन गए हैं, जो भारतीय समाज में कुरीतियों का परिमार्जन नहीं, बल्कि उनका प्रयोग अपने निहित एजेंडे की पूर्ति हेतु करना चाहती हैं।
(हाल ही में लेखक की ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक प्रकाशित हुई है)