भारत की सनातन पुकार है अयोध्या

भारत की सनातन पुकार है अयोध्या

विजय मनोहर तिवारी

भारत की सनातन पुकार है अयोध्याभारत की सनातन पुकार है अयोध्या

वह धूल खाती उजाड़ अयोध्या थी। जहाँ रामलला को एक बदहाल टेंट में देखना हरेक सच्चे भारतीय के लिए एक दुखद अनुभव ही रहा था। स्वामी रामचंद्रदास परमहंस से कई बार मिलना हुआ था, जो श्रीराम जन्मभूमि न्यास का एक बड़ा चेहरा और अयोध्या की मुक्ति के एक साहसी योद्धा संन्यासी थे। अयोध्या पर कुछ भी लिखने के पहले उसकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को समझना आवश्यक है। अयोध्या पर प्रकाशित अनेक पुस्तकों में से एक पुस्तक इस दृष्टि से अत्यंत उपयोगी है- ‘अयोध्या का इतिहास एवं पुरातत्व, ऋग्वेद काल से अब तक’। यह प्रसिद्ध पुरातत्वविद डॉ. स्वराज प्रकाश गुप्त और ठाकुर प्रसाद वर्मा द्वारा लिखी गई है। इस पुस्तक के अंतिम पृष्ठों पर 70 से अधिक रंगीन और श्वेत-श्याम चित्र खुदाइयों में निकले साक्ष्यों के हैं। टूटी फूटी मूर्तियाँ, कलश, स्तंभ, संस्कृत के लेख, जिनमें कन्नौज के गहड़वाल वंश के राज परिवार द्वारा विष्णुहरि के मंदिर निर्माण का उल्लेख है। यह पुस्तक स्कूलों और स्कूलों से अधिक मदरसों में अनिवार्य की जानी चाहिए, ताकि झूठे दावों में पलने वाली पीढ़ी को अपनी ही असलियत का अनुमान हो सके। वे जान सकें कि भारत की सनातन पुकार है अयोध्या।

मेरी यात्राएं बसपा और सपा की एक के बाद एक आई सरकारों के समय हुई थीं। अयोध्या की उपेक्षा दिल को तोड़ने वाली थी और मैंने लिखा था- हजारों वर्ष पुरानी एक ऐसी बसाहट, जो आज सिर्फ बेचैनी पैदा कर रही थी। राम के आदर्श राज्य और उनकी महान भूमिका की कोई सुगन्ध दूर-दूर तक नहीं थी। ट्रेन के पीछे छूटती अयोध्या वहीं थी, मगर यह त्रेता युग नहीं था, कलयुग था। राम अतीत की कहानियों में जगमगा रहे थे। कलयुग अपने अंधेरे से जूझ रहा था।

मैंने अयोध्या के अंतिम दर्शन उसी अंधेरे में किए, जो भारत की सेक्युलर राजनीति ने उसके हिस्से में फैलाया और गहरा किया था। 2014 और 2017 के बाद अयोध्या और वाराणसी को उनके अधिकार मिलने शुरू हुए और मुझ तक केवल समाचार ही आए कि क्या कुछ बदल गया है या तेजी से बदल रहा है। जनवरी में मंदिर का लोकार्पण एक ऐतिहासिक घटना होगी, जब पाँच सौ वर्षों बाद राम वहाँ विराजित होंगे, जहाँ से एक आतंकी लहर ने उन्हें विस्थापित कर दिया था। गाँव-गाँव में मंदिरों के विध्वंस की कहानियाँ पसरी पड़ी हैं, लेकिन अयोध्या भारतीयों के हृदय में शूल सी चुभती रही।

मुगलों से लेकर अंग्रेजों तक अयोध्या की मुक्ति के लिए 78 जानलेवा लड़ाइयों का रिकॉर्ड है। यह पीढ़ियों तक चला संघर्ष था, जिसमें स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के 70 वर्ष भी शामिल है। अयोध्या के हिस्से की संपूर्ण स्वतंत्रता सुप्रीम कोर्ट से आई, सरकारों से नहीं। सेक्युलर सरकारों से तो बिल्कुल नहीं। एक ही पार्टी ने अपने जन्म के साथ ही दशकों तक अयोध्या का स्वप्न अपनी आँखों में बसाकर रखा था और वह कांग्रेस नहीं थी। अयोध्या की 70 हजार जनसंख्या में 7 हजार मुसलमान थे, जो थोड़ी सी चर्चा के बाद ही यह मानते थे कि उनके पुरखे कभी न कभी हिन्दू परंपराओं से जुड़े थे और बाद में इस्लाम अपना लिया था। मंदिर तोड़कर मलबे से मस्जिदें बनाना भारत की सनातन पहचान को छीनने का अनिवार्य कार्य था, जिसका विस्तार जिंदा लोगों की पहचानें छीनने तक लगातार फैला रहा। जिस प्रकार मंदिरों के मलबे से मस्जिदें बनती गईं, उसी प्रकार अपमानजनक परिस्थितियों में रामदासों पर गुलाम रसूल का नया नाम चिपका दिया गया। इसके हजारों विवरण इतिहास के दस्तावेजों में भरे पड़े हैं। गुलाम रसूल की बदले हुए नाम और पहचान वाली संतानों ने मस्जिद से तो अपना संबंध जोड़कर रखा, मंदिर उनकी स्मृतियों से पुंछता चला गया और रामदास का तो कोई नामलेवा भी नहीं रहा।

अयोध्या हम सबकी मूल पहचान का एक पुनः स्मरण है। अयोध्या के प्रकाश में सदियों के पार अंधेरे में पीछे छूट गए अपने-अपने बेबस और अपमानित रामदासों को याद किया जाना चाहिए। अयोध्या में लौटी रौनक सच्चे पूर्वजों के रूप में उन्हीं अनगिनत रामदासों की एक सनातन पुकार भी है। जो हमारे कानों में गूँज रही है।

Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *