भारत विरोधी वैश्विक जमात की आवाज बन रहा विपक्ष
बलबीर पुंज
भारत विरोधी वैश्विक जमात की आवाज बन रहा विपक्ष
हालिया घटनाक्रम से संकेत मिलता है कि देश की राजनीति में एक वर्ग को भारत पर ही भरोसा नहीं है। विश्व के किसी भी लोकतांत्रिक देश की राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में दलों द्वारा एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाना स्वाभाविक है और यह स्वस्थ जनतंत्र का प्रतीक भी है। परंतु भारत, जोकि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और सेकुलर राष्ट्र है— वहां राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में कांग्रेस सहित कई विपक्षी पार्टियों का भाजपा-संघ विरोध, देश और उसकी संस्थाओं के प्रति शत्रुता और घृणा में परिवर्तित हो गया है। चाहे चुनाव आयोग हो, न्यायपालिका हो, कार्यपालिका हो, मीडिया हो या फिर देश की उज्जवल औद्योगिक क्षमता— राजनीतिक और वैचारिक कारणों से विश्व में इन सबकी छवि को कलंकित और धूमिल करने का संयुक्त प्रयास— इसका जीता-जागता उदाहरण है।
हरियाणा के बाद महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद कांग्रेस और उसके सहयोगियों की बौखलाहट चरम पर है। कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने 26 नवंबर को यहां तक कह दिया, “हमें बैलेट पेपर की वापसी के लिए आंदोलन शुरू करना चाहिए।” यह स्थिति तब है, चुनाव से पहले महाराष्ट्र कांग्रेस के आंतरिक सर्वे में भी पराजय के संकेत मिल गए थे। यही नहीं, गत दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने बैलेट पेपर से चुनाव कराने संबंधित अर्जी पर न सिर्फ याचिकाकर्ता को कड़ी फटकार लगाई थी, बल्कि इसके माध्यम से राजनीतिक दलों को भी संदेश देते हुए कहा था, “जब चुनाव हार जाते हैं तो ईवीएम खराब हो जाती है और जीत जाते हैं तो चुप्पी। हार का ठीकरा ईवीएम पर फोड़ना ठीक नहीं।“
शीर्ष अदालत की यह टिप्पणी इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि जब हरियाणा और महाराष्ट्र चुनाव के परिणाम आए थे, तब क्रमश: जम्मू-कश्मीर और झारखंड चुनाव का भी निर्णय आया था, जिसमें कांग्रेस समर्थित गठबंधन विजयी रहा था। इसी दौरान गांधी-वाड्रा परिवार की प्रियंका गांधी भी केरल की वायनाड की लोकसभा सीट से प्रंचड मतों के साथ जीतने में सफल रही थीं। ऐसे अनेकों उदाहरण हैं। विपक्षी दल देश में उस चुनाव आयोग और ईवीएम की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठाते हैं, जिसे दुनियाभर में सराहा जाता है। हरियाणा-महाराष्ट्र चुनाव के जनमत को मानने से इनकार करना और निर्वाचन प्रक्रिया को संदेहास्पद बनाने का प्रयास, वास्तव में मुख्य विपक्षी दल के रूप में कांग्रेस की कुंठा, अपने सहयोगियों को कमतर आंकना, असहमति के प्रति असहिष्णु चरित्र और जनमानस से उनके कटाव को ही दिखाता है।
इसी कांग्रेस ने अपने अन्य विपक्षी दलों के साथ मिलकर संसद नहीं चलने दी। इसका प्रमुख कारण अमेरिकी अदालत द्वारा भारतीय कंपनी— अडाणी समूह के विरुद्ध आरोप लगाना रहा। यह दिलचस्प है कि स्वयं अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन को अपने देश की न्यायपालिका पर भरोसा नहीं है, तब कांग्रेस आदि विरोधी दल उसी अमेरिकी न्याय प्रणाली पर अंध-विश्वास कर रहे हैं। राष्ट्रपति बाइडेन ने एक दिसंबर को अपने बेटे हंटर को 100 से अधिक अपराधों, जिनमें नशीली दवाओं और व्यवसायिक अपराध शामिल हैं— को ‘राजनीति’ से ‘संक्रमित’ बताते हुए बिना शर्त क्षमादान दिया है। यह अमेरिकी न्याय प्रणाली और उसके खोखले लोकतंत्र की सच्चाई है। दुर्भाग्य से राहुल अपने विदेशी दौरों में इन्हीं पश्चिमी-अमेरिकी देशों से भारत में अनादिकालीन लोकतंत्र की तथाकथित ‘रक्षा’ करने का आह्वान करते हैं।
यह जांच का विषय है कि अडाणी ने अपने व्यापारिक विस्तार में भ्रष्टाचार का सहारा लिया या नहीं। लेकिन क्या यह सच नहीं है कि अमेरिका और चीन सहित शेष विश्व के बड़े औद्योगिक घरानों ने विश्व में अपना व्यापारिक साम्राज्य इसी तरह स्थापित किया है? अडाणी पर कथित रिश्वत देने का आरोप केवल व्यापारिक ईमानदारी के उल्लंघन से जुड़ा है या मामला कुछ और है। सच तो यह है कि अडानी समूह एशिया, अफ्रीका और अमेरिका में बड़े स्तर पर वैश्विक बंदरगाह, हवाई अड्डों और ऊर्जा परियोजनाओं की योजना बना रहा है, जो मजबूत और महत्वकांक्षी भारत के वैश्विक उभार का प्रतीक है। स्वाभाविक है कि वर्ष 2014 से भारतीय उद्यम क्षमता के वैश्विक फैलाव से ‘व्हाइट मेन बर्डन’ मानसिकता प्रेरित औपनिवेशिक वर्ग और साम्राज्यवादी चीन बौखला रहा है। इनका उद्देश्य सिर्फ अडाणी को बदनाम करना नहीं है, बल्कि समस्त भारत, उसकी उद्यम शक्ति और वित्तीय निकाय प्रणाली को भी संदिग्ध बनाकर धराशाही करना है। यह चिंताजनक है कि भारत में विपक्षी दल का बड़ा हिस्सा (कांग्रेस सहित) प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति अंधी-घृणा के कारण प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से उसी भारत-विरोधी वैश्विक जमात का भोंपू बनता जा रहा है।
देश की उन्नति में नीतिगत सुधारों के साथ भारतीय उद्यम क्षमता की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका है, जिसे वामपंथ प्रेरित समाजवाद के कारण 1990 के दशक तक पनपने नहीं दिया जा रहा था। 50 वर्ष पहले जिन अपशब्दों से वामपंथी-पश्चिमी समूह टाटा-बिरला औद्योगिक समूह को गरियाते थे, वही अब अंबानी-अडाणी समूह के लिए उपयोग होते हैं। राहुल सहित कई विपक्षी नेता भारतीय औद्योगिक घरानों को जी-भरकर कोसते हैं, लेकिन विदेशी कंपनियों के विरुद्ध वैसी मुखरता नहीं दिखाते। क्यों?
यह रोचक है कि कांग्रेस सहित विपक्षी दलों को अमेरिकी अदालतों पर विश्वास है, परंतु वह भारतीय न्याय व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करते हैं। इस मानसिकता के पीछे वे निर्णय हैं, जिनसे इनका राजनीतिक-वैचारिक एजेंडा ध्वस्त होता है। इस बार इनके निशाने पर हाल ही में सेवानिवृत हुए मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे न केवल वर्ष 2019 में अयोध्या मामले में श्रीरामलला के पक्ष में निर्णय देने वाली खंडपीठ का हिस्सा थे, बल्कि बकौल सीजेआई उन्होंने 1991 के ‘पूजा स्थल अधिनियम’ पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि यह कानून किसी पूजास्थल के मजहबी चरित्र का पता लगाने पर प्रतिबंध नहीं लगाता। इससे पहले अप्रैल 2018 में कांग्रेस और वामपंथियों सहित कुछ विपक्षी दलों ने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के विरुद्ध महाभियोग प्रस्ताव लाने का प्रयास किया था।
विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया— भारतीय लोकतंत्र के चार प्रमुख स्तंभ हैं। आज यही संस्थाएं जब स्वतंत्र होकर, संवैधानिक मर्यादाओं में रहकर काम कर रही हैं और देश में दशकों तक दबे वैकल्पिक विचार-विमर्श को जनस्वीकृति मिल रही है, तब कांग्रेस और उसके सहयोगियों का कुंठित होना समझ में आता है।
(हाल ही में लेखक की ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक प्रकाशित हुई है)